20-Dec-2014 06:37 AM
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मध्यप्रदेश के मंत्री बातें बनाने में और शब्दों का जंजाल बुनने में कितने माहिर हैं यह हाल ही में विधानसभा सत्र के दौरान नगरीय विकास एवं पर्यावरण मंत्री कैलाश विजयवर्गीय की वाक्पटुता से जाहिर हुआ।
आरिफ अकील ने जब विधानसभा में एक ध्यानाकर्षण सूचना के तहत यह जानना चाहा कि भोपाल में गगनचुम्बी मोबाइल टॉवर में हो रहे पर्यावरणीय एवं सुरक्षा मानकों के उल्लंघन पर अभी तक कोई ठोस कार्यवाही क्यों नहीं की गई है, तो इस पर गोलमाल उत्तर देते हुए विजयवर्गीय ने बताया कि भोपाल शहर में गगनचुम्बी टॉवरों की भरमार नहीं है और सरकार ने तो नए नियम बनाकर उनका प्रकाशन भी राजपत्र में किया है। इस सिलसिले में उन्होंने मध्यप्रदेश नगर पालिका नियम-2012 का हवाला भी दिया, जिसके नियम-21 के अनुसार मोबाइल फोन सेवा के लिए अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होता है।
सच तो यह है कि भोपाल शहर में ही नहीं बल्कि प्रदेश के ज्यादातर शहरों में मोबाइल टॉवर स्थापित करने वाली कंपनियां नियमों की अनदेखी करते हुए रहवासी इलाकों में धड़ल्ले से टॉवर बना रही हैं और रेडिएशन के कारण एक बड़ी आबादी कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का खतरा झेलने को विवश है। सरकार ने नियम भले ही बना दिए हों परंतु सरकारी अधिकारियों की कृपा से मोबाइल कंपनियों ने इन नियमों को धता बताने का रास्ता तलाश ही लिया है। नगर निगम की सांठ-गांठ के चलते ऐसे क्षेत्रों में भी टॉवर बनाए जा रहे हैं जहां इनको लगाना खतरनाक हो सकता है।
कोलार में तो बच्चों के एक अस्पताल की छत पर ही मोबाइल टॉवर स्थापित है। डाक्टरों के अनुसार रेडिएशन से मनुष्य के मस्तिष्क अवशोषित होने का खतरा है, आंखों की रोशनी कम होती है, ब्रेन ट्यूमर और कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों में वृद्धि होती है। दूरसंचार और प्रोद्योगिकी मंत्रालय की समिति भी टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन को खतरनाक मान चुकी है। इनसे पशु-पक्षियों पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। संभवत: इसी कारण से शहर में गौरैया, कबूतर, कौआ, कोयल इत्यादि नजर नहीं आते हैं लेकिन निगम प्रशासन इन सब परिस्थितियों एवं नियम कानून को ताक में रखकर टेलीकॉम कंपनियों से सांठ-गांठ कर रहा है। नागरिकों के स्वास्थ्य की किसी को कोई चिंता नहीं है, आये दिन नई-नई बीमारियां सामने आ रही हैं।
दरअसल कुछ समय पूर्व टॉवर कंपनियों पर नगर निगम ने सख्ती दिखाई थी और सरकार ने भी कुछ दिशा-निर्देश बनाए थे। किंतु फिर सरकारी अधिकारियों ने ही मोबाइल टॉवर कंपनियों को नया रास्ता दिखा दिया और वे कोर्ट से जाकर स्टे ले आए।
