भारत सहित पूरे विश्व में भूकंप, सूनामी, बाढ़, चक्रवात सहित तमाम तरह की आपदाएं आईं लेकिन गरीबों की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं हुई, जैसी कोरोना संक्रमण के दौरान देखने को मिली है। हैरानी की बात यह है कि विज्ञान के अपने ज्ञान पर गुमान करने वाले देश अभी तक कोरोना वायरस के इलाज का न तो वैक्सीन इजाद कर पाए और न ही कोई दवा बना पाए। भारत में तो यह महामारी करोड़ों लोगों के लिए महात्रासदी बन गई है।
कोरोनावायरस संक्रमण के मामले में भारत अब अमेरिका, ब्राजील और रूस के बाद चौथा सबसे अधिक प्रभावित देश बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक हमेशा तर्क दे सकते हैं कि जब दुनिया की दो महाशक्तियां अमेरिका और चीन (जिनके पास यकीनन सबसे अच्छा मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्टर और रिसर्च है) वैश्विक महामारी के प्रकोप से नहीं बच पाए, तो मोदी से भी ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन, मोदी का लॉकडाउन (जो देश में वायरस के फैलाव को रोकने के लिए केंद्र का एक प्रमुख हथियार था) दुनिया के सबसे सख्त शटडाउंस में से एक था, जिसमें 100 प्रतिशत कड़ाई बरती गई, जो सबसे ऊंची थी। और फिर भी, हमारा देश कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का दबाव झेल रहा है, जो अब 3 लाख के पार हो गए हैं। जाहिर है कि जल्दबाजी में लॉकडाउन घोषित करने के बाद से मोदी सरकार ने बहुत सारी गलतियां की हैं, जिसके कारण महामारी महात्रासदी बन गई।
गलत आंकलन का परिणाम
देश में कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 3 लाख से अधिक हो जाने के साथ ही जिस तरह संक्रमण की रफ्तार तेज होने के आंकड़े सामने आ रहे हैं उससे यह साफ है कि इस खतरनाक वायरस से उपजी महामारी से फिलहाल छुटकारा मिलने वाला नहीं है। लेकिन सरकार की कुछ गलतियों के कारण इसका फैलाव लगातार बढ़ रहा है। दरअसल, नीति आयोग के सदस्य, और कोविड पर मोदी सरकार को सलाह देने के लिए बनी नेशनल टास्क फोर्स के अध्यक्ष, विनोद पॉल ने 24 अप्रैल को एक प्रेस ब्रीफिंग में, एक गणित का मॉडल पेश किया, जिसमें उन्होंने बहुत विश्वास के साथ दावा किया कि 16 मई के बाद से भारत में कोरोनावायरस के कोई नए मामले नहीं होंगे। और हममें से अधिकतर ने उनका यकीन कर लिया। तब तक, जब हम 16 मई तक पहुंचे और देखा कि हम तूफान के केंद्र में थे। लगता है कि सरकार की टास्क फोर्स की बागडोर, आंकड़ों के भरोसेमंद एक्सपर्ट्स के नहीं, बल्कि उपन्यासकारों के हाथ में है। बल्कि इस टास्क फोर्स के महामारी वैज्ञानिकों ने गुमनाम तरीके से इस बात की गवाही दी कि कोरोनावायरस और उससे निपटने के उपायों पर, सरकार ने शायद ही उनसे कभी सलाह ली होगी। वैज्ञानिकों के उपायों में एक था आक्रामक तरीके से टेस्टिंग और ट्रेसिंग। नरेंद्र मोदी ने बार-बार लॉकडाउन को आगे बढ़ाया, लेकिन फिर भी वो एक चीज नहीं कर पाए, जो भारत को इसके प्रकोप से बचा सकती थी, और वो थी टेस्टिंग। लॉकडाउन का इस्तेमाल करके टेस्टिंग सुविधाएं बढ़ाने की बजाय, प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को केवल इसलिए संबोधित किया कि मोर्चे पर डटे कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए या तो देशवासी तालियां बजाएं या महामारी से छाए अंधेरे को दूर करने के लिए कैंडल्स जलाएं। भारत को उत्साह बढ़ाने की जरूरत नहीं थी। उसे ठोस नीतियां चाहिए थीं।
अवैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा
दरअसल, प्रधानमंत्री के इन चीजों पर जोर देने से सिर्फ अवैज्ञानिक प्रवृत्ति को ही बढ़ावा मिला। ये उन व्हाट्सएप फॉर्वर्ड्स से भी जाहिर था, जिन्होंने ऐसे-ऐसे दावों के साथ अंधविश्वास और मिथ्या को बढ़ावा दिया, कि एक खास समय पर कैंडल जलाने या थाली बजाने से, वायरस को मारा जा सकता है। दरअसल मोदी ने 'गैर-जिम्मेदाराना’ बयान जारी किए, जिनमें राष्ट्र से कहा गया कि 21 दिन की इस लड़ाई में, कोरोनावायरस को उसी तरह परास्त करें, जैसे 18 दिन में महाभारत युद्ध जीता गया था। देश को 21 दिन के लॉकडाउन के जरिए महामारी से बचने के लिए झूठे वादों की जरूरत नहीं थी। भारतीयों को जरूरत थी वास्तवकिता से रूबरू होने की। लोगों को जरूरत थी कि प्रधानमंत्री हफ्ते में नहीं, तो कम से कम एक पखवाड़े में उनसे मुखातिब हों, ताकि वो अगले कुछ महीनों के लिए तैयारी कर सकें, अपने संसाधन बचाकर रखें, सतर्क बने रहें और कोविड के मरीजों को कलंकित न करें लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इनमें से किसी की परवाह नहीं की। वो आज भी प्रेस कॉन्फे्रंस का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस लंबे और बिना सोचे-समझे लॉकडाउन ने, देश को सीधे-सीधे एक आर्थिक समस्या में धकेल दिया है और बीमारी तथा पैसे की तंगी दोनों के हिसाब से सबसे बुरी तरह गरीब लोग ही प्रभावित हुए हैं। भारत में जो मजदूर संकट सामने आया, उसे पूरी दुनिया ने देखा। इसके ऊपर हो रही सियासत भी घिनौनी रही है। गरीबों की मुसीबतों पर देर से जागना और उनका असहयोग प्रधानमंत्री मोदी का एक अंदाज रहा। नोटबंदी से पैदा हुई अव्यवस्था के दौरान, नरेंद्र मोदी की खामोशी की मिसाल देते हुए उनके आलोचक इसकी अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन उनके समर्थकों ने मजदूरों के इस संकट को, अपरिहार्य बताकर नजरअंदाज कर दिया। लेकिन सच्चाई यही है कि लॉकडाउन के खराब ढंग से अमल में लाने से, लोगों की मौतें हुई हैं और इसे महामारी के दौरान, अनिवार्य कोलेटरल डैमेज बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। कोविड के खिलाफ लड़ाई में, भारत के अलावा किसी भी देश में, इतने बड़े पैमाने पर गरीबों को, भूख या साधनों की कमी से मरते नहीं देखा गया। भारत अपने गरीबों को किसी सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे रहा है और इसके लिए किसे जिम्मेदार होना चाहिए? खुद पीड़ितों मोदी समर्थक आपको यकीन दिला देंगे कि ये गरीबों की ही गलती थी, जो घर लौटने की कोशिश में मारे गए। वो अपेक्षा करते हैं कि गरीब लोग जहां पर हैं, वहीं जमे रहें, भले ही उन्हें किराए की उनकी झोपड़ियों से निकाल दिया गया हो, या उनके पास खाने को कुछ ना हो। ऐसे समय में पीड़ितों को ही बड़े पैमाने पर शर्मसार किया जाना, एक शैतानी हरकत थी।
पैकेज का जादुई आंकड़ा
