कहीं आंख तो कहीं जान सबकुछ दांव पर
20-Dec-2014 03:37 PM 1234793

सरकारी अस्पतालों, नेत्र-शिविरों और नसबंदी कैम्पों में जाने से पहले ईश्वर को नमन अवश्य कर लेना चाहिए क्या पता वापस लौटें या नहीं। भारत में प्राय: हर प्रांत में सरकार की यह नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवाएं जान की कीमत पर ही मिला करती हैं। छत्तीसगढ़ में नसबंदी का टारगेट पूरा करने की जल्दबाजी में 15 महिलाओं की जान चली गई थी, अब पंजाब के गुरदासपुर जिले में एक एनजीओ द्वारा आयोजित नेत्र शिविर में 60 लोगों ने अपनी आंखें खो दीं। खास बात यह है कि सरकार को न तो इन नेत्र चिकित्सकों की जानकारी थी और न ही उस एनजीओ ने सरकार के पास सूचना पहुंचाई थी।

वर्ष 2011 में छत्तीसगढ़ में बालोद के नेत्र-शिविर में नि:शुल्क मोतियाबिंद ऑपरेशन के बाद 48 लोगों की आँखें खराब हो गई थीं, वर्ष 2012 में 16 तथा वर्ष 2013 में भी 6 लोगों की आँखें की रोशनी छत्तीसगढ़ के नेत्र-शिविरों में चली गई। पंजाब में शिविर लगाने वाली गुरुनानक सेवा इंटरनेशनल मिशन संस्था ने बगैर पर्याप्त इंतजाम किए यह ऑपरेशन कर डाले। दरअसल नौसिखिए और कर्म खर्च में उपलब्ध होने वाले डॉक्टरों को बुलाकर यह गैर सरकारी संस्थाएं अपना बजट बचाती हैं और उधर डॉक्टर मरीजों के शरीर को प्रयोगशाला समझते हुए प्रयोग किए जाते हैं, इसी कारण आए दिन यह घटनाएं बढ़ रही हैं। लेकिन सरकारी अस्पतालों में तो बजट की भी कमी नहीं होती पर वहां भी जानलेवा इलाज ही मिलता है।
पंजाब में जिस आई कैंप में 60 लोगों की रोशनी गई। उनमें से 16 अमृतसर के हैं। मोतिया बंद के ऑपरेशन के लिए ये आई कैंप गुरदासपुर के घुमन गांव में लगा था। प्रशासन ने इस मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। अस्पताल के बिस्तर पर दर्द से कराह रहे बुजुर्ग लोग अब तक खुद को यकीन नहीं दिला पाए हैं कि अब इन्हें कभी दिखाई नहीं देगा। ऑपरेशन होने के कुछ ही घंटों के भीतर इनकी आंखों में दर्द होने लगा। ये फिर अस्पताल भागे, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। इन जैसे कई लोग अब हमेशा के लिए अपनी आँख खो चुके हैं। मेडिकल कैंप में सफाई पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया था। यहां तक की नेत्र शिविर लगाने के लिए प्रशासन से जरूरी इजाजत भी नहीं ली गई थी।
मोतियाबिंद ऑपरेशन के लिए पर्याप्त स्वच्छता और सावधानी बहुत जरूरी है। एक वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक का कहना है कि आँख जैसे नाजुक अंग का ऑपरेशन किसी चिकित्सा शिविर में किया ही नहीं जा सकता। इसीलिए ऐसे ऑपरेशनों के आगे शिविर शब्द का प्रयोग खतरनाक है। आँख का ऑपरेशन अत्याधुनिक ऑपरेशन थिएटर में ही संभव है। जहां पर अस्थायी ऑपरेशन थिएटर बनाए जाते हैं वहां भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। जरा सी गंदगी या असावधानी अंधत्व का कारण बन सकती है। गुरदासपुर के जिस भुवन गांव में शिविर लगाया गया था, वहां चौतरफा लापरवाही का ही आलम था। चिकित्सकों को ऑपरेशन करने की जल्दी थी। अक्सर टारगेट पूरा करने के लिए चिकित्सक मरीजों की जान से खेलते हैं जबकि एक ऑपरेशन के बाद दूसरे ऑपरेशन के लिए तैयार होने में 15 मिनट का समय लगता है इस दौरान सभी यंत्रों को कीटाणु रहित किया जाता है, ऑपरेशन थिएटर की पर्याप्त सफाई की जाती है।
डॉक्टर और अन्य चिकित्सा स्टॉफ भी अपने दास्ताने से लेकर औजारों को साफ करते या बदलते हैं इसके बाद ही अगले मरीज को बुलाया जाता है। लेकिन गुरदासपुर के उस गांव में पशुओं की तरह कतार में एक के बाद एक आंखों के ऑपरेशन होते गए और लापरवाही में 60 लोगों ने अपनी आंखें गंवा दीं। बिहार के सिहरसा में भी कुछ समय पूर्व एक गैर सरकारी संगठन बालभद्र स्मृति सेवा संस्थान ने शिविर लगाकर मोतियाबिंद के ऑपरेशन कराए थे जिनमें 24 लोगों ने अपनी आंखों की रोशनी गंवा दी थी। इस तरह की समाज सेवा से क्या फायदा जिसमें जान पर ही बन आए। मध्यप्रदेश के खंडवा में भी वर्ष 2012 में डॉक्टरों की लापरवाही से 6 मरीजों के जीवन में अंधेरा छा गया था। सरकारी सेवाएं इतनी घटिया और लापरवाह हैं कि प्राय: हर राज्य में ऐसे भयावह आंकड़े मिल जाएंगे।

  • कुमार सुबोध
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