भूमि अधिग्रहण कानून किसके हित में
17-Jan-2015 11:33 AM 1234768

नए कानून का विरोध करने वालों का कहना है कि सरकार विस्थापितों के लिए चल रहे आंदोलनों को दबाने के लिए ये कानून लेकर आई है। इससे पहले जो प्रावधान था उसमें भूमि अधिग्रहण से पूर्व

किसानों पर ही नहीं बल्कि पूरे समाज पर उसके असर का आंकलन करने की बात कही गई थी। प्रावधान यह भी था कि जहां पर खाद्य सुरक्षा को खतरा हो वहां भूमि अधिग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन केंद्र में सत्तासीन वर्तमान सरकार के नीतिकार मानते हैं कि भारत के विकास की राह में इस तरह के कुछ कानून रोड़ा बने हुए थे जिन्हेंं खत्म किया जाना आवश्यक है। समस्या यह है कि भारत में आज तक जितना भी अधिग्रहण हुआ और उसके फलस्वरूप जितना भी विस्थापन हुआ उनमें से ज्यादातर लोग भटक रहे हैं। क्योंकि अधिग्रहण और विस्थापन समाज के ताने-बाने को भी ध्वस्त कर डालते हैं। देश के लाखों बांध विस्थापित आज शहरों में स्लम्स में रहते हुए अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में सरकार द्वारा अध्यादेश लाकर जो कानून पारित किया गया है, वह थोड़ा जल्दबाजी में उठाया गया कदम प्रतीत होता है। सरकार को इस पर बहस अवश्य करनी चाहिए थी। जो लोग इस कानून की आलोचना कर रहे हैं उनका कहना है कि नए संशोधन के चलते 70 प्रतिशत मामलों में भू मालिकों की अनुमति लेना आवश्यक ही नहीं होगा। व्यवहारिक तौर पर यह ब्रिटिश दौर के कानून की तरह ही हो जाएगा। दरअसल सरकार ने रक्षा, औद्योगिक कॉरिडोर, ग्रामीण क्षेत्रों में ढांचागत निर्माण, सस्ते मकान, निम्र गरीब वर्ग के लिए आवास योजना, पीपीपी मॉडल के तहत विकसित सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं आदि पांच श्रेणियों के लिए जो छूट देने का प्रस्ताव किया है, उससे इस अधिग्रहण का लाभ भू मालिकों से ज्यादा ठेकेदारों या निजी कंपनियों तक पहुंचने की आशंका है। जाहिर है यह लोग लाभ कमाएंगे तो अफसरों और नेताओं की जेब भी गरम करेंगे। इस तरह से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। दूसरा यह कानून हर तरह के भूमि अधिग्रहण को जायज कर देगा। ज्ञात रहे कि वर्ष 2013 में जब यूपीए सरकार ने कानून प्रस्तुत किया था तो भाजपा ने उसका समर्थन किया था, लेकिन सत्तासीन होते ही भाजपा ने इस कानून को ही बदल डाला।
बहरहाल अध्यादेश द्वारा पारित इस कानून का विरोध भी शुरू हो गया है। विपक्षी दलों खासकर आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि यह कानून किसान विरोधी है और ब्रिटिश कानून के जैसा ही है। ब्रिटेन ने जो कानून बनाया था वह बुनियादी रूप से 1770 में उस वक्त लाया गया जब वहां औद्योगिकीकरण में तेजी आई। वहां की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा खेती और पशुपालन पर निर्भर था लेकिन 1870 आते-आते आधे लोग ही कृषि-पशुपालन पर निर्भर रहे और अब तो बमुश्किल 10 प्रतिशत जनसंख्या का पेशा कृषि है। चीन ने भी भूमि अधिग्रहण के लिए सख्त कानून बना दिए हैं और अब भारत भी उसी नक्शेकदम पर है। आशंका यह है कि इस कानून के बाद किसानों का विरोध और जन असंतोष बढ़ न जाए। माओवादी हिंसा बढऩे का कारण भी जबरन भूमि अधिग्रहण को बताया जाता है। लेकिन सरकार सहमत नहीं है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक लेख लिखा है जिसमें बताया गया है कि 2013 में बने इस कानून को आखिर संशोधित करने की जरूरत क्यों पड़ी और इन संशोधनों का क्या प्रभाव पड़ेगा?
अरुण जेटली ने लिखा है...
यह बार-बार उल्लेख किया गया है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 अपनी प्रासंगिकता खो चुका है और इसमें संशोधन की जरूरत है। सचमुच ही इसमें संशोधन चाहिए था। इस कानून के मुआवजे के प्रावधान बिल्कुल ही अपर्याप्त हैं और इसलिए इस बात की जबरदस्त जरूरत थी कि उच्च मुआवजे के साथ-साथ पुनर्वास और निपटान पैकेज भी उपलब्ध करवाया जाए। 2013 के कानून में यह सब किया गया था और इसी आधार पर मैं इस कानून का समर्थन करता हूँ। फिर भी भूमि अधिग्रहण का प्रावधान करने वाले संसद के 13 कानूनों को इस अधिनियम के चौथे शैड्यूल में डाल दिया गया। 2013 के कानून की धारा 105 ने इन 13 कानूनों को इसके खुद के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त करार दे दिया। इस धारा में यह प्रावधान था कि सरकार अधिसूचना जारी कर सकती है और मुआवजा या पुनर्वास एवं पुनव्र्यवस्थापन से संबंधित कानून के किसी भी प्रावधान को इन मुक्त करार दिए कानूनों पर लागू कर सकती है। लेकिन इस प्रस्तावित अधिसूचना को 30 दिन की अवधि के लिए संसद के सुपुर्द करना होता था और संसद से उम्मीद थी कि वह इसको स्वीकार, अस्वीकार या संशोधित कर सकती है। अध्यादेश जारी करने की जरूरत इसलिए पड़ी कि इस प्रकार की अधिसूचना संसद के जुलाई-अगस्त 2014 बजट सत्र से पहले दायर की जानी थी और इसके अनुरूप इसकी मंजूरी या नामंजूरी प्राप्त होनी थी। चूंकि 31 दिसम्बर 2014 इस प्रकार की अधिसूचना जारी करने के लिए अंतिम दिन था। इसलिए सरकार ने धारा 105 को संशोधित करने और 2013 के अधिनियम के प्रावधान मुआवजा तथा पुनर्वास एवं पुनव्र्यवस्थापन से संबंधित 13 उन्मुक्त कानूनों पर लागू करने का फैसला किया।