आज की एकमात्र पीआर रणनीति है आत्मनिर्भर भारत की शब्दों की पहेली। लेकिन पहले से ही रेंग रहे व्यवसाइयों से कहना कि वो उठ खड़े हों और मोदी सरकार की ओर से पेश किए गए 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज से लोन लेकर अपने धंधे फिर से चालू करें, ना सिर्फ एक छल है बल्कि उदासीनता से भी भरा है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल 2020 में भारत में 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोजगार गंवाए, जिनमें से अधिकतर मजदूर और छोटे व्यवसायी थे। और अगर आमतौर पर ये माना जाता है कि सिर्फ गरीब लोग प्रभावित हैं, तो ये दोहराया जाना चाहिए कि सीएमआईई के अनुमान के मुताबिक अप्रैल 2020 में 1.8 करोड़ कारोबारी लोग भी अपने धंधे से बाहर हो गए। असल में इस महामारी में आर्थिक रूप से सबसे अधिक प्रभावित महिलाएं हुई हैं, जिनमें से असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली बहुत सी महिलाएं अब बेरोजगार हैं। इसके अतिरिक्त, 23.3 प्रतिशत पुरुष और 26.3 प्रतिशत महिला कर्मचारियों ने अपने जॉब गंवा दिए हैं, खासकर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, जहां फैक्ट्रियां और औद्योगिक जोन्स स्थित हैं। आंकड़े बताते हैं कि 46 प्रतिशत महिलाओं ने, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को वोट दिए थे।
सरकारी दावे निकले झूठे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महज 4 घंटे के नोटिस में पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की थी। इस कारण जो जहां थे वहीं थम गए। लॉकडाउन के कारण जिस तबके को सबसे बड़ी समस्या झेलनी पड़ी, वह प्रवासी मजदूर तबका था जो अपने गृहराज्य से दूसरे राज्य में काम की तलाश में गया था। जाहिर सी बात है, कोरोना के डर से ज्यादा देश के गरीबों को भूख से मरने का डर था। यही कारण था कि प्रवासी मजदूरों ने पहले ही लॉकडाउन को तोड़ते हुए तीसरे दिन से ही चहलकदमी शुरू कर दी थी। हजारों की संख्या में मजदूरों ने पैदल ही अपने घरों के लिए सैकड़ों किलोमीटर की लंबी यात्रा करनी शुरू की। इस दौरान कई मजदूरों और उनके छोटे-छोटे बच्चों ने भूख और थकान के कारण अपनी जान भी गंवाई। कईयों की रोड एक्सीडेंट में जान चली गई। दुधमुहे बच्चों से लेकर गर्भवती महिलाओं तक, जवान मजदूरों से लेकर बुजुर्गों तक ने भूख और सरकार पर अति अविश्वास के कारण यह यात्रा शुरू की।
जब सरकार ने इन मजदूरों को डंडे के जोर पर रोकने की कोशिश की तो कहीं-कहीं मजदूर और पुलिस के बीच टसल की खबरें भी आईं। पिटते, मार खाते जैसे-तैसे इनकी स्वकार्यवाहियों के आगे सरकार को झुकना पड़ा और लॉकडाउन के ठीक 37 दिन बाद प्रवासी मजदूरों के लिए यातायात के लिए श्रमिक ट्रेन की व्यवस्था करनी पड़ी। जिसे लेकर कहा गया कि मजदूरों को ट्रेन से मुफ्त उनके गृह राज्य पहुंचाया जाएगा। जिसे लेकर केंद्र से लेकर राज्य सरकारें किराए को लेकर आए दिन अपना-अपना हिसाब समझाने में लगी रहती थी। उस समय भारतीय लोग समझ तो रहे थे कि सरकार मजदूरों से किराया वसूल रही है, लेकिन सरकारें अपनी पीठ थपथपा रही होती थीं। जिस कारण कन्फ्यूजन की स्थिति बनी रही, लेकिन अब धीरे-धीरे सरकार के लॉकडाउन का हिसाब सामने आ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने देरी की
