रोड के ठेकेदार अब बिल्डिंग बनाएंगे
17-Jan-2015 11:25 AM 1234974

मध्यप्रदेश के एमपीआरडीसी में इतने करामाती अफसर बैठे हुए हैं कि रातोंरात 420 करोड़ को 250 करोड़ में तब्दील कर देते हैं और मध्यप्रदेश की भोली-भाली सरकार भी उनकी इस करामात पर मुग्ध होते हुए उन्हें तीन मेडिकल कॉलेज बनाने का दायित्व सौंप देती है।
बात हो रही है मध्यप्रदेश के रतलाम, विदिशा, शहडोल में प्रस्तावित तीन मेडिकल कॉलेजों की जिन्हें बनाने के लिए एमपीआरडीसी इतनी लालायित है कि उसने रातोंरात इन कॉलेजों के निर्माण का स्टीमेट घटाकर आधा कर डाला। दरअसल मध्यप्रदेश मेें तीन नए मेडिकल कॉलेज बनने हैं। केंद्र ने तीनों कॉलेजों की जो लागत (189 करोड़ रुपए प्रति कॉलेज) तय की है, उसमें से 75 प्रतिशत केेंद्र और 25 प्रतिशत राज्य सरकार वहन करेगी। राज्य सरकार ज्यादा भी खर्च कर सकती है। क्योंकि निर्माण लागत हर जगह एक समान नहीं होती। इन तीनों कॉलेजों के निर्माण के लिए एमपीआरडीसी जी-तोड़ कोशिश कर रहा है। पहले चिकित्सा शिक्षा विभाग तीनों कॉलेजों के  निर्माण का दायित्व पीडब्ल्यूडी को देना चाहता था। कैबिनेट की प्रेसी भी पीडब्ल्यूडी के लिए ही की गई थी। लेकिन बीच में एमपीआरडीसी कूद पड़ा जो अब तक ठेकेदारों से सड़क बनवाता आया है  भवन निर्माण के क्षेत्र में उसका अनुभव शून्य ही है। पहले-पहल जब रतलाम, विदिशा, शहडोल  कॉलेजों के निर्माण के लिए एमपीआरडीसी ने क्रमश: 381.40, 420.93 और 404.18 करोड़ रुपए का अनुमानित व्यय प्रस्तुत किया तो सबके कान खड़े हो गए, बाद में एमपीआरडीसी ने रिवाइज्ड प्रपोजल प्रस्तुत करते हुए उपरोक्त कॉलेजों के लिए क्रमश: 275.96, 230.76 तथा 287.18 करोड़ रुपए का अनुमानित व्यय प्रस्तुत किया। 21 नवंबर 2014 को हुई बैठक में प्रस्तुत व्यय के मुकाबले 412.16 करोड़ रुपए कम! एसएलईसी की 24वीं बैठक में तीनों कॉलेजों की अनुमानित लागत 1206.51 करोड़ प्रस्तुत की जाती है और 25वीं बैठक में यही लागत घटकर 793.9 करोड़ रह गई। बैठक में कहा गया कि थोड़ी सी चूक हो गई। यदि इस चूक को नजरअंदाज कर दिया जाता तो खजाने पर 412.16 करोड़ रुपए का भार पड़ सकता था। वो तो भला हो चिकित्सा शिक्षा विभाग और सरकार के सजग अधिकारियों का, जिन्होंने समय रहते इस बड़े अन्तर को भांप लिया। चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव अजय तिर्की ने ताड़ लिया कि दाल में कुछ काला है। कमाल की बात तो यह है कि संस्थागत वित्त के कमिश्नर और मध्यप्रदेश रोड डेव्लपमेंट कार्पोरेशन के एमडी विवेक अग्रवाल भी 412.16 करोड़ रुपए के ओवर स्टीमेट को नजर-अंदाज कर गए। क्या उनके विभाग ने बिना उनको दिखाए यह स्टीमेट एसएलईसी की 24वीं बैठक में प्रस्तुत कर दिया था। विवेक अग्रवाल पीपीपी मॉडल के बहुत बड़े हिमायती हैं। उन्होंने इस संबंध में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2014 में एक प्रजेन्टेशन भी दिया था, जिसमें पीपीपी मॉडल की खूबियां बताईं थीं। एक खूबी यह भी थी कि समय बचता है और पैसा कम लगता है। लेकिन एमपीआरडीसी ने जो पहले प्रपोजल दिया था कदचित उससे पूर्व अग्रवाल महोदय ने अपने ही पीपीपी (पॉवर पाइंट प्रजेन्टेशन) का अवलोकन नहीं किया, अन्यथा वे पूरे होशोहवास में पहला प्रपोजल प्रस्तुत करते।
