नहीं रुकी बच्चों की तस्करी
03-Nov-2020 12:00 AM 409

 

मप्र में मानव तस्करी सरकार के लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। आलम यह है कि कोरोनाकाल में भी बच्चों की तस्करी रुकी नहीं। इंदौर के एक अस्पताल में नवजात बच्चों की तस्करी का मामला सामने आने के बाद एक बड़े नेटवर्क का पर्दाफाश हुआ है। इस मामले में जितने भी लोग गिरफ्तार हुए हैं पुलिस को उनका कोई न कोई कनेक्शन करुणानिधि मेटरनिटी एवं नर्सिंग होम से मिला है। डॉ. भरत मौर्य का नाम भी सामने आया है लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल करुणानिधि हॉस्पिटल ही इसमें इंवॉल्व है। दरअसल, पूरे इंदौर में नवजात बच्चों की मानव तस्करी का खेल चल रहा है। ऐसी लड़कियां जो शादी से पहले मां बन जाती हैं, उनकी अनचाही संतान होगी इंदौर के कई नर्सिंग होम में डॉक्टरों द्वारा सौदा किया जाता है। वहीं जबलपुर में दो बहनों को गिरफ्तार किया गया है, जो नाबालिग लड़कियों को बहला-फुसलाकर अपहरण करती थीं और बाद में पैसे लेकर उनकी शादी करवा देती थीं।

मप्र में बच्चों की तस्करी दशकों से हो रही है। उन्हें मजदूरी कराने के लिए तस्करी कर दूसरे प्रदेशों में ले जाया जाता है। ऐसे ही 29 बाल मजदूरों को जुलाई में हैदराबाद पुलिस ने दलालों के हाथ से मुक्त कराया। सभी बच्चे मप्र के  बालाघाट जिलेे के रहने वाले हैं। उनकी उम्र 10 से 14 साल के बीच है। सबसे हैरानी की बात यह है कि कोरोना संक्रमण के कारण किए गए लॉकडाउन में भी बच्चों की तस्करी रुकी नहीं। प्रदेश में बड़े पैमाने पर नाबालिग बच्चे लापता हो रहे हैं। शासन और प्रशासन की तमाम कोशिश के बाद भी तस्करी पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।

हाल ही में जारी हुई केंद्र सरकार की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों के लापता होने के मामले में देश में मप्र पहले नंबर है। प्रदेश से रोजाना 25 से ज्यादा और महीने में 800 से ज्यादा बच्चे गुमशुदा हो रहे हैं। ये रिपोर्ट जनवरी 2014 से दिसंबर 2019 तक की है। इन 6 सालों में प्रदेश से 52 हजार 272 बच्चे गुम हो चुके हैं। देश में 3 लाख 18 हजार 748 गुमशुदा बच्चों में बीस फीसदी अकेले मप्र से हैं। इन 6 सालों में छत्तीसगढ़ में 12 हजार 963 और राजस्थान से 6 हजार 175 बच्चे लापता हुए हैं। ये हालत तब है जबकि पिछले तीन सालों में पुलिस आधुनिकीकरण पर प्रदेश में 100 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। इस रिपोर्ट को लेकर प्रदेश सरकार सकते में है। इन 6 सालों में पिछले पांच साल भाजपा सरकार प्रदेश में रही है। इन गुमशुदा बच्चों को मानव तस्करी से जोड़कर भी देखा जा रहा है। एंटी ह्यूमन ट्रेफकिंग यूनिट यानी एएचटी यूनिट के हवाले से आई रिपोर्ट में प्रदेश में पिछले 3 सालों में नाबालिग बच्चों की तस्करी का अनुपात बढ़ते हुए दोगुने से ज्यादा हो गया है।