स्वान के सर्वे में कहा गया कि 28 मई को सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों की घर वापसी की यात्रा के खर्चे को लेकर निर्देश दिया था जो काफी देर में दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 28 मई को कहा था कि राज्य सरकारें मजदूरों के घरवापसी की यात्रा का खर्च उठाएगी। यह निर्देश श्रमिक ट्रेन खुलने के 28 दिन बाद और लॉकडाउन लगने के 65 दिन बाद लिया गया। इस पर यह समझने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश भी मात्र औपचारिक तौर पर दिया। जाहिर है, इतनी देर में अधिकतम जाने वाले मजदूर अपने गृह राज्य की तरफ निकल चुके थे। या तो वह पैदल अपने घर चले गए थे या रेल, बस व अन्य माध्यमों से खर्चा करके। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सिर्फ खुद के दामन को साफ करने के लिए दिया, ताकि आगे उनके ऊपर उंगली न उठ सके। यह सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्त होने पर भी सवाल खड़ा करते हैं कि सिर्फ प्रवासी मजदूरों के किराया में देरी से निर्देश ही नहीं, बल्कि देश में जब सबसे नीचे गरीब मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर हमला हो रहा था, पुलिस लाठियों-डंडों से उन पर ताबड़तोड़ हमला कर रही थी, उस समय सुप्रीम कोर्ट इस पूरे प्रकरण में मूक बनकर देखती रही।
झूठे वादों की कलह खुली
इस रिपोर्ट के अनुसार यह समझ आता है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकारें मजदूरों को लेकर सिर्फ राजनीति करती रहीं। पहले से ही बेहाल मजदूरों को और परेशान किया गया। फटेहाल मजदूरों से ट्रेन का किराया वसूला गया और मीडिया में आकर सरकारें मजदूरों को लेकर झूठे दावे ठोंकती रहीं। जबकि हकीकत उलट है। पहले तो मजदूरों को लंबे समय तक जबरन डंडे के दम पर भूखे, प्यासे रोका गया। 37 दिन बाद ट्रेन व्यवस्था खोली भी गई, तो इसे मजदूरों के लिए इतना जटिल और खर्चीला बनाया गया कि उनके लिए 'कंगाली में आटा गीला’ वाली बात हो गई। अधिकतम मजदूर, जिन्हें श्रमिक ट्रेन के लिए आवेदन करना नहीं आता था, उन्हें अपने ठेकेदार या जानकार से पैसे देकर आवेदन करवाना पड़ा। उसके बाद जैसे-तैसे उनमें से सक्षम मजदूर ट्रेन तक पहुंचने में कामयाब भी हुए तो उनसे किराया वसूल किया जाने लगा।
मजदूरों के किराया देने की स्थिति के बाद भी उन्हें ट्रेन में भोजन, पानी की आधारभूत सुविधाओं से वंचित किया गया। कई मजदूरों ने रेलवे प्रशासन द्वारा ट्रेन में बासी (खराब) खाना दिए जाने की शिकायत भी की। वहीं कई ट्रेनें अपने रास्तों से भटकती भी पाई गईं। जिसके भीतर भूख और प्यास से मजदूरों के मरने की खबर भी आई। सरकार ने देश के गरीबों को बुरे समय में उनके हाल पर यूं ही मरने के लिए छोड़ा। बचीखुची पाईपाई तक उनसे ली। सरकार ने ट्रेन व्यवस्था शुरू करते हुए कहा था कि मजदूरों से किसी प्रकार का किराया वसूल नहीं किया जाएगा। लेकिन मजदूरों के हाथो में रेल की टिकटें और स्वान की रिपोर्ट ने यह दिखा दिया है कि सरकार के ये सारे दावे फर्जी साबित हुए।
चुनौतियों से निपटने लायक नीति
