19-Mar-2013 09:54 AM
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हाल ही में जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के बीच जुबानी जंग के बाद हाथापाई और पत्थरबाजी की घटनाएं हुईं तो यह लगने लगा कि शरद पवार शिवसेना के साथ-साथ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से भी अपना वर्षों पुराना किंतु छिपा हुआ रिश्ता बेहिचक खत्म करने में लगे हैं लेकिन यह एक भूल ही थी। दरअसल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को आपस में भिड़वाते हुए अब राजनीतिक लाभ उठाने की चेष्टा कर रही है। लेकिन उनकी इस करतूत को शिवसेना ने भांप लिया है इसी कारण उद्धव ठाकरे ने शिवसैनिकों को सचेत किया है कि वे न तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रति गलत बयानी करें और न ही किसी प्रकार से उनके ऊपर हमला करें। जब यह चाल असफल होती नजर आई तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के चतुर चाणक्य अजित पवार ने एक नया पैंतरा खेला इस पैतरे का सार यह है कि राकांपा येन-केन-प्रकारेण महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को मीडिया की नजरों में बनाए रखना चाहती है। ऐसा करने से शिवसेना की प्रासंगिकता अपने आप ही समाप्त हो जाएगी और इसका फायदा एनसीपी को मिलेगा। राज ठाकरे के काफिले के ऊपर अहमदपुर में जो हमला हुआ था वह भी इसी रणनीति का परिणाम था और इसी कारण एनसीपी तथा एमएनएस के कार्यकर्ताओं में पुणे, नागपुर, जालना, प्रभाणी, कोलापुर, नासिक, सोलापुर, लातूर और मुंबई में तीखी झड़पें हुई। इन झड़पों के बाद मीडिया में एनसीपी और एमएनएस ही छाई रही, लेकिन बाद में उद्धव ठाकरे ने राज ठाकरे का पक्ष लेकर कुछ हद तक राकांपा की इस रणनीति को ध्वस्त करने का प्रयास किया पर इससे एमएनएस को जो फायदा मिलना था वह तो मिल चुका था। हालांकि बाद में एमएनएस ने भी इस चाल को समझा शायद इसीलिए राज ठाकरे ने हाईस्कूल परीक्षा का हवाला देते हुए अपने समर्थकों से कहा कि वे किसी भी प्रकार का उपद्रव करने से बाज आए।
अजित पवार वही कर रहे हैं जो कभी उनके चाचा शरद पवार किया करते थे। पवार महाराष्ट्र की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी हैं कब किससे हाथ मिलाना, कब किससे दोस्ती गांठना और कब किसे दुश्मन बनाना है यह वे भलीभांति जानते हैं। दुश्मनी में भी फायदा उठाना उन्हें अच्छी तरह आता है। इसी नक्शेकदम पर उनके भतीजे अजित पवार हैं, लेकिन अजित पवार ने चार कदम आगे निकलकर पार्टी में शरद पवार को ही आप्रासंगिक बना दिया है। अब पवार के समक्ष एक ही विकल्प है कि वे येन-केन-प्रकारेण प्रधानमंत्री पद हथिया लें और उनकी यह महत्वाकांक्षा भाजपा सहित अन्य क्षेत्रीय दल ही पूरा कर सकते हैं। इसीलिए पवार एनसीपी से ज्यादा टकराव के मूड में नहीं है और उन्होंने अपने भतीजे अजित को भी सचेत किया है कि वे किसी भी हालत में एमएनएस से दुश्मनी इस सीमा तक नहीं बढ़ाएं कि भविष्य में दोस्त बनने में तकलीफ जाए। दरअसल महाराष्ट्र की राजनीति में दोस्त और दुश्मनी का यह खेल कांग्रेस का ही शुरू किया हुआ है। मुंबई के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में कम्युनिस्टों की हैसियत को कम करने के लिए उस वक्त के कांग्रेसी नेताओं ने बाल ठाकरे को आगे करके शिवसेना की स्थापना करवाई थी। उस दौर के कांग्रेसी ही शिवसेना के संरक्षक हुआ करते थे। परेल के विधायक सुभाष देसाई का मुंबई के ट्रेड यूनियन हलकों में ख़ासा दबदबा था। वे कम्युनिस्ट थे। 1970 में उनकी हत्या कर दी गयी। आरोप शिव सेना पर लगा लेकिन जानकार बताते हैं कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार ने शिव सेना प्रमुख को साफ बचा लिया। बाद में दत्ता सामंत के खिलाफ भी शिव सेना का इस्तेमाल किया गया। उनके नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों को सरकार ने खत्म किया और मुंबई का औद्योगिक नक्शा बदल दिया। जब कामगारों में शिव सेना की ताक़त बढ़ी तो मजदूरों के साथ साथ मिल मालिकों से भी वसूली जोर पकडऩे लगी और शिव सेना ने बाकायदा हफ्ता वसूली का काम शुरू कर दिया। यहाँ समझने वाली बात यह है कि जब दत्ता सामंत पर शिव सेना भारी पड़ी और उनकी हत्या हुई ,उस दौर में शरद पवार एक राजनीतिक ताक़त बन चुके थे। वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके थे। तब से अब तक शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे और शरद पवार की दोस्ती का सिलसिला जारी रहा और दोनों हमेशा एक दूसरे के काम आते रहे। मौजूदा दौर में भी उनकी कोशिश यही थी कि शिवसेना का इस्तेमाल करके दिल्ली में अपने आप को महत्वपूर्ण बनाए रखें। शिवसेना के पूर्व प्रमुख बाला साहब ठाकरे तो यह खुलेआम कहा करते थे कि शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में वे मराठा प्रदर्शन का समर्थन करने के लिए वे भाजपा के मुकाबले पवार को तरजीह देंगे। ठाकरे की यह साफगोई शरद पवार के लिए एक बड़ा संबल हुआ करती थी, लेकिन अब हालात अलग हैं। शिवसेना भी एक नई है बल्कि टूट चुकी है और उसके दोनों धड़ों को साथ लेकर चलना कठिन है। लिहाजा एमएनएस से पवार की नजदीकी आज नहीं तो कल संभव हो सकती है यह उनकी सियासी मजबूरी भी है।
आरके बिन्नानी