19-Jan-2015 05:40 AM
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पिछले पांच साल से महापौर का पद संभाल रहीं कृष्णा गौर ने एक जीर्ण-शीर्ण विरासत आलोक शर्मा को सौंपी है जिसे जीत में परिवर्तित करना इतना आसान नहीं है। टिकट मिलते ही आलोक शर्मा के मुखमंडल से गर्वोक्ति निकली- कैलाश मिश्रा मेरे सामने कोई चुनौती नहीं है।Ó लेकिन असल चुनौती तो कैलाश मिश्रा ही हैं।
मजदूर नेता से राजनेता और राजनेता से मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे बाबूलाल गौर को भोपाल की जनता ने प्यार तो बहुत दिया और उनकी तमाम गलतियों को माफ करते हुए बार-बार रिकार्ड मतों के साथ विजयश्री दिलाई, लेकिन विदेशों की सैर करने के बाद भोपाल को पेरिस बनाने का वादा करने वाले वयोवृद्ध बाबूलाल ने भोपाल की इतनी उपेक्षा की कि यह शहर कचरे के ढेर में तब्दील हो गया। यह वही भोपाल है जिसने उनकी राजनीतिक रूप से अनुभवहीन पुत्र-वधु को महापौर जैसा महत्वपूर्ण पद सौंपा था, यह सोचते हुए कि अपने वयोवृद्ध ससुर के अनुभव को ध्यान में रखते हुए वे कम से कम भोपाल को पेरिस नहीं तो भोपाल ही बने रहने देने का प्रयास करेंगी। लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि भोपाल पेरिस तो दूर भारत के कई प्रदेशों की राजधानी के मुकाबले बहुत पीछे है। यहां तक की मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर ने भी इतनी प्रगति कर ली है कि वहां आईपीएल के मैच आयोजित हो जाते हैं। लेकिन भोपाल की वही कहानी है- जर्जर सड़कें, खुदी हुई गंदी गलियां, बजबजाते नाले और नालियां, बेतरतीब कॉलोनियां, प्रदूषित झीलें और सिमटता बड़ा तालाब। भोपाल कभी साफ-सुथरा हुआ करता था, यहां के तालाबों के पानी से लोगों के घरों में खाना बनता था। लेकिन अब 800 मीट्रिक टन कचरा इस 412 वर्ग किलोमीटर के शहर में निकलता है, जिसमें से 500 मीट्रिक टन ही फिंकाता है, 300 मीट्रिक टन सड़ता रहता है। होशंगाबाद रोड से शहर में घुसिए तो बदबू आपका स्वागत करेगी, सांची प्लांट की बदबू और उसके आगे नाले की सड़ांध सर दुखा देती है। बमुश्किल 3 किलोमीटर चलने के बाद जिंसी चौराहे के पास फिर वही बदबू और गंदगी के अंबार। थोड़ा आगे चलने पर पातरा पुल के पास फिर अत्यंत गंदी बदबू और सड़ांध वहां से आगे हमीदिया तक हर कदम पर यही आलम। स्टेट बैंक चौराहे से 4-5 फर्लांग आगे थोड़ी राहत मिलेगी। यह तो शहर से गुजरने वालों का कष्ट है, शहर के भीतरी इलाकों में ज्यादातर जनसंख्या टूटी हुई सड़कों, खुले सीवरों, कचरे के ढेरों, कचरा डब्बों और निचले इलाकों में भरे पानी से जनित बीमारियों से दो-चार होती रहती है। दिन-रात यही आलम है। भोपाल की जनसंख्या बढ़ रही है। शहर भी अब 600 वर्ग किलोमीटर की परिधि में पहुंचने वाला है। नए मास्टर प्लान के मुताबिक भोपाल का आकार बहुत बढ़ जाएगा, लेकिन पुराने शहर और उपनगरीय इलाकोंं में सड़क, पानी, स्वच्छता तथा जन सुविधाओं की कमी के चलते भोपाल अब एक समस्या प्रधान शहर बन गया है, जिसमें नगरीय निकाय के चुनाव होने वाले हैं। राजनीतिक दलों का प्रदर्शन जनता की नजरों में अब ज्यादा मायने रखता है। परिणाम चाहे जो हो लेकिन भोपाल का भाग्य कब बदलेगा, कहा नहीं जा सकता। न तो बाबूलाल गौर और न ही कृष्णा गौर कुछ खास कर पाई हैं। बाबूलाल गौर के विधानसभा क्षेत्र के हालात सबसे दयनीय हैं।
अपनों से ही लड़ेंगे मिश्रा-शर्मा