एक कहावत है, पहला सुख निरोगी काया। लेकिन राज्यों के एजेंडे में स्वास्थ्य कभी प्राथमिकता में नहीं दिखा। जन स्वास्थ्य कभी चुनावों में बड़ा मुद्दा बनकर नहीं उभरा, जिस कारण राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा-पत्र में जन स्वास्थ्य को उतनी तरजीह कभी नहीं दी, जितनी देनी चाहिए थी। देश की आम जनता स्वास्थ्य के मसले पर ज्यादा जागरूक नहीं है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक वर्ग में यह अहसास कि स्वास्थ्य सेवा सामान्यत: मतदाताओं के लिए कोई प्राथमिकता नहीं है, इस क्षेत्र की सबसे बड़ी चुनौती है। जब तक नागरिक उन मुद्दों के प्रति संजीदा नहीं होता, तब तक राजनीतिक दल उस मुद्दे को वोट बैंक का जरिया नहीं मानते हैं।
भारत में स्वास्थ्य देखभाल के खस्ताहाल ढांचे से जुड़े आंकड़े समस्या की गंभीरता की ओर इशारा करते हैं। देश में 135 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए सिर्फ 26 हजार हॉस्पिटल हैं यानी 47 हजार लोगों पर केवल एक सरकारी हॉस्पिटल है। करीब 30 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टर नहीं हैं और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में विशेषज्ञों के करीब 70 प्रतिशत पद खाली हैं। देश में 63 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक भी ऑपरेशन थिएटर नहीं है, 29 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव कक्ष नहीं है। इससे भारत में जन स्वास्थ्य तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। इस समस्या से निजात पाने के लिए एमबीबीएस डॉक्टरों की अनिवार्य ग्रामीण पोस्टिंग की जाए तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर व्यय कर देते हैं। इस वजह से हर साल लगभग 4 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती है। एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 80 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास न तो कोई सरकारी स्वास्थ्य स्कीम है और न ही कोई निजी बीमा। ऐसी स्थिति में आबादी के बड़े हिस्से के लिए सरकारी स्वास्थ्य एकमात्र विकल्प बचता है। ऐसे में समय की मांग है कि जनस्वास्थ्य सुविधाओं को राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में घोषित किया जाए और इसको बजट में ऊपर का स्थान दिया जाए, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं में उन्नतिशील संस्थाओं को आॢथक सहायता प्रदान की जा सके।
स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया जाए तथा स्वास्थ्य के विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन करने की दिशा में केंद्र सरकार को आगे बढ़ना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर की शुरुआत की जा सकती है। इसके माध्यम से कुछ विशिष्ट, समर्पित एवं प्रशिक्षित लोगों को चुना जा सकेगा, जो स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर सकेंगे। सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं के मानवीकरण, वित्तीय प्रबंधन, स्वास्थ्य सामग्री प्रबंधन, तकनीकी विशेषज्ञता एवं आवश्यक सामाजिक निर्धारकों की प्राप्ति में मदद मिलेगी।
छोटे उद्योगों पर अधिक संकट
