02-Jan-2015 06:00 AM
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कैग की रिपोर्ट में खुलासा
मध्यप्रदेश में रोड डेवलपमेंट कार्पोरेशन और सरकार की मेहरबानी से ठेकेदारों तथा निजी कंपनियों की चांदी है। पीपीपी मॉडल की धज्जियां उड़ाते हुए बोनस के नाम पर निजी कंपनियां और ठेकेदार सरकार के खजाने पर भरपूर डाका डाल रहे हैं, वहीं जनता की जेब काटने के लिए मनमाना टोल भी वसूलते हैं। जो सड़कें व्यावसायिक रूप से लाभदायक नहीं हैं उन्हें डबल लेन बना दिया जाता है और जो सड़केें ज्यादा दबाव वाली हैं उनके निर्माण में देरी करने के बावजूद निजी कंपनियां और ठेकेदार जुर्माना देने में भी पर्याप्त देरी करते हैं, जिससे राजस्व की हानि हो रही है। केवल यही नहीं है इन ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने के लिए अधिकारियों का एक तंत्र भी सक्रिय है, जो विशेषज्ञों और सलाहकर्ताओंं की सलाह को अनदेखा करते हुए सीधे-सीधे सड़क निर्माण की समय सीमा लंबी तय कर रहे हैं तथा बोनस के नाम पर निजी कंपनी और ठेकेदारों की जेबें भरते हैं। यह सच है कि मध्यप्रदेश में सड़कों का जाल तेजी से फैला है, लेकिन यह भी सच है कि इसी तेजी से ठेकेदारों का आर्थिक स्तर और अधिकारियों की हरियाली में इजाफा हुआ है। सरकार भले ही सड़क निर्माण पर अपनी पीठ थपथपाती रहे लेकिन कैग ने अपनी रिपोर्ट में वर्ष 2014 की रिपोर्ट में पेज नं.-78 से लेकर पेज नं.-92 तक इसी पीपीपी मॉडल की पोल खोलते हुए कई अनियमितताओं का पर्दाफाश किया है। और राज्य सरकार द्वारा अपने बचाव में दिए गए सभी तर्कों को कैग ने नकार दिया।
मध्यप्रदेश सड़क विकास निगम लिमिटेड की लेटलतीफी के चलते 5 सड़क परियोजनाओं में 67 से लेकर 564 दिनों की देरी हुई और सरकार को 30 करोड़ से अधिक की राजस्व हानि हुई। यह खुलासा कैग की रिपोर्ट में किया गया है। दरअसल मध्यप्रदेश सड़क विकास निगम लिमिटेड ने वर्ष 2009 से 2013 के दौरान 16 परियोजनाओं पर काम किया था, जिनमें सार्वजनिक निजी साझेदारी मॉडल (पीपीपी मॉडल) के तहत राजमार्ग बनाने, चलाने और हस्तांतरित करने का प्रावधान था। 16 में से 11 परियोजनाएं तो समय पर पूरी हो गईं क्योंकि वे इतनी बड़ी भी नहीं थीं और उनके लिए सरकार से पैसा निकलवाने में भी तकलीफ नहीं हुई, लेकिन इनमें से 5 परियोजनाओं में ही इतना विलंब और अनियमितताएं हो गईं कि सरकार के खजाने पर अतिरिक्त भार पड़ गया। यह भार निजी ठेकेदारों को मिले बोनस ने और बढ़ा दिया।
इनमें भी बीना-खुरवई-सिरोंज परियोजना राजमार्ग हेतु सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी का चुनाव पीपीपी के सिद्धांत के विपरीत किया गया। ऐसा लगता है कि इन सारे प्रोजेक्ट में निजी साझेदार (ठेकेदार) को लाभ पहुंचाने के लिए जानबूझकर घालमेल किया गया। जैसे पर्यावरण को होने वाली क्षति के एवज में जो शमन किया जाता है, उसकी लागत निजी कंपनी द्वारा 25 प्रतिशत बढ़ा दी गई और इसे निर्माण लागत के रूप में वसूला गया, जिसके चलते 62.71 लाख रुपए वीजीएफ के रूप में अधिक दिए गए। इसी तरह जिन मार्गों को डबल लेन न बनाकर सिंगल लेन ही विकसित करना था, उनमें से कुछ को बिना आवश्यकता के डबल लेन किया गया। खासकर खिमलासा-मलथॉन खंड को डबल लेन से जोड़ा गया, जबकि इस क्षेत्र में ट्रैफिक का इतना दबाव नहीं है। सिंगल लेन से काम चल सकता था, लेकिन डबल लेन करने के कारण निजी कंपनी को 14.37 करोड़ रुपए अकारण ही देने पड़े। यह भुगतान भी वीजीएफ के रूप में किया गया। दरअसल पीपीपी मॉडल में टोल के संग्रहण एवं रखने का अधिकार निश्चित समय अवधि के लिए निजी क्षेत्र के साझेदार (ठेकेदार) या कंपनी को दिया जाता है, जो कि निवेश करती है और निश्चित अवधि के लिए सुविधा का संचालन भी करती है। बाद में इसका स्वामित्व वापस सार्वजनिक क्षेत्र को सौंप दिया जाता है। इस मॉडल में वीजीएफ की राशि भी निजी कंपनी को मिलती है, लेकिन निजी कंपनी द्वारा प्रीमियम का भुगतान किया जाता है। इस प्रकार केवल प्रीमियम पर सरकार की दावेदारी बनती है।
लेकिन उक्त 16 परियोजनाओं में से 3 परियोजना राजमार्गों को विकसित करने के लिए कंपनी द्वारा नया मॉडल बीओटी (टोल प्लस एन्युटी- टोल प्लस एन्युटी में प्रतिवर्ष दी जाने वाली राशि के अतिरिक्त निजी कंपनी या साझेदार को टोल रियायत अवधि के दौरान भी टोल समाहित करने की अनुमति होती है। ) तैयार किया गया था। लेकिन परामर्शदाता की सिफारिश के अनुसार यह काम तय अवधि में नहीं हो सका, इस कारण निजी कंपनी ने लागत बढ़ा दी और 16.82 करोड़ रुपए अधिक वसूल लिए। इतना ही नहीं कंपनी ने टोल निर्धारण की कोई मानक प्रक्रिया या कार्यविधि भी तैयार नहीं की थी, जिसके कारण कंपनी की जेब में 37.43 लाख रुपए अतिरिक्त पहुंच गए। जबकि इसके विपरीत इंदौर-उज्जैन परियोजना राजमार्ग में निजी कंपनी ने 30 सितंबर 2013 तक 7.69 करोड़ रुपए की राशि प्रीमियम के रूप में जमा ही नहीं की थी। यानी एक तरफ सरकार से पैसा लिया जाता रहा लेकिन जब सरकार को देने की बारी आई, तो कंपनी पलट गई।
देखा जाए तो सड़क निर्माण में हुई देरी का कारण लालफीताशाही भी है। रियायत समझौते के अनुसार निजी क्षेत्र की कंपनी को 2 वर्षों के अंदर परियोजना राजमार्गों को पूर्ण कर लेना था, लेकिन 11 परियोजना पूर्ण होने के बाद 5 परियोजना धन के अभाव में लटक गईं। इसके अलावा साइट हस्तांतरण से लेकर राइट ऑफ वेÓ की समस्या तो थी ही लेकिन अनियमितताएं और भी हुईं। पर्यावरण को हुई हानि की पूर्ति पेड़-पौधों के रोपण एवं शोर-धूल प्रदूषण में कमी करते हुए की जाती है। इसमें जो पैसा खर्च होता है, उसे किसी अन्य मद पर खर्च नहीं किया जा सकता। लेकिन 4 परियोजनाएं ऐसी थीं जहां इस राशि को निर्माण लागत में जोड़ा गया, जबकि दूसरी परियोजनाओं में कंपनी ने ऐसा नहीं किया।इसका अर्थ यह हुआ कि निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए आउट ऑफ द वे काम किया गया। सरकार का कहना है कि पर्यावरण शमन के एवज में खर्च की जाने वाली राशि को सिविल लागत का एक घटक माना जाता है, क्योंकि इस पर व्यय परियोजना राजमार्ग के निर्माण की अवधि के दौरान ही किए जाते हैं। किंतु कैग इससे सहमत नहीं है। कैग का कहना है कि पर्यावरणीय शमन की लागत को निर्माण लागत में जोडऩे पर निजी कंपनी जिसे तकनीकी भाषा में कन्शेसनायर कहा जाता है, का ही फायदा होगा।
