खूनी चुनाव का शरीफÓ पटाक्षेप
18-May-2013 06:37 AM 1234791

पाकिस्तान में अंतत: नवाज शरीफ सत्ता में वापस लौट आए। आम चुनाव में उनके दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन 130 के करीब सीटें मिली हैं और यह तय हो गया है कि वे पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री होंगे। नवाज शरीफ का सत्ता में लौटना पाकिस्तान की जनता में फौज की कम होती लोकप्रियता का संकेत भी है। यद्यपि पीपीपी को पिछली बार नवाज के सहयोग से ही सत्ता मिली थी, लेकिन इस बार लगता है नवाज को नए साथी मिल जाएंगे। पिछली बार बेनजीर भुट्टों की शहादत का फायदा पीपीपी को मिला, लेकिन इस बार पीपीपी का सूपड़ा साफ हो गया। देखा जाए तो पीपीपी यानी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को ज्यादा उदार माना जाता है पर पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) राजनीतिक रूप से ज्यादा परिपक्व दल के रूप में वहां मान्य हो चुकी है। यह बात अलग है कि इन दोनों दलों का इतिहास कहीं न कहीं उन्हें सेना से अवश्य जोड़ता है। भुट्टो को फांसी में सेना की भूमिका बताई जाती है तो नवाज शरीफ को राजनीति में लाने में सेना महत्वपूर्ण तत्व थी। हालांकि बाद में सेना से दोनों के रिश्ते उतने अच्छे नहीं रहे। खासकर नवाज शरीफ सेना के इशारे पर नाचने वाले राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अक्टूबर 1999 में जब उन्हें अपदस्थ किया गया था उस समय नवाज शरीफ के रिश्ते सेना से बिगड़ गए थे। उन्होंने मुशर्रफ के प्लेन को उतरने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। प्लेन श्रीलंका से लौट रहा था। मुशर्रफ ने हवाई रास्ते में ही कैसे नवाज शरीफ का तख्ता पलट किया यह रहस्य का विषय है। शायद इस तख्ता पलट की इबारत पहले ही लिखी जा चुकी थी। कारगिल पर मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को अंधेरे में रखा और भारत के साथ एक परोक्ष युद्ध में पाकिस्तान की करारी पराजय हुई। इसके बाद नजरबंदी के दौरान नवाज शरीफ को आनन-फानन में फांसी की सजा भी सुनाई गई, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते वे देश से निर्वासित कर दिए गए। लगभग 10 वर्ष तक निर्वासन में रहने के बाद नवाज शरीफ की पाकिस्तान में वापसी उतनी सुखद नहीं थी, किंतु पाकिस्तान की राजनीति में संसदीय लोकतंत्र की सुप्रीमैसी के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए यहां तक कि फौजी तानाशाह मुशर्रफ को देश छोड़कर भागना भी पड़ा। आज वही मुशर्रफ नवाज के रहमो-करम पर पाकिस्तान में नजरबंद हो गए हैं। आशंका है कि उन्हें मृत्युदंड दिया जा सकता है। लेकिन फौज के ऊपर नियंत्रण किए बगैर मुशर्रफ को सजा दे पाना नवाज शरीफ के बस में नहीं है। फौज आज भी पाकिस्तान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शरीफ के फौज से संबंध कब तक मजबूत रहेंगे कहा नहीं जा सकता, लेकिन पाकिस्तान में यह एक सुखद बदलाव है कि वहां पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से बदलाव आया है। अन्यथा पाकिस्तान में लोकतंत्र को अपदस्थ करने की परंपरा रही है।
सवाल यह है कि नवाज शरीफ भारत के साथ किस तरह के रिश्ते रखेंगे। अपने चुनाव अभियान में उन्होंने भारत के खिलाफ जहर उगलने में कोई कमी नहीं की। भले ही विवादास्पद मुद्दे न उठाए गए हों, लेकिन कारगिल के लिए उन्होंने कभी शर्म का इजहार नहीं किया। हालांकि शरीफ कहते आए हैं कि वे बिना बुलाए भी भारत आएंगे। उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आमंत्रित किया है, लेकिन सवाल वही है कि दोस्ती किस हद तक आगे बढ़ सकेगी। पाकिस्तान का रिकार्ड यही रहा है कि जब संबंध मजबूत होते हैं, पीठ में छुरा घोंप दिया जाता है। कंधार अपहरण से लेकर करगिल और ुमुंबई हमले तक, मुंबई हमले से लेकर सैनिकों के सर काटने तक पाकिस्तान में कोई ऐसी कार्रवाई नहीं की जिससे यह जाहिर होता कि वह भारत के साथ रिश्ते सुधारने को लेकर गंभीर है। बल्कि उसने हर बार धोखा दिया है। इसका कारण शायद यह भी है कि पाकिस्तान की फौज के मन में भारत के प्रति नफरत के बीज बोए            गए हैं।
गिरकर भी नहीं उठे इमरान
पाकिस्तान की पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के तेज तर्रार नेता क्रिकेटर इमरान खान जब एक मंच से भरभराकर नीचे गिरके बुरी तरह घायल हो गए तो भारत के मीडिया मेें यही अनुमान लगाया गया कि इमरान को इस गिरावट का भुगतान जनता के वोट के रूप में मिलेगा। भारतीय मीडिया का अनुमान भारत के संदर्भ में गलत नहीं था क्योंकि यहां भावनात्मक मुद्दों पर आसानी से वोट मिल जाते हैं, किंतु पाकिस्तान में जनता ज्यादा समझदार है। इसी कारण उसने अनुभवी नवाज को चुना और इमरान खान को प्रतिपक्ष में बैठने का मौका दिया ताकि वे और परिपक्व हो सके। जहां तक अन्य पार्टियों का प्रश्न है वे उतनी प्रभावी नहीं रही, लेकिन छोटे-छोटे दलों को जिस तरह वोट दिए गए हैं उससे पता चलता है कि पाकिस्तान में क्षेत्रीय राजनीति आकार लेने लगी है। यदि लोकतंत्र लंबे समय तक कायम रहा तो पाकिस्तान की राजनीति का अलग ही स्वरूप देखने को मिलेगा।  फिलहाल तो इमरान खान से जो उम्मीद की जा रही थी उस पर वे खरे नहीं उतरे। खास बात यह है कि उन्होंने अपनी हार स्वीकार करते हुए विपक्ष में बैठने का कहा है। उधर नवाज भी जब मतगणना हो रही थी उस समय थोड़े नर्वस थे और विपक्ष में बैठने के लिए तैयार थे। अब देखना यह है कि आने वाले समय में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक मोर्चों पर पाकिस्तान क्या रुख अपनाता है। अपने दो पूर्व प्रधानमंत्रियों को पराजित करके उसने यह संकेत तो दे ही दिया है कि अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर हार स्वीकार नहीं है। नवाज शरीफ ने वित्त मंत्री के रूप मेें वरिष्ठ नेता इशाक डार का चयन करके यह संकेत दिया है कि वे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत गंभीर हैं और उसे पटरी पर लाने के लिए हर संभव प्रयास भी करेंगे। यदि अर्थव्यवस्था सुधरती है तो पाकिस्तान में आतंकवाद की स्थिति पर भी कुछ नियंत्रण हो सकेगा। आने वाले दिन पड़ोस मुल्क पाकिस्तान के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

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