सवाल यह है कि जब पीडब्ल्यूडी को यह जिम्मेदारी सौंपी जा रही थी, तो एमपीआरडीसी ने अतिरिक्त सजगता क्यों दिखाई? इससे पहले भी बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज, सागर 157 करोड़ रुपए में हाउसिंग बोर्ड ने बनाकर दिया था। क्या हाउसिंग बोर्ड का काम इतना घटिया था? 100 साल से निर्माण में लगी पीडब्ल्यूडी क्या इतनी अनुभवहीन है कि 3 मेडिकल कॉलेज नहीं बना सकती? माजरा क्या है? एमपीआरडीसी के कर्ताधर्ताओं ने दावा किया है कि उनके पास पर्याप्त तकनीकी और निर्माण संबंधी दक्ष लोगों की फ्लीट है। शायद यह सच हो, लेकिन इस पूरे मामले में दाल में कुछ काला नजर आ रहा है। संस्थागत वित्त और एमपीआरडीसी का मुखिया एक होने के कारण इस बात की पूरी संभावना है कि तीनों कॉलेजों के निर्माण के लिए वे शर्तें ही मान्य की जाएंगी, जो सुविधाजनक हों। क्योंकि इस मामले में अड़ंगा डालने वाले और चीर-फाड़ करने वाले आईएएस आशीष उपाध्याय को कुछ ही माह पूर्व संस्थागत वित्त से चलता कर दिया गया है और उनकी जगह एमपीआरडीसी के ही प्रबंध संचालक आसीन हो गए हैं। यानी जिस संस्था को काम कराना है और जिसको वित्त प्रबंधन करना है, दोनों का मुखिया एक ही है। ऐसे में क्या-क्या गुप्त रहेगा और क्या सामने आएगा, कहा नहीं जा सकता। विदिशा, रतलाम और शहडोल में जो अस्पताल बनने वाले हंै, उनके लिए फिलहाल 4 कंपनियों ने रुचि दिखाई है। इनमें सुनील हाईटेक, आईएलएफएस, जैन एंड मोदी कंस्ट्रक्शन कंपनी, शापोसी पालोमजी प्रमुख है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इंर्टीगे्रटेड चेकपोस्ट का ठेका जिस कंपनी को मिला है उसी को यह ठेका भी हाथ लग जाए। क्योंकि ज्ञात हुआ है कि आईएलएफएस की कमान कुछ रिटायर्ड आईएएस अफसरों के हाथ में है। बीओटी (एन्युटी) के तहत तीनों मेडिकल कॉलेजों के निर्माण के लिए अभी कैबिनेट में प्रस्ताव जाएगा और जिस तरह की तैयारियां की जा रही हैं, उसे देखकर लग रहा है कि येन-केन-प्रकारेण इसी मॉडल के तहत काम होगा। क्योंकि एमपीआरडीसी ने तो 15 दिसंबर 2014 को ही 4 पहले से ही योग्य बिडर्स को ध्यान में रखते हुए आरएफक्यू (रिक्वेस्ट फॉर क्वालिफिकेशन) और आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल) प्रस्तुत कर दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि कैबिनेट में केवल खानापूर्ति की जाएगी, बिसात तो पहले ही बिछाई जा चुकी है।  सवाल यह भी है कि यदि इन तीनों कॉलेजों का निर्माण होना है तो सरकार स्वयं यह बीड़ा क्यों नहीं उठाती? सरकार नाबार्ड से 7.5 प्रतिशत की न्यूनतम ब्याज दर पर लोन लेकर भी इस काम को अंजाम दे सकती है। मजे की बात तो यह है कि चिकित्सा शिक्षा विभाग ने सरकार में जो प्रस्ताव दिया था, उसमें सुझाया गया था कि इन कॉलेजों का निर्माण हाउसिंग बोर्ड अथवा पीआईयू द्वारा किया जाना चाहिए। इसे लेकर कैबिनेट में भी हंगामा हुआ। क्योंकि एमपीआरडीसी को मात्र दो इमारत एजेंसी के माध्यम से बनाने का अनुभव है।