भोपाल नगर निगम चुनाव का प्रत्याशित परिणाम क्या है? तो जवाब मिलता है कि जिसकी सरकार है वही जीतेगा। लेकिन जनता में असंतोष है। सड़कें खुदी हुई हैं, नर्मदा जल घरों में तो नहीं लेकिन गलियों और चौराहों पर बह रहा है। पाइपलाइन इतनी घटिया डाली गई है कि डलने के कुछ माह बाद ही उसने दम तोड़ दिया है। सड़कें बनाकर नगर निगम के कथित ठेकेदार मुंह भी नहीं फेरते हैं कि बारिश के पानी से सड़कें बह जाती हैं। सफाई की स्थिति तो दयनीय है ही। शहर को देखकर लगता है कि चार इमली और उसके आस-पास लिंक रोड इत्यादि कुछ इलाके को ही भोपाल नगर निगम शहर मान बैठा है। बाकी दूरदराज मेंं क्या चल रहा है इसकी निगम प्रशासकों को कोई फिक्र नहीं है। परिसीमन के कारण न तो पार्षदों ने अपने क्षेत्र पर ध्यान दिया और न ही महापौर ने कोई नजरे इनायत की। वे तो अपने ससुर साहब का विधानसभा क्षेत्र संभालने में जुटी रहीं लेकिन वह भी जन सुविधाओं की दृष्टि से शून्य ही रहा है।
इस तूफान में जब चारों तरफ असंतोष और नाराजगी की आंधी चल रही है आलोक शर्मा और कैलाश मिश्रा को भाजपा तथा कांग्रेस ने भोपाल नगर निगम के महापौर पद के प्रत्याशियों के रूप में प्रस्तुत किया है। भाजपा में आलोक शर्मा को लेकर कोई विशेष विरोध नहीं था। आलोक शर्मा लंबे समय से मेहनत तो कर रहे थे लेकिन संगठन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका उन्हें प्रदान नहीं की गई। उन्हें आरिफ अकील से हारने के लिए तैनात किया जाता रहा। अब जाकर मेहनत का फल मिला है तो चुनौती बड़ी कठिन है। पिछले पांच साल से महापौर का पद संभाल रहीं कृष्णा गौर ने एक जीर्ण-शीर्ण विरासत आलोक शर्मा को सौंपी है जिसे जीत में परिवर्तित करना इतना आसान नहीं है। टिकट मिलते ही आलोक शर्मा के मुखमंडल से गर्वोक्ति निकली- कैलाश मिश्रा मेरे सामने कोई चुनौती नहीं है।Ó लेकिन असल चुनौती तो कैलाश मिश्रा ही हैं। सुरेश पचौरी को परमात्मा ने सद्बुद्धि प्रदान की जो उन्होंने कैलाश मिश्रा को टिकट दिलाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, बल्कि आरिफ मसूद जैसे भीतरघातियों को भी सक्रिय कर दिया जो श्रीवास्तव की राह का रोड़ा बन गए। अब कम से कम भोपाल में कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा। यदि श्रीवास्तव खड़े होते तो यह एक तरह से भाजपा को वाकओवर ही कहलाता। किंतु मौके की नजाकत को कांग्रेस के आलाकमान ने भांप लिया और सिंधिया की राय को दरकिनार कर एक सही व्यक्ति को महापौर पद के लिए प्रस्तुत किया। कांग्रेस की पिछले एक दशक में यही खराबी रही है कि वह जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हुए सोर्स वालों को टिकट देती रही। इसी कारण चुनाव दर चुनाव पराजय ही हाथ लगी। लेकिन भोपाल में कम से कम महापौर के रूप में एक दमदार प्रत्याशी लाकर कांगे्रस ने समझदारी का काम किया है। लेकिन यह समझदारी तब और ज्यादा प्रासंगिक हो सकेगी जब कांग्रेस एकजुट होकर चुनाव लड़े। अभी तो भीतर के हालात कुछ बेहतर नहीं हैं। टिकट से वंचित रह गए श्रीवास्तव के अतिरिक्त बाकी गुटों के कुछ महारथी भी सेबोटाज कर सकते हैं। लेकिन इन चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ा फायदा एंटी इनकमबेन्सी के रूप में मिलेगा। भोपाल में कांग्रेस भाजपा दोनों के पार्षदों ने निहायत घटिया और लापरवाह प्रदर्शन किया है। दोनों दलों से अपेक्षा थी कि वे चुनाव के समय कुछ योग्य प्रत्याशियों को सामने लाएंगे। भाजपा और कांग्रेस की सूची देखने पर ढाक के वही तीन पात वाली स्थिति नजर आती है। कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किया गया इसीलिए चुनाव भी उन्हीं प्रत्याशियों के इर्द-गिर्द घूमेगा। बहरहाल आलोक शर्मा के पास जहां सत्ता और संगठन की ताकत है वहीं कैलाश मिश्रा की ताकत उनका जनता से जुड़ाव और जनता का असंतोष है। भाजपा की महापौर को लेकर संगठन में भी पिछले एक वर्ष से नराजगी चल रही थी, जिसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा। नगर निगम जैसी लोकल बॉडीज में कर्मचारियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहती है। जिस तरह से पिछले 6 माह में नगर निगम कर्मचारियों ने लापरवाही बरतते हुए जनता को नाखुश कर दिया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नगर निगम के कर्मचारी भी बदलाव के लिए काम कर रहे हैं।
