20-Dec-2014 06:32 AM
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रतनगढ़ हादसे पर लीपा-पोती
रतनगढ़ में अक्टूबर 2013 में हुई भगदड़ में दम तोडऩे वाले 116 लोगों की मौत की जिम्मेदार सिर्फ एक अफवाह थी। न तो प्रशासन और न ही अधिकारी इन मौतों के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। जस्टिस राकेश सक्सेना के एक सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट जब मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रस्तुत हुई, तो यह साफ हो गया कि अधिकारियों को बचाने के लिए भरपूर लीपा-पोती की गई और इस गंभीर हादसे की जिम्मेदारी अफवाह पर डाल दी गई।
आयोग की रिपोर्ट के बाद भी कई सवाल अनुत्तरित हैं, लेकिन उनका उत्तर शायद ही मिल पाए। क्योंकि जिन अज्ञात शरारती तत्वों को इस रिपोर्ट में हादसे का जिम्मेदार बताया गया है, वे कभी भी पकड़ में आने वाले नहीं हैं। इसीलिए छोटे-मोटे आरक्षकों पर आयोग ने अपना गुस्सा उतार कर खानापूर्ति कर ली। कैबिनेट की उप समिति से लेकर जांच आयोग तक सभी अधिकारियों को बचाने में लगे थे जबकि एक ही स्थान पर दो-दो बार हादसे हुए, 2006 में और 2013 में। 8 साल के भीतर दो हादसों के बाद भी वही ढाक के तीन पात। ऐसे आयोगों को गठित करने का औचित्य ही क्या है और मंत्रिमंडल की उप समिति से लेकर तमाम खानापूर्ति करने की जरूरत भी क्या है?
इससे पहले भी दतिया स्थित रतनगढ़ मंदिर में 2006 के पहले हादसे के समय जो जांच आयोग बैठा था उसने अपनी रिपोर्ट कैबिनेट को दे दी थी। कैबिनेट ने इस मामले को सुनने के लिए तीन मंत्रियों की उप समिति बनाई थी। जांच आयोग ने अपनी फाउंडिंग में साफतौर से यह लिखा था कि बड़ी दुर्घटना है ज्यादा लोगों की मौत हुई है अधिकारियों की उदासीनता दंडनीय है। साथ में उन्होंने गृह विभाग के परिपत्र जो व्यवस्था के संबंध में था उसमें लिखा था कि तत्कालीन कलेक्टर एम गीता ने उसका पालन नहीं किया। जांच आयोग की अनुशंसा को मंत्रिमंडल की उप समिति और विभाग ने भी अपनी मोहर लगा दी। परंतु मौत के दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। बल्कि वह रिपोर्ट ही पिटारे में बंद पड़ी रही और दो साल बाद चुनाव हो जाने के बाद सरकार ने उक्त जूडिशियल इंक्वायरी से यह कहकर कि नई सरकार बन गई है पुराना मंत्रिमंडल भंग हो गया है इस कारण से इस पूरे मामले की जांच दोबारा से कराई जाना उचित होगा। परंतु तब सरकार के ही तत्कालीन मुख्य सचिव ने पुरानी रिपोर्ट का हवाला देते हुए उक्त घटना पर कई सवाल खड़े कर दिए थे।
बाद में चार सदस्यीय मंत्रियों की उप समिति ने भी लीपा-पोती का ही काम किया क्योंकि भाजपा के एक महामंत्री एम गीता की ढाल बन गए थे। इसी के चलते इस नस्ती को इतने सालों तक दबाकर रखा गया था। अगर दोबारा रतनगढ़ में हादसा नहीं हुआ होता तो पुरानी नस्ती को दफन कर दिया जाता। इसके बाद रतनगढ़ में दोबारा हादसा हो गया और फिर वही प्रक्रिया अपना कर लीपा-पोती की गई। सदन में जिस तरह यह रिपोर्ट रखी गई है, उसके आधार पर न तो किसी को सजा हो सकती है और न ही कोई जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
अमूमन होता यह है कि ऐसे हादसों के समय तत्कालीन आक्रोश को शांत करने के लिए न्यायिक जांच आयोग बना दिए जाते हैं और फिर बाद में ऐसे हादसों में इधर लोगों के जिंदा दफन होने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है और उधर जांच रिपोर्टें भी दफन कर दी जाती हैं। जिम्मेदार लोग मलाईदार पोस्टिंग पा जाते हैं और सत्ता तथा विपक्ष दोनों सब कुछ भूलकर जिम्मेदार अधिकारियों से रिश्तेदारियां निभाने लगता है।
इस बारे में एक परिपत्र 28 जुलाई 2005 को गृह मंत्रालय ने भी जारी किया था। इस परिपत्र में धाराजी की घटना को देखते हुए लिखा था कि अगर नदी का पानी डाउन स्ट्रीट में बहता है तो ऐसे समय में जुलूस, मेला और धार्मिक आयोजन होते हैं, आयोजनों के संबंध में जल संसाधन विभाग के अधिकारियों को आवश्यक रूप से आमंत्रित करें ताकि डाउन स्ट्रीट से बहने वाले पानी या बांधों से छोड़े गए पानी के लिए जल संसाधन विभाग के पास पर्याप्त व्यवस्था इस बात की होती है कि आसपास के गांवों को इसकी सूचना देने का इंतजाम किया जाए। इस परिपत्र के जारी होने के लगभग 8 माह बाद ही 2006 में रतनगढ़ हादसे में 50 के करीब शृद्धालु मारे गए। बाद मेें फिर अक्टूबर 2013 में भी रतनगढ़ मंदिर में भगदड़ मचने के कारण 115 लोगों की मौत हो गई और जिला प्रशासन मुंह ताकता रह गया।