वर्तमान वित्तीय वर्ष के लिए संयुक्त राष्ट्र ने आंकलन किया है कि भारत की जीडीपी विकास दर 1.2 प्रतिशत सकारात्मक रह सकती है। इसके विपरीत वित्तीय सेवाएं प्रदान करने वाली वैश्विक संस्था ब्लूमबर्ग ने ऋणात्मक (-)0.4 प्रतिशत, फिच, स्टैंडर्ड एंड पूअर एवं इकरा नामक रेटिंग एजेंसियों ने (-)5 प्रतिशत, पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने (-)10 प्रतिशत और ग्लोबल कंसल्टेंसी संस्था आर्थर बी लिटिल ने (-)11 प्रतिशत रहने का आंकलन किया है। अधिकतर विद्वानों की सहमति (-)5 प्रतिशत पर दिखती है। अन्य लोगों के आंकलन में गिरावट इससे भी अधिक हो सकती है। इस वर्ष फरवरी में जीएसटी की वसूली 105 हजार करोड़ रुपए हुई थी। अप्रैल में 30 और मई में 60 हजार करोड़ रुपए की वसूली बताई जा रही है। इन दो माह में 71 प्रतिशत और 43 प्रतिशत गिरावट हुई है। वर्तमान संकेतों के अनुसार जून में गिरावट का दौर जारी है। मई में 2.54 करोड़ ई-वे बिल जारी हुए थे जिन पर 60 हजार करोड़ रुपए की जीएसटी की वसूली हुई। 1 से 10 जून तक 87 लाख ई-वे बिल जारी हुए। इस रफ्तार से पूरे जून में 2.61 करोड़ ई-वे बिल जारी होने की संभावना है। इसके आधार पर जून में जीएसटी की वसूली 62 हजार करोड़ रुपए होने के आसार हैं जो फरवरी के मुकाबले (-)41 प्रतिशत होगी। मान लें कि जुलाई में सुधार हो जाएगा और केवल (-)20 प्रतिशत की गिरावट होगी और अगस्त 2020 से मार्च 2021 तक विकास दर शून्य रहे तो भी पूरे वर्ष का औसत (-)14.6 प्रतिशत गिरावट का रहेगा। अगस्त 2020 से मार्च 2021 की विकास दर को शून्य मानने का कारण यह है कि पिछले 4 वर्षों में हमारी जीडीपी विकास दर लगातार गिर रही है। वर्ष 2017 में यह 10 प्रतिशत थी, 2018 में 8 प्रतिशत, 2019 में 5 प्रतिशत और 2020 में मात्र 4 प्रतिशत रह गई। वर्तमान संकेतों के अनुसार कोरोना का प्रकोप जुलाई तक रहने का अंदेशा है।
दूसरा दौर भी आने की आशंका
चूंकि प्रकोप का दूसरा दौर भी आने की आशंका है इसलिए अगस्त के बाद विकास दर सकारात्मक रहने की संभावना कम ही है और हम इसे शून्य मान सकते हैं। जीएसटी के अनुपात में ही जीडीपी में भी परिवर्तन हो रहा है। 2019 और 2020 के बीच जीएसटी की वसूली में 3.6 प्रतिशत वृद्धि हुई थी, जबकि जीडीपी में 4 प्रतिशत की। अत: 2020-21 में जीएसटी की वसूली में (-)14.6 प्रतिशत गिरावट से जीडीपी में भी इतनी ही गिरावट आ सकती है। रेटिंग एजेंसियों का मानना है कि जीडीपी में गिरावट अल्पकालीन होगी और अगस्त के बाद आर्थिक विकास चल पड़ेगा। कोरोना संकट की अवधि को पार करने के लिए सरकार ने जो अतरिक्त ऋण लिए हैं उस पर ब्याज अगस्त के बाद की राजस्व में तीव्र वृद्धि से अदा कर दिया जाएगा। इस आंकलन में सरकार पिछले चार वर्षों से विकास दर में आ रही गिरावट को अनदेखा कर रही है।
चूंकि गिरती अर्थव्यवस्था को कोरोना ने एक बड़ा झटका दिया है ऐसे में इसमें संदेह है कि अगस्त के बाद हमारी अर्थव्यवस्था पुन: तीव्र गति से बढ़ने लगेगी। यदि यह मान भी लें कि इस पूरे वर्ष में जीडीपी की गिरावट केवल
(-)5 प्रतिशत होगी तो भी हमें तैयारी (-)15 प्रतिशत की करनी चाहिए। संकट को कम नहीं आंकना चाहिए। बीते चार वर्षों में जीडीपी विकास दर में गिरावट का सिलसिला नोटबंदी से शुरू हुआ। नोटबंदी, जीएसटी और अब कोरोना के कारण छोटे उद्योगों पर अधिक संकट आया है। इनके संकटग्रस्त होने से अर्थव्यवस्था में रोजगार कम बने और मांग भी कम हो गई। मांग कम होने से बड़े उद्योग भी संकट में आ गए हैं। इसलिए सरकार को छोटे उद्योगों पर विशेष ध्यान देना होगा। उन्हेंं ऋण देने से काम नहीं चलेगा। उनकी मुख्य समस्या बाजार में बड़े उद्योगों से प्रतिस्पर्धा है।
इस रात की सुबह कब?