कोर्ट के स्टे के बाद नगर निगम को भी तत्काल कोर्ट में अपना पक्ष रखना था लेकिन नगर निगम ने जानबूझकर देरी की। उच्च न्यायालय में शीघ्र सुनवाई का आवेदन भी बड़ी मुश्किल से आयुक्त नगर निगम द्वारा बार-बार टोकने पर अधिवक्ता विवेक अग्रवाल ने दिया। इस देरी का फायदा टॉवर कंपनियों को ही हो रहा है। सच तो यह है कि रहवासी क्षेत्र में कोई टॉवर लग ही नहीं सकता। 6 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित मध्यप्रदेश राजपत्र में इसका साफ उल्लेख किया गया है। मोबाइल से रेडिएशन ही नहीं बल्कि दूसरे भी नुकसान हैं। हाल के दिनों में तेज आंधी के चलते शहर के कई इलाकों में मोबाइल टॉवर धराशाई होने की खबरें मिली हैं। एमपी नगर में तो एक व्यक्ति की जान भी चली गई थी। लेकिन फिर भी टॉवर धड़ल्ले से लगाए जा रहे हैं। इनमें से कुछ तो निजी भवनों के ऊपर लगे हुए हैं, जबकि (अधि. क्र. 30-एफ-1-48-2011-अठारह-3-मध्यप्रदेश नगरपालिका निगम अधिनियम, 1956(क्र. 23 सन् 1956)की धारा 433 सहपठित धारा 317-क तथा मध्यप्रदेश नगरपालिका अधिनियम, 1961 (क्र. 37 सन् 1961)की धारा 355 एवं 356) की धारा-5 (7) में भवन की परिभाषा दी गई है जिसके अनुसार भवन में ऐसी सभी संरचनाएं शामिल हैं जिनमें जुड़ाई ईंट, लकड़ी, धातु या अन्य किसी प्रकार की सामग्री से की गई हो वह मानव निवास के रूप में या अन्यथा उपयोग में लाई जाती हो। धारा 296 मध्यप्रदेश नगर पालिका निगम अधिनियम 1956 में यह स्पष्ट प्रावधान है कि आयुक्त उस स्थल को मान्य करने से इंकार कर सकेगा जिसमें कि प्रस्तावित भवन का निर्माण नगर निर्माण योजना या उसके अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन में किया हो।
सक्षम अधिकारी अक्षम क्यों?
दरअसल मध्यप्रदेश द्वारा 6 अक्टूबर 2012 को जारी राजपत्र, जिसका हवाला देकर कैलाश विजयवर्गीय ने सरकार की पीठ थपथपाई थी, उसमें सक्षम प्राधिकारीÓ से अभिप्रेत है, नगर पालिका निगम के मामले में, नगर पालिका निगम आयुक्त तथा नगर पालिका परिषद एवं नगर परिषद के मामले में, मुख्य नगर पालिका अधिकारी। लेकिन यह अधिकारी कतिपय कारणों से सक्षम होते हुए भी अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि मोबाइल कंपनियों ने नगर निगम की लापरवाही का फायदा उठाकर न्यायालय से स्टे ले लिया है।
राजपत्र में इन नियमों के प्रकाशन के पूर्व अनुज्ञप्त मोबाइल टॉवर के आवेदक/स्वामियों को इन नियमों के प्रकाशन की तारीख से दो मास की भीतर अनुज्ञा का नवीकरणÓ कराना तय किया गया था। जाहिर है इन आवेदकों को कोई भी नवीकरण शुल्क जमा नहीं करना था। किंतु ऐसे टॉवरों की पश्चातवर्ती नवीकरण अनुज्ञा, इन नियमों द्वारा शासित होनी थी। यदि इस नियम का ध्यान रखा जाता तो ज्यादातर टॉवरों को पश्चातवर्ती नवीकरण अनुज्ञा ही नहीं मिलती क्योंकि वे उन मानकों के अनुरूप बनाए ही नहीं गए थे। टॉवरों को हरी झंडी देने के लिए जो सुरक्षा प्रमाणपत्र प्रदान किया जाना था वह उक्त नियमानुसार किसी आईआईटी अथवा संरचना इंजीनियरिंग अनुसंधान केंद्र (एसईआरसी) चैन्नई या राज्य का ऐसा कोई शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय जिसमें संबंधित अवस्थित है- से प्राप्त किया जाना चाहिए था। लेकिन सुरक्षा मानकों को भी सांठ-गांठ से अनदेखा करते हुए मोबाइल कंपनियों ने रिश्वत देकर या