19-Jan-2015 10:43 AM
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नी ति आयोग के गठन के साथ कई सवाल पैदा हो रहे हैं। इसका ढांचा वैसे ही भारी-भरकम है, जैसे कभी योजना आयोग का हुआ करता था। फर्क केवल इतना है कि राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए
गए हैं। इसमें अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं। पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगडिय़ा बनाए गए हैं। गवर्निंग काउंसिल में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के लेफ्टिनेंट गर्वनर्स (उपराज्यपाल) को शामिल किया गया है। सरकार का कहना है कि यही इसकी असली ताकत है। जो गवर्निंग काउंसिल चाहेगी, वैसा ही होगा। इसके अतिरिक्त सभी राज्यों में क्षेत्रीय परिषदें भी गठित की जाएंगी, जो राज्य से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर प्रकाश डालेंगी। जाहिर है इन क्षेत्रीय परिषदों का कार्यकाल उतना लंबा नहीं होगा। खास बात यह है कि इन क्षेत्रीय परिषदों को प्रधानमंत्री द्वारा बैठक आयोजित करने के लिए कहा जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि कहीं न कहीं नीति आयोग भी प्रधानमंत्री की मुट्ठी में तो रहेगा ही। नरेंद्र मोदी ऐेसे मुख्यमंत्री हैं जो प्रधानमंत्री भी बने। इसलिए राज्यों का दर्द समझते हैं। लेकिन आने वाले समय में कोई ऐसा लीडर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकता है जो राज्य का मुख्यमंत्री न रहा हो। ऐसे में नीति आयोग के अध्यक्ष को जो ताकत दी गई है उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। बहरहाल, नीति आयोग अस्तित्व में आ गया है। अब देखना यह है कि इसका चाल, चरित्र और चेहरा कैसे बदलता है।
इसमें जिन 4 मंत्रियों को शामिल किया गया है, उनमें राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुरेश प्रभु और राधामोहन सिंह शामिल हैं। ये चारों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। इसके अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में नितिन गडकरी, स्मृति इरानी और थावरचंद गेहलोत को शामिल किया गया है। गडकरी तो फिर भी ठीक हैं लेकिन स्मृति इरानी और गेहलोत की मौजूदगी उतनी प्रभावशाली जान नहीं पड़ती। बिबेक देबरॉय और वीके सारस्वत पूर्णकालिक सदस्य बनाए गए हैं। जबकि नीति आयोग के सीईओ सिंधूश्री खुल्लर रहेंगे। उम्मीद है कि नया आयोग नए तरीके से काम करेगा और पंचवर्षीय योजनाओं को अमली जामा पहनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। योजना आयोग का काम मधु दंडवते के कार्यकाल के बाद से ही उतना प्रभावी नहीं रहा। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो कभी खुद इसके उपाध्यक्ष हुआ करते थे, भी इसे सशक्त नहीं बना पाए।
नीति आयोग 65 साल पुराने योजना आयोग की जगह लेगा। लेकिन यह तभी कारगर होगा जब बदलाव से पहले मूल समस्याओं को पहचान लिया जाए। योजना आयोग के औचित्य पर इसलिए सवाल उठते रहे क्योंकि एक राज्य के सफल मॉडल दूसरे राज्यों में नहीं दोहराए जा सके। आम आदमी के टैक्स का पैसा बचाने के कदम नहीं उठाए गए। राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व नहीं मिला, परियोजनाओं में देरी होती रही और अफसरशाही हावी रही। नीति आयोग से इन्हीं खामियों को दूर करने की उम्मीद की जा रही है।
क्या एक राज्य के सफल मॉडल को दूसरे राज्य दोहरा पाएंगे?
गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों की कृषि दर कई वर्षों से अच्छी बनी हुई है। लेकिन योजना आयोग थिंक-टैंक की तरह काम नहीं कर पाया। इस वजह से वह राज्यों की अच्छी नीतियों और तौर-तरीकों को अमल में लाने का दूसरे राज्यों को संदेश नहीं दे पाया। नीति आयोग यह खामी दूर करेगा। एक राज्य का अच्छा मॉडल दूसरे राज्य दोहरा पाएंगे।
क्या आम आदमी के टैक्स का पैसा बचेगा?