हर देश अपने तरीके से कोविड-19 से लड़ रहा है, लेकिन उनकी सफलता का पैमाना अलग-अलग है। दक्षिण कोरिया ने भले इस पर काफी हद तक काबू पा लिया, लेकिन इटली जैसे देशों में उच्च मृत्यु दर देखी जा रही है। कोई भी देश यह नहीं कह पा रहा है कि यह महामारी कब खत्म होगी। अधिकांश देश लंबे समय तक नए केस आने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं और सामाजिक दूरी जैसे तरीकों का उपयोग करके मामलों की संख्या कम कर रहे हैं। यह स्वास्थ्य प्रणाली को अत्यधिक बोझ से बचाने में मदद करती है, लेकिन लंबे समय में मामलों को फैलाता भी है। एक और तरीका है, सामूहिक प्रतिरक्षा को बढ़ाना। इसमें वायरस को अपने प्राकृतिक तरीके से फैलने दिया जाता है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग संक्रमित होकर वायरस के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लें। लेकिन, ये तरीका भयावह है और इसे खारिज कर दिया गया है। ये ज्यादातर तब अपनाया जाता है जब बीमारी से बचाव के लिए कोई टीका होता है। लेकिन, कोविड-19 का टीका न होने के कारण, यह समस्या न केवल स्वास्थ्य प्रणाली पर बोझ डाल सकती है, बल्कि मृत्यु दर भी बढ़ा सकती है।
मप्र में सिर्फ 1220 आईसीयू
मध्यप्रदेश में कोरोना मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय व चिकित्सा विज्ञानियों ने भी अनुमान लगाया है कि कोरोना का संक्रमण जून-जुलाई में सबसे ज्यादा होगा। इसी तरह से मरीज बढ़ते रहे तो राजधानी भोपाल समेत प्रदेशभर में गंभीर मरीजों के इलाज में मुश्किल आ सकती है। इसकी वजह यह है कि प्रदेश की साढ़े सात करोड़ की आबादी के लिए अस्पतालों के आईसीयू में सिर्फ 1220 बिस्तर ही उपलब्ध हैं। इसमें निजी और सरकारी दोनों अस्पताल शामिल हैं। मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए प्रदेश सरकार 1189 बिस्तर आईसीयू में और बढ़ाने की तैयारी कर रही है। ऑक्सीजन वाले साधारण बेड 12 हजार से बढ़ाकर 20 हजार किए जाएंगे। मरीज अचानक बढ़े तो गंभीर मरीजों के इलाज में मुश्किल आएगी। राज्य सरकार के हेल्थ बुलेटिन के अनुसार 15 मई को प्रदेश में कुल संक्रमित 4595 थे। इनमें 2073 इलाजरत (एक्टिव मरीज) थे। 14 जून की स्थिति में 10802 संक्रमित हो चुके हैं, इनमें इलाजरत मरीजों की संख्या 2666 हो गई है। यानी 28 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। भोपाल में इलाजरत मरीज 15 मई को 336 थे जो 14 जून को 733 हो गए। यानी 118 फीसदी बढ़ोतरी हुई। इंदौर में मरीजों की संख्या कम होने लगी है, पर भोपाल में हर दिन 50 से ज्यादा मरीज मिल रहे हैं। इसके बाद भी यहां चिरायु मेडिकल कॉलेज (निजी), एम्स और हमीदिया अस्पताल में मिलाकर सिर्फ 156 आईसीयू बेड उपलब्ध हैं। प्रदेश की 22 लैब में अभी हर दिन करीब 6 हजार सैंपलों की जांच की जा रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जुलाई तक 10 हजार सैंपल की जांच रोजाना करने को कहा है। इसके लिए सभी लैब की क्षमता बढ़ाई जा रही है। सैंपल से आरएनए अलग करने के लिए स्वचलित मशीनें लगाई जा रही हैं। अभी 6 हजार सैंपलों की जांच में 150 से 200 मरीज संक्रमित मिल रहे हैं। जांच बढ़ने पर रोजाना यह आंकड़ा 250 से 300 के बीच पहुंच सकता है।