इस प्रावधान के माध्यम से वर्तमान अध्यादेश में यह व्यवस्था की गई है कि यदि इन उक्त 13 उन्मुक्त कानूनों में से किसी के भी अंतर्गत भूमि अधिग्रहण किया गया है तो किसानों को मुआवजे की बढ़ी हुई राशि का भुगतान किया जाएगा। 2013 के कानून की तुलना में भी यह अध्यादेश एक कदम आगे है। इसी कारण सरकार को वर्ष के आखिरी दिन अध्यादेश जारी करने की जल्दी थी क्योंकि ऐसा न करने की स्थिति में 2013 के कानून के अंतर्गत अनुमोदन की जटिल प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अपने कर्तव्यों का वहन ही नहीं कर सकती। 2013 के कानून में अनेक मामलों में अलग-अलग सीमा तक भू-स्वामी की रजामंदी हासिल करने का प्रावधान है। भू-स्वामी द्वारा रजामंदी व्यक्त करने के बाद ही सरकार भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू कर सकती है। इसके बाद कानून में प्रावधान है कि इस भूमि ग्रहण के सामाजिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन करवाया जाए। इससे भी आगे जाते हुए इसमें खाद्य सुरक्षा के संबंध में विशेष प्रावधान है। ऐतिहासिक रूप में कोई भी भूमि अधिग्रहण स्वायत्त सत्ता की अपनी मर्जी पर निर्भर करता है। सत्ता तंत्र को किसी भी प्रकार के विकास के लिए भूमि की जरूरत होती है। आवास, टाऊनशिप, शहरीकरण, उपनगरीयनकरण, औद्योगीकरण, ग्रामीण व देहाती आधारभूत ढांचा, सिंचाई और भारत की रक्षा के लिए भूमि की जरूरत पड़ती है। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है। निजी हितों पर व्यापक सार्वजनिक हितों को सदा ही प्राथमिकता देनी होती है। फिर भी जिस भू-स्वामी को सदा के लिए भूमि से वंचित होना पड़ता है उसे सामान्य से कुछ अधिक मुआवजा देना होता है। अधिग्रहण की अत्यंत जटिल प्रक्रिया के कारण भूमि अधिग्रहण केवल मुश्किल ही नहीं बल्कि लगभग असंभव हो गया है जिससे भारत का विकास आहत हो रहा है। जब 21वीं शताब्दी में 1894 में बने कानून का संशोधन किया जाता है तो इसमें 21वीं शताब्दी के अनुरूप ही मुआवजे का प्रावधान चाहिए और साथ ही 21वीं शताब्दी की विकास जरूरतों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा संशोधन समाज की विकास जरूरतों की पूरी तरह अनदेखी नहीं कर सकता। लगभग इन सभी अपवादित उद्देश्यों से ग्रामीण भारत लाभान्वित होगा। इनसे भूमि का मूल्यवर्धन होगा, रोजगार के मौके पैदा होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर आधारभूत ढांचा तथा सामाजिक अधो-संरचना उपलब्ध होगी। यह लाभ उक्त 13 अपवादित कानूनों को भी अध्यादेश की परिधि में लाने के फलस्वरूप मिलने वाले बढ़े हुए मुआवजे और पुनर्वास एवं निपटान प्रावधानों के अतिरिक्त होंगे। इसलिए यह संशोधन भारत की, खासतौर पर ग्रामीण भारत विकास जरूरतों को संतुलित करते हुए भू स्वामियों को अधिक मुआवजे का प्रावधान करता है। जो पाॢटयां इस अध्यादेश का विरोध करती हैं क्या उनके द्वारा शासित राज्यों की सरकारें सार्वजनिक रूप में ऐसी घोषणा करेंगी कि वे समाज की, खासतौर पर इसके गरीब और कमजोर वर्गों की, विकास जरूरतों को संतुलित करने के साथ-साथ देश की रक्षा जरूरतों का संज्ञान लेते हुए अधिक मुआवजा उपलब्ध करवाने वाले इस कानून का उपयोग नहीं करेंगी? 2013 के अधिनियम की इबारत में ही 50 से अधिक गलतियां थीं। इन गलतियों को ठीक करने के लिए अलग से प्रावधान किया गया। कुछेक को तो अध्यादेश के माध्यम से सुधारा जा रहा है। पूर्ववर्ती प्रावधान निश्चय ही नुक्सदार था जिसमें यह दर्ज था कि अनोपयुक्त भूमि अधिग्रहण के 5 वर्ष के बाद भू-स्वामियों को वापस करनी होगी। रक्षा, उद्योग, विज्ञान, सिंचाई, राजमार्ग इत्यादि से संबंधित परियोजनाएं और औद्योगिक कॉरीडोर, स्मार्ट सिटी, डाऊनशिप, व्यावसायिक इत्यादि अनेक वर्षों में  पूरे होते हैं। 5 वर्ष में तो इनको खड़े भी नहीं किया जा सकता। यदि पूर्व प्रावधान को निष्प्रभावी नहीं किया जाता तो अनेक परियोजनाएं नुक्सदार कानून के कारण ही अधर में लटकी रह जातीं।  2013 के कानून में तो बहुत जोर- शोर से यह प्रावधान किया गया था कि अधिगृहीत भूमि का किसी निजी  शैक्षणिक संस्थान या अस्पताल के लिए उपयोग नहीं हो सकेगा। तो क्या नए स्मार्ट सिटी अस्पतालों व स्कूलों के बिना ही अस्तिव में आएंगे?
अब अध्यादेश में प्रावधान किया गया है कि अधिगृहीत भूमि पर अस्पताल व शिक्षण संस्थान भी बन सकेंगे। आधुनिक राष्ट्रीय रूप में विकसित हो रहे भारत को संतुलित पहुंच की जरूरत है। भू-स्वामी के साथ भी न्याय होना चाहिए और इसके समानांतर ही विकास जरूरतों का भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। दोनों में से कोई बात भी एक-दूसरे कीमत पर नहीं हो सकती। संशोधित अध्यादेश व्यापक परामर्श पर अधारित है और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकारों ने इसके किए गए बदलावों को समर्थन दिया है।