एमपीआरडीसी में ज्यादातर रोड निर्माण में लगे लोगों को ही डेपुटेशन या संविलियन पर लिया गया है, भवन निर्माण का इन्हें भी कोई विशेष अनुभव नहीं है। हालांकि 25वीं बैठक में एमपीआरडीसी ने जो परिवर्तित लागत प्रस्तुत की है, वह हाउसिंग बोर्ड द्वारा प्रस्तावित लागत के आसपास ही है। लेकिन बीओटी (एन्युटी) मॉडल की खासियत यह है कि इसमें निजी भागीदार, कंपनी या ठेकेदार लगातार 10 वर्षों तक लाभांवित होते रहते हैं। लगभग 50 प्रतिशत पैसा पहले मिल जाता है और बचा हुआ मिलता रहता है। उधर मेंटेनेंस के नाम पर भी 70 लाख से लेकर 210 लाख रुपए तक पैसा अलग मिलेगा। इसलिए निजी कंपनियां और ठेकेदार इस मॉडल से काम करने के इच्छुक रहते हैं। सरकार की जेब से दोगुनी राशि निकलती है और जब 10 वर्ष बाद निजी कंपनी या ठेकेदार पीपीपी प्रोजेक्ट से बाहर निकलता है, तो लागत से 80 प्रतिशत (लगभग 560 करोड़ रुपए) अधिक उसकी जेब में जाएगा। यहां सवाल यह भी है कि बीओटी मॉडल के तहत जो ब्याज निजी कंपनी, ठेकेदार या बिल्डर को दिया जाएगा, उसकी दर क्या होगी? क्योंकि उसी ब्याज से 2 प्रतिशत अधिक उसे मिलेगा। आम के आम और गुठली के भी दाम। 10.5 प्रतिशत ब्याज पर 2 प्रतिशत अधिक, कुल 12.5 प्रतिशत ब्याज देना होगा। जो नाबार्ड के 7.5 प्रतिशत से 5 प्रतिशत अधिक है। जहां तक पीपीपी मॉडल और बीओटी (एन्युटी) का प्रश्न है, केंद्र सरकार के कई विभाग इसे नकार चुके हैं।
पिछले 40 सालों में पूरे प्रदेश की आबादी भले ही तीन गुनी हो गई हो, लेकिन सरकार सिर्फ एक नया मेडिकल कॉलेज (बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज, सागर) ही बना सकी। पूरी योजना का सबसे कमजोर पहलू यह भी है कि जो सरकार पहले से ही चल रहे 6 शासकीय मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल टीचिंग स्टाफ की कमी पूरी नहीं कर पा रही है, वह नए मेडिकल कॉलेजों के लिए स्टाफ कहां से लाएगी। इसकी तैयारी और बजट की बात कोई नहीं करता है।
पीपीपी मॉडल से असहमत है केंद्र सरकार
नरेंद्र मोदी सरकार तो पीपीपी मॉडल से सहमत ही नहीं है। सरकार के सत्तासीन होने के कुछ माह बाद ही यह संकेत दिया गया था कि पीपीपी प्रोजेक्ट के मॉडल कंसेशन एग्रीमेंट एमसीए पर फिर से विचार किया जाएगा। दरअसल केंद्र सरकार को भी यह ज्ञात है कि ठेके देने में कॉस्ट प्लस बेसिस अपनाने से खर्च बढ़ जाता है। इसकी बजाय पहले से तय रेट सिस्टम को लागू करने का विकल्प अच्छा है ताकि उपयोगकर्ताओं को अतिरिक्त शुल्क न देना पड़े। यह बढ़ते खर्चे का मुद्दा संसद में भी उठा था, जिसके बाद तत्कालीन योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने इसमें बदलाव करने की मंशा जाहिर की थी। क्योंकि केन्द्र की ही 110 परियोजनाओं में लेटलतीफी के कारण 1.57 लाख करोड़ से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हो गई थी। इसीलिए पहले से तय रेट प्रणाली को अपनाने का सुझाव दिया गया है। इससे 25 से 30 प्रतिशत लागत घट जाएगी।
सड़क मंत्रालय ईपीसी के पक्ष में :केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय भी वर्तमान वित्त वर्ष में जो 3 हजार किलोमीटर की परियोजनाओं पर काम करेगा, उसमें निर्माण को गति देने के लिए इंजीनियरिंग प्रोक्योरमेंट एंड कंस्ट्रक्शन मॉडल के तहत काम किया जाएगा। मंत्रालय बीओटी- बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफर के मुकाबले इस मॉडल को बेहतर मानता है। 2017 तक करीब 20 हजार किलोमीटर राजमार्गों के प्रोजेक्ट अब ईपीएस मॉडल में बनेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि पीपीपी मॉडल को सड़क परिवहन मंत्रालय ने ही खारिज कर दिया है, क्योंकि यह ज्यादा खर्चीला है और इसमें समय और लागत तय सीमा को पार कर जाती है। पीपीपी मॉडल का गणित ही कुछ इस तरह का है कि प्रोजेक्ट की लागत औसतन 48 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