किसी अन्य प्रकार का दबाव डालकर सुरक्षा प्रमाणपत्र हासिल कर लिए। नए नियमों में कहा गया है कि नगरीय निकाय के सक्षम अधिकारी को ऐसे समस्त टॉवर/संरचनाओं को, जो जनता के जीवन के लिए असुरक्षित पाए जाएं और जो नियमों के उल्लंघन में संस्थापित किए गए हों, हटाने की शक्ति होगी तथापि ऐसे टॉवर/संरचनाओं को हटाने के पूर्व आवेदक को 90 दिन की सूचना जारी की जाएगी। लेकिन टॉवर हटाने की कार्रवाई होर्डिंग हटाने की कार्रवाई के समान ही दिखावे के लिए की गई। सही अर्थों में तो यह कार्रवाई हुई ही नहीं। जिस तरह होर्डिंग के संबंध में हाईकोर्ट के निर्णय का मखौल उड़ाते हुए नगर निगम के अधिकारियों ने दिखावे की और पक्षपातपूर्ण कार्रवाई की है, उसे साफ समझा जा सकता है। मोबाइल टॉवर को लेकर भी ऐसा ही रुख अपनाया जा रहा है।
राजपत्र में साफ कहा गया है कि अनुज्ञप्त एजेंसी अथवा अनुज्ञप्तिधारी के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह दूरसंचार विभाग अथवा भारत सरकार के सक्षम प्राधिकारी द्वारा नियत किए गए विकिरण उत्सर्जन मानकों का सख्ती से पालन करें, विकिरण उत्सर्जन से संबंधित शिकायतें दूरसंचार विभाग अथवा भारत सरकार के सक्षम प्राधिकारी द्वारा विनिश्चित की जाएंगी और उपरोक्त विनिश्चिय का पालन करना प्रत्येक दूरसंचार कंपनी के लिए अनिवार्य होगा। लेकिन विकिरण को लेकर मध्यप्रदेश सरकार गंभीर नहीं है। कैलाश विजयवर्गीय ने भी सदन में गोलमाल उत्तर ही दिया है। उन्होंने कहा कि विकिरण से ब्रेन ट्यूमर एवं अन्य बीमारियों के होने अथवा पशु-पक्षियों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव की जानकारी इस विभाग के संज्ञान में अधिकृत रूप से नहीं लाई गई है। भारत सरकार के संबंधित विभाग को मोबाइल टॉवर से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे संबंधी अद्यतन वैज्ञानिक/तकनीकी वस्तुस्थिति से अवगत कराने का अनुरोध किया गया है। सवाल यह है कि क्या इतना पर्याप्त है?
कुछ समय पूर्व इंदौर में एक मामला प्रकाश में आया था, जिसमें एक परिवार के दो सदस्यों को मोबाइल विकिरण के कारण कैंसर होने की बात कही गई थी। भोपाल और इंदौर के कैंसर अस्पतालों में आए दिन ऐसे मरीज सामने आ रहे हैं जो मोबाइल विकिरण के एक्सपोजर के कारण इस खतरनाक बीमारी का शिकार बने हैं। सरकार ने अभी तक इन मरीजों के घर का पता लेकर यह जानने की कोशिश नहीं की है कि उनके घर के आस-पास मोबाइल टॉवर कितनी दूरी पर है। जबकि कैंसर बढऩे का एक कारण मोबाइल टॉवर के विकिरण को भी बताया जा रहा है। गोरैया जैसे खूबसूरत पक्षी की संख्या तो मोबाइल टॉवरों के कारण 10 प्रतिशत ही रह गई है। लेकिन विकिरण के अतिरिक्त भी कई खतरे हैं। मोबाइल टॉवर आंधी से गिर सकते हैं। उनमें करंट फैल सकता है। मोबाइल टॉवर को चलाने के लिए लगाए गए जनरेटर से निकलने वाला धुआं हानिकारक होता है। जनरेटर की हमिंग साउंड गर्भस्थ शिशुओं को बहरा बना सकती है। इन सब की परवाह किसे है। नगर निगम से लेकर सरकार तक हर जगह मोबाइल कंपनियों के हिमायती देखे जा सकते हैं।