योजना आयोग के तहत जो पंचवर्षीय योजनाएं बनती थीं, वह राज्यों के परफॉर्मेंस आउटपुट से नहीं जुड़ी होती थीं। नीति आयोग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिस तरह के कामकाज की उम्मीद है, उसके तहत राज्यों को मिलने वाले फंड्स परफॉर्मेंस आउटपुट से जुड़े रहेंगे। केंद्र राज्यों को जो मदद देगा, उसके रियल टाइम नतीजों का एनालिसिस होने से राज्यों की जवाबदेही बढ़ेगी। वे पैसे की बर्बादी को रोकने के लिए प्रेरित होंगे। टैक्स अदा करने वाले आम लोगों को इससे परोक्ष रूप से फायदा पहुंचेगा। टैक्स बचत के अलावा सबसे बड़ी चुनौती महंगाई कम करने की है। नरेंद्र मोदी सरकार महंगाई पर प्रभावी रोक नहीं लगा पाई है। सिर्फ आंकड़े दिए जा रहे हैं कि दाम कम हो गए लेकिन दाम वैसे ही हैं। खाद्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ गए हैं। दूसरी तरफ नरेगा जैसी योजनाओं का दायरा समेटने से ग्रामीण गरीबी फिर बढऩे लगी है। इसलिए नीति आयोग को कुछ फौरी नीतिगत उपाय करने पड़ेंगे।
क्या केंद्र से राज्य तक मदद का यह रिवर्स मॉडल होगा?
देश में योजनाएं केंद्र के स्तर पर बनती हैं और राज्य उन्हें अपने क्षेत्रों में लागू करते हैं। नीति आयोग रिवर्स मॉडल अपनाएगा। राज्य अपने मुताबिक कार्यक्रमों को डिजाइन कर सकेंगे। उसके लिए मिलने वाली आर्थिक मदद पर भी उनका नियंत्रण होगा। इस तरह वे क्षेत्रीय जरूरतों के मुताबिक केंद्र से मदद हासिल कर पाएंगे। नीति आयोग के तहत केंद्र के पास कुछ वित्तीय कार्यक्रमों को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में चलाने का भी विकल्प रहेगा। चीन में राष्ट्रीय स्तर पर सुधार करने से पहले पायलट प्रोजेक्ट चलाए जाते हैं।
क्या योजनाओं को मंजूरी में दूरी का मुद्दा सुलझेगा?
यूपीए सरकार ने बड़ी तादाद में इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाएं बनाई थीं। लेकिन राज्य सरकारों की मंजूरी नहीं मिलने से ये अटकी पड़ी थीं। नीति आयोग राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं को राज्यों से मंजूरी दिलाने में अहम भूमिका निभा सकता है। इससे देश में बुनियादी ढांचे के विकास को गति मिलेगी। लेकिन राज्यों के साथ कोऑपरेटिव फेडरलिज्म का कॉन्सेप्ट तभी कारगर साबित होगा जब पहले केंद्र सरकार के मंत्रालय आपसी तालमेल सुधारें। मिसाल के तौर पर एनर्जी से जुड़े मसलों पर पेट्रोलियम, कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर, कोल और माइंस जैसे मंत्रालयों के बीच समन्वय होना जरूरी है।
क्या एक्सपर्ट्स भी बनेंगे हिस्सा?
नीति आयोग के जरिए मैक्जिमम गवर्नेंस के लक्ष्य हासिल करना विशेषज्ञों के बगैर संभव नहीं है। योजना आयोग में उच्च पदों पर आईएएस या आईईएस अधिकारी होते थे। देश के बाकी मंत्रालयों की तरह यहां भी अफसर आते-जाते रहते थे। इसलिए आयोग के बाहर के विशेषज्ञों को पहचानना जरूरी है। इसके लिए विभिन्न पदों पर लेटरल एंट्री के मौके खोले जा सकते हैं। इस आयोग के उपाध्यक्ष 62 साल के पनगडिय़ा अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इंडियन इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर रहे हैं। उपाध्यक्ष बनने पर उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिलेगा। पनगडिय़ा वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी में भी बतौर अर्थशास्त्री सेवाएं दे चुके हैं।
दिल्ली से ऋतेन्द्र माथुर