योजना आयोग ने भी की थी समीक्षा
जिस योजना आयोग को नीति आयोग में तब्दील कर दिया गया है, उसने भी एन्युटी मॉडल की समीक्षा की थी। योजना आयोग ने यह जानने की कोशिश की थी कि देश में इसे लेकर स्वीकार्यता क्यों घट रही है। ज्यादातर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप एप्राइजल कमिटी (पीपीपीएसी) का मानना है कि सड़क परियोजनाओं का काम इंजीनियरिंग प्रोक्योरमेंट एंड कॉन्ट्रैक्ट (ईपीसी) के तहत होना चाहिए न कि एन्युटी के तहत, क्योंकि यही समस्या की असली जड़ है। आयोग का मानना था कि जो डेवलपर सड़क का निर्माण करते हैं उनकी परियोजना समाप्त होने के बाद कोई जिम्मेदारी नहीं रह जाती है।
पीपीपी क्या है?
पीपीपी एक तरह का निजीकरण है जिसमें निजी कंपनी या कंपनियों का संघ सार्वजनिक बुनियादी ढांचा योजनाओं (अस्पताल, पुल आदि) की डिजाइन, निर्माण, संचालन और अनेक प्रकरणों में वित्त व्यवस्था को अपने हाथ में लेती है। अनेक सरकारों, जन-निजी भागीदारी एजेंसियों, शिक्षा-शास्त्रियों, नीतिगत शोध संरथाओं और अलाभकारी समूहों ने जन-निजी भागीदारी को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है जो इसके विभिन्न पहलुओं को दर्शाती हैं। भारत सरकार ने पीपीपी को इस प्रकार परिभाषित किया है-पीपीपी परियोजना का अर्थ उस परियोजना से है जिसमें एक तरफ सरकार या स्वतंत्र अस्तित्व के वैधानिक निकाय और दूसरी ओर निजी क्षेत्र की कंपनी के बीच एक अनुबंध या रियायती अनुबंध होता है जो बुनियादी ढांचागत सेवा प्रदान करने के लिए उपभोक्ता से शुल्क वसूल करेगी।ÓÓ योजना आयोग के सामाजिक क्षेत्र के लिए पीपीपी उप समूह की रिपोर्ट, पीपीपी को निम्नानुसार परिभाषित करती है- जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) दूसरी ओर एक ऐसा मॉडल है जिसमें सेवाप्रदाय का कार्य निजी क्षेत्र (अलाभकारी/लाभार्थ संगठन) द्वारा किया जाता है जबकि सेवा प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार पर होती है। इस प्रकार की व्यवस्था में सरकार या तो निजी भागीदार के साथ अनुबंध में शामिल रहती है या निजी क्षेत्र को सेवा प्रदान करने की प्रतिपूर्ति करती है। अनुबंध नई गतिविधियों को तत्परता प्रदान करता है विशेषकर, जब सेवा प्रदान करने के लिए न तो निजी क्षेत्र और न ही सार्वजनिक उपस्थित क्षेत्र होता है।

निजी क्षेत्र में आधी लागत
एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि निजी क्षेत्र में बनने वाले मेडिकल कॉलेजों की लागत बनने जा रहे सरकारी कॉलेजों की अनुमानित लागत से लगभग आधी है, वह भी तब जब निजी मेडिकल कॉलेजों की लागत में जमीन और उपकरणों का मूल्य भी शामिल है। डीवाय पाटिल ग्रुप के 1500 बेड क्षमता वाले अस्पताल और मेडिकल कॉलेज की लागत लगभग 300 करोड़ रुपए के आसपास है तो प्रदेश मेेंं ही आकार ले रहे निजी क्षेत्र के 3 मेडिकल कॉलेजों की लागत भी 160-170 करोड़ रुपए के आसपास है, वह भी जमीन और उपकरणों की कीमत मिलाकर।
बीओटी (एन्युटी) मॉडल की जरूरत क्यों?
