भोपाल अ प्रेयर फॉर रेन
18-Dec-2014 05:12 AM 1234803

भोपाल: अ प्रेयर फॉर रेन 1984 में भोपाल गैस त्रासदी की याद ताजा करती है। रात के अंधेरे में डूबा हुआ भोपाल शहर, रेलवे ट्रैक, बस्तियों, पोखरों, यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री और हमीदिया अस्पताल की सीढिय़ों पर जहां-तहां बिखरी हुई लाशें, शहर के ऊपर से उड़ती हुई जहरीली गैस और लोगों की चीखें आपको उस घटनाक्रम की याद दिलाएंगी जिसके जख्म आज तक नहीं भरे हैं। फिल्म की कहानी यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के भोपाल शहर में लगने से शुरु होती है।

दिलीप (राजपाल यादव) जैसे-तैसे किराए के रिक्शे से अपने परिवार का गुजर-बसर कर रहा होता है। इसी दौरान उसे यूनियन कार्बाइड में एक मजदूर की मौत के बाद काम करने का मौका मिलता है। फैक्ट्री में काम मिलते ही दिलीप की परेशानियां खत्म होने लगती हैं। इधर भोपाल शहर का ही एक छोटे से अखबार का रिपोर्टर मोटवानी (कल पेन) अपनी रिपोर्ट में मजदूर की मौत की बात को भविष्य के लिए बड़ा खतरा बताता है, लेकिन उसकी बात नकार दी जाती है।
डॉक्टर्स को भी समझ नहीं आ रहा होता कि आखिर मजदूर की मौत का कारण क्या है। फैक्ट्री प्रबंधन इसे मजदूर की लापरवाही बताकर मामले को रफा-दफा कर देता है। इसी दौरान वॉरेन एंडरसन अपनी फैक्ट्री का दौरा करने हिन्दुस्तान आता है और सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर फैक्ट्री के डिजाइन को चेंज करने की अनुमति दे देता है।
फैक्ट्री बहुत सीमित से गैर प्रशिक्षित मजदूरों और चंद इंजीनियरों की देख-रेख में चल रही होती है। हिन्दुस्तान के बेहद लचीले सुरक्षा मानकों और अधिक मुनाफा कमाने के लालच में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री का प्रबंधन सुरक्षा मानकों पर ध्यान नहीं देता। दूसरी और राजनीतिक दल भी वोट और कंपनी से मिलने वाली रिश्वत के लालच में नियमों की अवहेलना होने देते हैं। मोटवानी इस बात को अपने अखबार में तो प्रमुखता से छापता ही है, साथ ही इस बात की जानकारी मुख्यमंत्री तक भी पहुंचाता है।
मुख्यमंत्री उसकी बात को अनसुना कर देते हैं। इधर फैक्ट्री का ही एक मेंटेनेंस इंजीनियर रॉय प्रबंधन की लापरवाही से पैदा होने वाले खतरे को भांप लेता है और दिलीप के जरिए पूरी कहानी मोटवानी तक पहुंचाता है। जब तक यह जानकारी बाहर आ पाती, उससे पहले ही फैक्ट्री मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव शुरु हो जाता है। गैस यूनियन कार्बाइड से सटी बस्ती में अपना असर कुछ ही मिनटों में दिखाना शुरु कर देती है और देखते ही देखते लाशों का ढेर लगने लगता है। फिल्म में हर कलाकार ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है।
राजपाल यादव को गंभीर भूमिका में देखना सुकूनदायक है, तो बस्ती की गरीब महिला के किरदार में नजर आई तनिषा चटर्जी ने भी अपने किरदार को जिया है। एंडरसन की भूमिका में मार्टिन शीन, मोटवानी की भूमिका में कल पेन, चौधरी की भूमिका में विनीत कुमार, डॉ. चंद्रा की भूमिका में मनोज जोशी और रॉय की भूमिका में जॉय शेनगुप्ता का काम सराहनीय है।

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