यह फायदा कुछ अन्य तरीके से भी मिला है जैसे बीना-खिमलासा-मलथॉन में 37.63 किलोमीटर लंबा राजमार्ग यातायात के दबाव के अनुरूप नहीं बनाया गया। यहां सिंगल लेन से काम चल सकता था, लेकिन डबल लेन बना दिया गया। सरकार का कहना है कि इस परियोजना के विकास से झांसी और भोपाल के बीच 26 किलोमीटर की दूरी कम हो जाएगी। लेकिन कैग इस दलील से सहमत नहीं है। कैग का आंकलन है कि यदि यातायात में वृद्धि की संभावना थी तो इसी अनुपात में निजी कंपनी को मिलने वाली टोल राशि भी अधिक संग्रहित होती, लिहाजा 14.37 करोड़ का अतिरिक्त बोझ खजाने पर नहीं पड़ता। इसके अलावा भी कई अनियमितताएं हुईं। राजमार्ग निर्माण में देरी यदि निजी कंपनी-ठेकेदार (कन्शेसनायर) द्वारा होती है, तो अनुबंध के अनुसार उसे क्षतिपूर्ती सरकार को करनी चाहिए। बीना-खुरवई-सिरोंज परियोजना राजमार्ग (टोल) पुनर्निर्माण का कार्य बीओटी के अंतर्गत नई दिल्ली की किसी कंपनी को दिया गया था लेकिन उक्त कंपनी ने समय पर काम नहीं किया इसलिए उक्त कंपनी पर 73.90 लाख रुपए का जुर्माना लगाया जाना चाहिए था, लेकिन जनवरी 2014 तक वह जुर्माना वसूला नहीं गया था। एक अन्य मामले में बीना-खिमलासा-मलथॉन परियोजना में कुछ काम पूरे करने के लिए निजी कंपनी को एक समयावधि दी गई थी, लेकिन निजी कंपनी ने 15 माह समाप्ति के पश्चात भी काम पूरा नहीं किया। इस हिसाब से 2 करोड़ रुपए का जुर्माना वसूला जाना था, जो नहीं वसूला गया।
सरकार के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। जबकि बोनस लेने के लिए निजी कंपनी या ठेकेदार को हर सुविधा प्रदान की जाती है। कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि सांठ-गांठ करते हुए लगभग 29.27 करोड़ रुपए का बोनस प्रदान कर दिया गया है। इस मामले में मंदसौर-प्रतापगढ़, सरदापुर-बडऩायर और बड़वानी-पुल, सौध-सैंधवा परियोजना राजमार्ग को बीओटी (टोल प्लस एन्युटी) मॉडल पर पीपीपी के तहत विकसित किया जाना था। यातायात के कम घनत्व तथा कम राजस्व की संभावना को ध्यान में रखते हुए सरकारी कंपनी ने इन तीनों परियोजनाओं को उक्त मॉडल पर विकसित करने का निर्णय लिया। बाद में सार्वजनिक-निजी साझेदारी पर आधारित राज्य स्तर की प्राधिकार समिति ने दिसंबर 2010 और जनवरी 2011 में निर्णय लिया कि यह सभी परियोजनाएं फिक्सड वार्षिकी के रूप में निविदा के माध्यम से विकसित की जाएंगी। इसमें एक प्रावधान यह भी था कि यदि ठेकेदार या निजी कंपनी ने समयावधि से पहले काम पूरा कर दिया तो उसे बोनस दिया जाएगा। लेकिन सारा खेल समयावधि में ही खेल लिया गया। निर्माण की अवधि जानबूझकर 730 दिन निर्धारित की गई। जबकि परामर्शदाता का कहना था कि 12 से 18 माह निर्माण अवधि होनी चाहिए, लेकिन परामर्शदाता की सलाह का उल्लंघन किया गया। ऐसी स्थिति में कन्शेसनायर या निजी कंपनी-ठेकेदार को बोनस देने के लिए घपला किया गया।
योजना आयोग का कहना है कि जिन मॉडलों में वार्षिकी का भुगतान होता है, वहां टोल कन्शेसनायर द्वारा संग्रहित नहीं किया जा सकता। लेकिन इस परियोजना में कन्शेसनायर ने अनुसूचित तारीख से पहले परियोजना पूर्ण करने के कारण अतिरिक्त टोल भी एकत्रित किया। इस प्रकार 16.82 करोड़ रुपए का फायदा ठेकेदार या कंपनी या कन्शेसनायर को पहुंचाया गया। सरकार का कहना है कि मॉडल रियायत समझौते के तहत निर्माण अवधि 2 वर्ष है और बोनस का भुगतान इसी समझौते के तहत किया गया है, जो कि परियोजना को तेजी से पूरा करने के लिए ठेकेदार या निजी कंपनी या कन्शेसनायर को दिया गया प्रोत्साहन है।
लेकिन कैग इस दलील से सहमत नहीं है। कैग का कहना है कि जब सलाहकार ने परियोजना की अवधि 12 से 18 माह रखी थी तो उसे 730 दिन तक बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था। इसी प्रकार एन्युटी (वार्षिकी) के भुगतान की प्रक्रिया अपनाने से भी 129 से लेकर 216 प्रतिशत तक अधिक लागत सरकार को देनी पड़ी।