बीओटी मॉडल खर्चीला है। 10 प्रतिशत परियोजना लागत तो बैंक गारंटी देने के बाद ठेकेदार की जेब में वैसे ही पहुंच जाती है, बाकी 40 प्रतिशत निर्माण अवधि (2 वर्ष या जो तय हो) के दौरान 5 बराबर की किश्तों में मिलती है। ठेकेदार या निजी कंपनी का काम चलता रहता है। अब जो 60 प्रतिशत वह लगाता है, उसका 3-4 गुना वसूल लेता है। उसे बैंक के ब्याज से 2 प्रतिशत अधिक ब्याज दर पर 20 किश्तों में बाकी पैसा मिलता है। इस दौरान परियोजना पूरी होने के बाद 1 से लेकर 3 वर्ष तक रख-रखाव के लिए परियोजना लागत की 1 प्रतिशत राशि मिलती है, 4 से लेकर 6 वर्ष तक 2 प्रतिशत राशि मिलती है और उसके बाद 3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से 2 किश्तों में पैसा मिलता है। यानी 10 वर्ष तक तो उसे ब्याज और मेंटेनेंस मिलाकर पूरे प्रोजेक्ट की लागत के 2 से ढाई गुना पैसा मिल ही जाता है। यह प्रावधान कुछ ऐसा है कि हर 6 माह में निजी कंपनी या ठेकेदार की जेबें गरम होती रहती हैं पेंमेंट में देरी हुई तो ब्याज सरकार ठेकेदार या निजी कंपनी के ऊपर पैनल्टी लगाई जाती है। लेकिन यह पैनल्टी बोनस में भी बदल सकती है यदि समयसीमा से पहले काम कर दिया गया हो।
कहां क्या बनेगा
भारत सरकार ने मध्यप्रदेश को छह मेडिकल कॉलेज की सौगात दी है। जिसमें से राज्य सरकार पीपीपी मॉडल के तहत एमपीआरडीसी से रतलाम और विदिशा  में 750 बेड वाले अस्पताल वहीं शहडोल में 500 बेड वाले अस्पताल सहित एक मेडिकल कॉलेज खोलने जा रही है।
आसान नहीं एमसीआई की मान्यता
कहां से लाएंगे स्टाफ : प्रदेश में अभी 6 शासकीय मेडिकल कॉलेज संचालित हो रहे हैं। आलम यह है कि एमसीआई के निरीक्षण के दौरान एक मेडिकल कॉलेज से दूसरे मेडिकल कॉलेज स्टाफ भेजकर किसी तरह की मान्यता बचाई जाती है। चाहे सागर मेडिकल कॉलेज का मामला हो या इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, रीवा और जबलपुर के मेडिकल कॉलेज हों जहां आज से 40 साल पहले कम की गई 80 सीटें बमुश्किल पिछले साल ही वापस मिल पाई हैं। प्रमुख समस्या कॉलेज के लिए आवश्यक स्टाफ की है। हालात यह हैं कि मुंह मांगा पैसा देने के बावजूद निजी मेडिकल कॉलेज एमसीआई के मापदंडों के अनुसार स्टाफ की कमी पूरी नहीं कर पाते। धीरे-धीरे शासकीय मेडिकल कॉलेजों के स्टाफ को पहले ही मध्यप्रदेश के निजी मेडिकल कॉलेजों ने मुंह मांगी कीमत देकर अपने यहां ऊंची तनख्वाह पर रख लिया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि 750 रुपए करोड़ की लागत से बनकर तैयार होने वाले मेडिकल कॉलेजों के ढांचे कहीं सिर्फ अधिकारियों और सत्ताधीशों के लिए भ्रष्टाचार का चारागाह और फिर बाद में परिंदों के पनाहगार भर बनकर न रह