17-Jan-2015 10:33 AM
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पूरी गीता कह पाना और समझना बड़ा कठिन है। अनंत काल तक गीता का स्वाध्याय होता रहेगा। विचारक इसमें से नए-नए मोती प्राप्त करते रहेंगे। धर्म से प्रारंभ होने के बाद गीता का जहां
पर्यवसान
होता है, वहां एक शर्त है। श्रीमद्भगवद्गीता धर्मक्षेत्र से चलते-चलते पर्यवसान तक शोक को मिटाती है। मनुष्य के जीवन में शोक प्रकट होते हैं, यदि शोक मिटा लेता है तो उसका जीवन सुखमय होता जाता है।
यदि अर्जुन को शोक न आया होता तो शायद श्रीमद्भगवद्गीता प्रकट ही नहीं होती। दरअसल श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध के समय एक चिंता जागी। सारे संसार को चिंता से मुक्त करने वाला स्वयं चिंतित हो गया। भगवान ने सोचा कि अभी यदि अर्जुन को ज्ञान न दे पाया तो मेरा अस्तित्व विवादास्पद हो जाएगा। लोग कहेंगे कि अर्जुन को ही ठीक नहीं कर पाए तो दुनिया को क्या ठीक कर पाएंगे। इसलिए अपने अस्तित्व को ठीक करने के लिए भगवान ने ज्ञान की गंगा बहाई।
गीता को शास्त्रों और पुराणों से अधिक पवित्र माना गया है
गीता का पहला अध्याय विषाद योगÓ है। मोह और अज्ञान से उत्पन्न विषाद के कारण वह कहता है कि न योत्सि (मैं नहीं लड़ूंगा)। वह तरह-तरह की दलीलें दे कर उचित ठहराता है तो भगवान उसे जिस तत्वज्ञान का उपदेश देते हैं, उसका समापन अठारहवें अध्याय में होता है। उस अन्तिम अध्याय का नाम है मोक्ष संन्यास योगÓ है। गीता के प्रभाव से विषाद में फंसा साधक मोक्ष संन्यास योग यानी मोक्ष की कामना से भी परे की स्थिति में पहुंच जाता है। गीता वह संजीवनी है, जिसका सेवन करने से साधक मोह रूपी मूर्छा से मुक्त, उल्लसित होकर इष्ट के निर्देशानुसार स्वधर्म, युगधर्म में पूरी तत्परता से प्रवृत्त हो जाता है। यह कोई चमत्कार नहीं है, साधना जगत की एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। ब्रह्मविद्या सनातन, सर्वहितकारी ज्ञान की धारा है और उपनिषद् अनुभूतिजन्य ज्ञान है। योगशास्त्र के अनुसार उसे कुशलता से साधा-अभ्यास में लाया जाता है। योग कर्म की कुशलता है। समयानुसार भगवच्चेतना ब्रह्मविद्या का युगानुरूप प्रवाह पैदा करती है, युग साधक उसे साधना कौशल द्वारा अपनाते हैं और अनुपम लाभ-श्रेय-सौभाग्य प्राप्त करते हैं।
महाभारत में कहा गया है-सर्व शास्त्रमयी गीताÓ (भीष्म 43/2); परन्तु इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान् के मध्य अत्यधिक दूरी हो गई है। लेकिन गीता तो स्वयं भगवान् के मुख-कमल से निकली है, इसलिए उसे शास्त्रों से बढ़कर माना गया है। इसकी पुष्टि के लिए स्वयं वेदव्यास का कथन द्रष्टव्य है- गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥ (महा. भीष्म 43/1) अर्थात गीता का ही भली प्रकार से श्रवण कीर्तन, पठन-पाठन मनन और धारण करना चाहिए, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमल से निकली है।ÓÓ इसके अतिरिक्त भगवान् ने गीता में मुक्तकण्ठ से यह घोषणा की है कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा, वह नि:संदेह ही मुक्त हो जाएगा। जो मनुष्य इसके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रहस्य भक्तों को धारण कराता है, उसके लिए तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझ को अत्यधिक प्रिय है। भगवान् अपने ऐसे भक्तों के अधीन बन जाते हैं।
डॉ. प्रणव पण्ड्या