पुराने भोपाल में कांग्रेस परंपरागत रूप से मजबूृत है। आलोक शर्मा का दुख यह है कि वह भी पुराने भोपाल से ही ताल्लुक रखते हैं नए भोपाल में उनकी स्वीकार्यता बिल्कुल भी नहीं है। हाल ही में जब कई जगह सदस्यता अभियान चलाया गया तो आलोक शर्मा को न्यौता ही नहीं भेजा गया। इसका कारण भाजपा की भीतरी राजनीति को बताया जा रहा है। संगठन के ही कुछ लोग भीतरघात कर सकते हैं। हालांकि शर्मा का नाम सर्वानुमति से तय हुआ है लेकिन अंदरूनी राजनीति का असर उनकी चुनावी संभावनाओं पर पड़ सकता है। वहीं कैलाश मिश्रा के लिए कदम-कदम पर मुश्किलें हैं। कांग्रेस के कई गुट होना सबसे बड़ी मुश्किल है। कैलाश मिश्रा को टिकट मिलने के बाद संगठन के ही कुछ लोग खुलकर विरोध में सामने आ गए थे। इस असंतोष को दबाना सबसे बड़ी चुनौती है। सिंधिया गुट चुनाव में उठापटक कर सकता है। कांग्रेस के बड़े नेता निकाय चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं। भोपाल नगर निगम को लेकर भी दिग्गज नेताओं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई। सुरेश पचौरी जरूर सक्रिय हुए हैं लेकिन लाभ तभी मिलेगा जब आरिफ अकील पूरी ताकत के साथ इस चुनाव में कैलाश मिश्रा का साथ दें।
कलह से परेशान कांग्रेस
भोपाल ही नहीं जबलपुर सहित चारों नगर निगमों के चुनाव में कांग्रेस भीतरी कलह से परेशान है। सभी जगह गुट और गुटों के सरताज एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए हैं। वार्ड की संख्या सीमित है लेकिन दावेदार ज्यादा हैं। भोपाल में ही 85 सीटों के लिए 600 दावेदार थे। इसलिए जिन्हें टिकट नहीं मिला उन्होंने नारेबाजी की, अरुण यादव का विरोध किया गया, हाथापाई की नौबत आई, पुतले जलाए गए, पोस्टर फाड़े गए। भाजपा में भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी, लेकिन वह ज्यादा संगठित दिखाई दी। कांग्रेस तो अलग-अलग भाग रही थी। सुरेश पचौरी, दिग्विजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया सबके अलग-अलग पसंद के लोग थे। अभी भी यह समर्थक एक-दूसरे से भिड़ रहे हैं और इस फूट का फायदा भाजपा को मिलना तय है। भाजपा की एक खासियत यह भी है कि उसने टिकट वितरण में विधायकों की बात को पर्याप्त महत्व दिया, लेकिन कांग्रेस में तो दिग्गजों को ही महत्व दिया गया। शायद इसीलिए आरिफ अकील जैसे नेता खफा हो गए और अपने क्षेत्र तक ही सीमित रहे। इंदौर में भी यही हाल है। जबलपुर में कांग्रेस थोड़ी संगठित है लेकिन भोपाल, इंदौर, जबलपुर और छिंदवाड़ा में कांग्रेस की अंदरूनी कलह भाजपा को क्लीन स्वीप का अवसर दे सकती है। भोपाल में एनएसयूआई का विरोध खुलकर सामने आ गया। युवा कांग्रेस ने भी विरोध जताया। ये दोनों दिग्विजय सिंह के करीब हैं। उधर सुरेश पचौरी तथा आरिफ अकील के बीच खींचतान चल ही रही है। पीसी शर्मा भी टिकट वितरण से नाखुश हैं। सिंधिया गुट की पराजय का असर भी चुनाव पर पड़ सकता है। कमलनाथ इन चुनावों में इतने सक्रिय नहीं हैं। बगावत और इस्तीफे भी साथ-साथ चल रहे हैं। सबनानी जैसे नेताओं की नाखुशी आलोक शर्मा को परेशान कर सकती है। लेकिन भोपाल में फिलहाल भाजपा को कोई विशेष खतरा नजर नहीं आ रहा।