जाएं। फिलहाल नीति नियंताओं का सारा जोर सिर्फ और सिर्फ ढांचा तैयार करने में ही नजर आ रहा है, जबकि असली लड़ाई तो मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के मापदंडों के हिसाब से स्टाफ की भर्ती करने और मान्यता प्राप्त करने की है। जिस कीमत पर सरकार संभावित ठेकेदार पर कॉलेज का ढांचा खड़ा करने के लिए बेताबी और धन की वर्षा करने को आतुर नजर आ रही है वैसी तैयारी मेडिकल कॉलेज की मान्यता प्राप्त करने के स्तर पर कहीं नजर नहीं आती। चिकित्सा शिक्षा विभाग के जिन अधिकारियों की फौज को 80 के दशक में इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर मेडिकल कॉलेज की 150 में से 10-10 सीटें और रीवा मेडिकल कॉलेज की 100 सीटों में से कम की गई 40 सीटें हासिल करने में 40 साल लग गए हों, वो टीम 400 छात्रों की कुल क्षमता वाले 3 नए कॉलेजों की मान्यता कैसे हासिल कर पाएगी, यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है।
एक नजर स्टाफ के बजट पर: 150 सीटों की क्षमता वाले मेडिकल कॉलेज के लिए जो स्टाफ जरूरी है उसकी एक बानगी और बाजार में चल रही स्टाफ की अनुमानित तनख्वाह हम यहां पेश कर रहे हैं। यह समझना मुश्किल नहीं है कि पे-स्केल की सीमाओं में बंधी सरकार स्टाफ की नियुक्ति के लिए क्या रणनीति अपनाएगी। आज वह 4-5 सालों में बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज सागर में ही स्टाफ की पूर्ति नहीं कर पाई है। कमोवेश दूसरे मेडिकल कॉलेज भी वेंटीलेटर पर ही चल रहे हैं। आने वाले सालों में जब तेजी से बाकी बचा स्टाफ भी सेवानिवृत्ति की कगार पर पहुंच चुका होगा, तब सरकार क्या रणनीति अपनाएगी, इसका खाका दूर-दूर तक न मेडिकल कॉलेज के मोटे बजट पर लार टपका रहे एमपीआरडीसी और सत्ताधीशों के पास है और न ही चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारियों के पास।
टेबल : अत: यह साफ है कि 3 मेडिकल कॉलेजों के लिए सिर्फ स्टाफ के वेतन के रूप में ही सरकार को प्रतिमाह लगभग 80 लाख करोड़ रुपए खर्चा करना होंगे। पर यक्ष प्रश्न यह है कि सरकार जहां प्रोफेसरों को 1.10 लाख से 1.15 लाख प्रतिमाह देती है, तो निजी कॉलेज 1.75 लाख से 1.90 लाख तक। वहीं जहां निजी मेडिकल कॉलेजों के डीन 2 लाख से 2.50 लाख प्रतिमाह की मोटी सेलरी दे रहे हैं। वहीं वर्तमान सरकारी पे-स्केल इन्हें 1.3 लाख अधिकतम देने की अनुमति नहीं देती। मतलब साफ है कि अस्पताल का ढांचा खड़ा करने से कहीं ज्यादा जरूरी युद्ध स्तर पर रतलाम, शहडोल, विदिशा, खंडवा जैसे छोटे शहरों में रहने को तैयार स्टाफ की व्यवस्था करने की रणनीति को लेकर है।

Rajendra agal

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