प्रदेश के गृह विभाग के मुताबिक जनवरी से नवंबर 2019 तक 11 महीने में राज्य से 7891 बच्चियां लापता हो गई हैं। इस हिसाब से हर महीने 700 से ज्यादा बच्चियां प्रदेश में गुम हो रही हैं। मानव तस्करी के खिलाफ लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत दुबे कहते हैं कि प्रदेश में हजारों मामले मानव तस्करी से जुड़े हैं लेकिन पुलिस उनको गुमशुदा मानती है। प्रकरण भी मानव तस्करी की जगह गुमशुदा का बनाया जाता है। मंडला, डिंडौरी, बालाघाट, खंडवा, सिवनी, हरदा और बैतूल वे जिले हैं जहां पर लगातार बच्चों की गुमशुदगी सामने आ रही है। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है कि जो बच्चे चार माह तक बरामद न हों उन सभी मामलों को मानव तस्करी माना जाए। प्रदेश में इस गाइडलाइन का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा। गुमशुदा के मामले सीआईडी दर्ज करती है और मानव तस्करी के महिला अपराध शाखा लेकिन दोनों विभागों में आपसी समन्वय की कमी है।

प्रदेश में पुलिस आधुनिकीकरण के लिए सरकार बड़ी राशि खर्च कर रही है। प्रदेश के साथ साथ केंद्र सरकार भी पुलिस सुधार के लिए लगातार फंड भेज रही है। सरकार इन मामलों को रोकने के लिए तकनीक का सहारा भी ले रही है। इसके बाद भी आंकड़ों में सुधार दिखाई नहीं दे रहा। साल 2016-17 में प्रदेश को केंद्र सरकार ने 25 करोड़ रुपए आवंटित किए जिनमें से 22 करोड़ रुपए खर्च किए गए। 2017-18 में 33 करोड़ रुपए आवंटित हुए जिनमें से 31 करोड़ रुपए खर्च किए गए। 2018-19 में केंद्र सरकार ने प्रदेश को 38 करोड़ रुपए जारी किए जो आधुनिकीकरण पर खर्च किए गए। गुमशुदा बच्चों का पता लगाने सरकार ने ट्रैक चाइल्ड और खोया-पाया पोर्टल भी विकसित किए हैं। लेकिन उसके बाद भी बच्चों की तस्करी पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। 

लॉकडाउन में भी खूब हुई बच्चों की तस्करी

बचपन बचाओ आंदोलन ने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से 24 मार्च से 2 सितंबर के बीच अलग-अलग ट्रेनों से 823 बच्चों को बचाया। 12 अगस्त से सितंबर के आखिर तक बचपन बचाओ आंदोलन ने ऐसी 78 बसों को पकड़वाया जिनमें 300 बच्चों की तस्करी की जा रही थी। कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन फाउंडेशन ने कम आमदनी वाले घरों और बच्चों पर लॉकडाउन के असर को लेकर एक रिपोर्ट बनाई। इसके लिए लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की वापसी से प्रभावित राज्यों के 50 से ज्यादा गैर-सरकारी संगठनों और लगभग 250 परिवारों से बातचीत की गई। इसमें कहा गया कि इन राज्यों में श्रम कानूनों के कमजोर पड़ने से बच्चों की सुरक्षा पर आंच आएगी। इससे बाल मजदूरी के मामले बढ़ सकते हैं। रिपोर्ट में लॉकडाउन के बाद बच्चों की तस्करी बढ़ने का डर जताया गया। अध्ययन के दौरान लगभग 89 फीसदी गैर-सरकारी संगठनों ने डर जताया कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद बड़ों के साथ बच्चों की तस्करी भी बढ़ सकती है। लगभग 76 फीसदी संगठनों ने कहा कि लॉकडाउन के बाद यौन व्यापार के लिए मानव तस्करी तेजी से बढ़ने का डर है। इनमें बच्चों की संख्या ज्यादा हो सकती है। गैर-सरकारी संगठनों ने लॉकडाउन के बाद बाल विवाह के मामले बढ़ने का भी डर जताया।

- रजनीकांत पारे

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