 

मौजूदा संशोधन में 5 ऐसे अपवादों  के लिए भी गुंजाइश रखी है जिन पर अधिग्रहण की जटिल प्रक्रिया लागू नहीं होगी।
- भारत की रक्षा व सुरक्षा को अपवादित उद्देश्य करार दिया गया है। 2013 के कानून में इस प्रावधान की पूरी तरह अनदेखी की गई थी।
- विद्युतीकरण सहित देहाती आधारभूत ढांचा भी अपवादित उद्देश्यों में शामिल होगा। सड़कों, राजमार्गों, फ्लाईओवर, विद्युतीकरण और सिंचाई  से किसानों की जमीन का मूल्य बढ़ेगा। यह अपवाद पूरी तरह ग्रामीण भारत के हित में है।
- गरीब लोगों के लिए घर और सस्ते आवास भी अपवादित उद्देश्य है। देहाती क्षेत्रों से शहरों की ओर आबादी का बहाव और उपनगरीय क्षेत्रों में रोजगार के मौके एक वास्तविकता हैं। इस अपवाद से उन लोगों को लाभ होगा जो ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन करते हैं।
-औद्योगिक कॉरीडोर जो विभिन्न राजमार्गों के साथ-साथ दूर तक एक संकरी पट्टी के रूप में फैले हुए हैं संबंधित देहाती क्षेत्रों के समग्र विकास को बढ़ावा देते हैं। दिल्ली, मुम्बई औद्योगिक कॉरीडोर को उन हजारों गांवों के लिए लाभदायक होगा जो राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों ओर बसे हुए हैं। ग्रामीण लोगों के लिए इससे भला बेहतर मौका क्या हो सकता है कि उनके अपने ही खेतों के करीब औद्योगिक कॉरीडोर स्थित हो। इससे जहां उनकी भूमि का मूल्य बढ़ेगा वहीं रोजगार के मौके भी पैदा होंगे।
-आधारभूत ढांचा और सामाजिक अधोसंरचना परियोजनाएं (इनमें वह पी.पी.पी. परियोजनाएं भी शामिल हैं जिनमें भू-स्वामित्व विभिन्न सरकारों के पास रहता है)। इससे पूरे देश को और खास तौर पर उन ग्रामीण क्षेत्रों को लाभ होगा जहां न तो कोई आधारभूत विकास ढांचा है और न ही पर्याप्त सामाजिक अधो-संरचना।

  • आर के बिन्नानी
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