निजी अस्पतालों में महंगा पड़ रहा कोरोना का इलाज
कोरोना पीड़ित मरीजों के लिए निजी अस्पतालों में बेड की व्यवस्था तो हो गई है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग की ओर से शुल्क तय नहीं करने का खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ रहा है। निजी अस्पताल अपने हिसाब से शुल्क तय कर रहे हैं। इसकी वजह से कई मरीज यहां इलाज से वंचित हो रहे हैं। निजी अस्पतालों का कहना है कि कोरोना के मरीजों के लिए इलाज की व्यवस्था की लागत बहुत अधिक है। इसकी वजह से शुल्क भी अधिक हैं। पूर्वी दिल्ली में निजी अस्पतालों में सबसे बड़े पटपड़गंज स्थित मैक्स अस्पताल में जनरल वार्ड के लिए प्रतिदिन का शुल्क 25 हजार रुपए रखा गया है। इसके अलावा महंगी दवा, जांच आदि का शुल्क अलग से देना होगा। इसका शुल्क औसतन 10 से 15 हजार रुपए प्रतिदिन पड़ सकता है। अगर मरीज को कमरा चाहिए तो उसके लिए 30,490 रुपए देने होंगे। बिना वेंटिलेटर के आईसीयू का शुल्क 53,050 रुपए रखा गया है। इसी तरह अगर वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है तो मरीज को 72,550 रुपए प्रतिदिन देने होंगे। अन्य खर्च भी जोड़ दें तो वेंटिलेटर का खर्च औसतन 90 हजार रुपए प्रतिदिन पड़ सकता है। वहीं देशभर में कोरोना की जांच की जो फीस तय की गई है उतनी तो देश में करोड़ों लोगों की मासिक आय भी नहीं होगी। देश में कोरोना की जांच की फीस 4500 रुपए रखी गई है। अस्पताल में किसी भी बीमारी का इलाज कराने पहुंच रहे मरीज का सबसे पहले कोरोना टेस्ट हो रहा है और उससे 4500 रुपए वसूला जा रहा है। कोरोना वायरस की आड़ में देश में एक नया गोरखधंधा शुरू हो गया है।
भारत में आर्थिक असमानता का सच उजागर किया?
महान दार्शनिक रूसो ने कहा था कि 'कोई भी नागरिक कभी भी इतना समृद्ध नहीं होना चाहिए कि वह दूसरे नागरिक को खरीद सके, और कोई भी नागरिक इतना गरीब नहीं होना चाहिए कि वह खुद को बेचने को मजबूर हो जाए।’ पर बीते समय में कोरोना वायरस का भारत और विश्व पर प्रहार इतना क्रूर था कि मानवीय संवेदनाओं के यह सिद्धांत उलट गए। भारत में कोरोना का पहला मरीज 30 जनवरी को केरल में मिला। तब से अब तक साढ़े चार माह के समय में तैयारियों का आंकलन करें तो यह तैयारियां बढ़ती जरूरतों से कम दिखती हैं। नतीजतन प्रतिदिन कोरोना के करीब 10,000 से अधिक मामले आ रहे हैं। शुरुआत में यह वायरस आयातित था और ज्यादातर मामले सिर्फ विदेशों में पढ़ाई या दूसरे देशों से लौटे व्यवसायी वर्ग के लोगों में दिख रहे थे किन्तु आज स्थिति बदली हुई है और संक्रमण का स्वभाव भी। वायरस के संक्रमण का चरित्र बदला और अब ये हर वर्ग तक पहुंच गया। यह स्थिति और भयावह है क्योंकि ये मजदूर वर्ग के लोग हैं जो अनौपचारिक सेक्टर में कार्यरत हैं और सघन क्षेत्रों में निवास करते हैं, जिससे दो गज की दूरी का पालन करना असंभव प्रतीत होता है। भारत में टीबी और पोलियो ऐसी दो बीमारियां हैं, जिनकी शुरुआत संपन्न वर्ग से हुई किन्तु निम्न और मध्यम वर्ग इन बीमारियों से आज भी जूझ रहा है।
- राजेंद्र आगाल