मिसाल के तौर पर मंदसौर-प्रतापगढ़ परियोजना राजमार्ग के निर्माण की अनुमानित लागत 21.90 करोड़ थी, लेकिन इसके एवज में 28.31 करोड़ रुपए दिए गए। इसी प्रकार सरदारपुर-बडऩावर परियोजना की लागत 83.66 करोड़ रुपए आंकी गई थी जो कि 180.96 करोड़
रुपए में पड़ी। लगभग 216
प्रतिशत महंगी।
बड़वानी-पलसोद-सैंधवा राजमार्ग परियोजना भी 107.11 करोड़ के बजाए 139.89 करोड़ रुपए में पड़ी। इस तरह कई अनियमितताओं के चलते राजस्व की पर्याप्त हानि हुई है। यह तो मात्र 16 राजमार्गों का लेखा-जोखा है सारे प्रदेश में जो सड़कें बन रही हैं उसमें कितना घालमेल हो रहा है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा
सकता है।
टोल वसूली में मनमानी
मध्यप्रदेश में अलग-अलग सड़क मार्गों के लिए टोल की दरेंं अलग-अलग हैं लेकिन वसूलने वाली निजी कंपनियां इनमें मनमानी करती हैं। मिसाल के तौर पर एमपीआरडीसी द्वारा 282 किलोमीटर के लगभग के 4 राज्यमार्गों का रखरखाव ओएमटी बेसिस पर किया जा रहा है। नियमानुसार इन मार्गों पर टोल कलेक्शन केवल कमर्शियल वाहनों से ही लिया जाना चाहिए लेकिन जनता को जानकारी न होने के कारण हर एक वाहन की पर्ची काट दी जाती है, कोई जागरूक व्यक्ति शिकायत करता है तो उसका वाहन निकलने दिया जाता है। ऐसे ही भोपाल से इंदौर के बीच में देवास तक फोरलेन है लेकिन भोपाल से इंदौर के बीच फोरलेन के हिसाब से ही टोल देना पड़ता है। 2,708 किलोमीटर के करीब राज्य राजमार्ग का विकास बीओटी के अंतर्गत किया गया है जिस पर लागत 2,993 करोड़ रुपए से अधिक आई है यानी प्रति किलोमीटर 1 करोड़ 85 लाख रुपए खर्च किए गए हैं, जोकि पड़ोसी राज्यों की लागत से ज्यादा है। भाजपा शासित गुजरात और छत्तीसगढ़ से भी महंगी सड़कें मप्र में बनती हैं लेकिन सड़कों की गुणवत्ता इन राज्यों के मुकाबले बहुत घटिया है और ढांचा भी उतना ही लचर है। बीओटी (टोल प्लस एन्युटी) के तहत जो परियोजनाएं पूरी की जाती हैं उनमें ठेकेदार या निजी कंपनी निर्माण पूर्ण होने से पूर्व ही टोल वसूलने लगती है और पैसा अपनी जेब में रखते हैं।
क्या है मप्र सड़क विकास निगम लिमिटेड
मध्यप्रदेश सड़क विकास निगम लिमिटेड, भोपाल (कंपनी) की स्थापना 14 जुलाई 2003 को पूर्ण स्वामित्व वाली सरकारी कंपनी के रूप में कंपनी अधिनियम 1956 के अंतर्गत की गई, जिसका प्रशासनिक नियंत्रण लोक विभाग मध्यप्रदेश शासन के अधीन है। जिसका उद्देश्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के संदर्भ में सड़कों का विकास सार्वजनिक एवं निजी या संयुक्त उद्यम आधार के रूप में परिकल्पित करना है। कंपनी को अक्टूबर 2005 में राज्य राजमार्ग प्राधिकरण के रूप में मध्यप्रदेश राजमार्ग अधिनियम 2004 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है तथा राजमार्गों के विकास एवं संचालन हेतु अधिदेश दिया गया है। कंपनी द्वारा योजना आयोग, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2006 से 2008 के मध्य बीओटी समझौते के लिए पीपीपी के अंतर्गत दिशा-निर्देश तथा मॉडल रियायत समझौतेÓ (एमसीए) का पालन करना आवश्यक है। कंपनी द्वारा बीओटी (टोल), बीओटी (एन्युटी) और बीओटी (टोल प्लस एन्युटी) मॉडल का उपयोग राजमार्गों के विकास एवं निर्माण हेतु कन्शेसनायर से अनुबंध किया जा रहा है। कंपनी द्वारा वर्ष 2009-10 से 2012-13 के दौरान रुपए 3803.81 करोड़ की प्राक्कलित लागत से 16 परियोजना राजमार्गों का विकास किया गया है।