मप्र में पंचायत चुनाव का बिगुल बज चुका है और नगरीय निकाय चुनाव की चौसर सजने लगी है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां निकाय और पंचायत चुनाव में अपनों को जिताकर मिशन-2023 की राह आसान करना चाहती है। इसके लिए भाजपा और कांग्रेस ने पूरी तरह कमर कस ली है। भाजपा अपने 17 साल के विकास, तो कांग्रेस 15 माह के शासन के आधार पर मिशन-2023 की तैयारी कर रहीं हैं। लेकिन दोनों की अग्निपरीक्षा पंचायत और निकाय चुनाव में होनी है।
मप्र में 2023 में विधानसभा चुनाव होना है। भाजपा की कोशिश है कि इस चुनाव में वह कांग्रेस को आधा सैकड़ा सीट भी न जीतने दे। वहीं कांग्रेस 2018 की तरह भाजपा को मात देकर सत्ता में वापसी करना चाहती है। इसके लिए पिछले एक साल से शह-मात का खेल जारी है। दोनों पार्टियां मिशन-2023 के लिए खूब मेहनत कर रही हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव होने में अभी 15 माह का समय बाकी है। ऐसे में दोनों पार्टियों की चुनावी तैयारी का आंकलन प्रदेश में होने वाले पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में हो जाएगा। सत्ता का सेमीफाइनल कहे जाने वाले इन चुनावों में जनता यह संकेत दे देगी कि 2023 में वह किसके साथ जाएगी। इसके लिए दोनों पार्टियों ने प्रदेश के सबसे बड़े वोटबैंक ओबीसी को साधने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का भरपूर सहारा लिया है। अपनी रणनीतियों के सहारे दोनों पार्टियां चुनावी रण में एक-दूसरे को पटखनी देने के लिए कमर कस चुकी हैं।
तय होगी मिशन-2023 की रूपरेखा
प्रदेश में पंचायत चुनाव भले ही पार्टी आधारित नहीं होते हैं, लेकिन टिकट पार्टियां ही तय करती हैं। इसलिए प्रदेश में होने वाले पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव को सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। प्रदेश में 25 जून, 1 जुलाई और 8 जुलाई को पंचायत चुनाव के लिए मतदान होंगे और 14 और 15 जुलाई को मतगणना होगी। इससे जो तस्वीर निकलकर सामने आएगी, वह मिशन-2023 की रूपरेखा तय करेगी। गौरतलब है कि मप्र में पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी को नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में आरक्षण मिल गया, लेकिन इससे आंकड़े नहीं बदलेंगे। लगभग तय है कि आरक्षण 14 प्रतिशत ही होगा। तो क्या आंकड़ों की तरह राजनीतिक समीकरण भी अप्रभावित होंगे? बिलकुल नहीं, बल्कि पूरे केंद्र में ही यही 14 प्रतिशत आरक्षण का खेल है। कांग्रेस के 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग के जवाब में जब भाजपा सरकार ने 35 प्रतिशत आरक्षण की मांग पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग के माध्यम से उठा दी थी, तभी संकेत मिलने लगे थे कि हकीकत से अधिक तपिश दावों में होगी। अर्थात् दोनों दलों को संकेत मिल चुके थे कि यदि ओबीसी को आरक्षण मिला भी तो 50 प्रतिशत की बाध्यता में ये 14 प्रतिशत से अधिक होने वाला नहीं है। ऐसे में हकीकत से आगे बढ़कर दावों की नौबत आ गई। हालांकि कांग्रेस दावों के मामले में ही नहीं, बल्कि आरोप-प्रत्यारोप में भी पीछे छूटती दिखी। यदि कांग्रेस अब इसका विरोध करती है, तो पार्टी के लिए सियासी जोखिम से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। भाजपा पहले से इन चुनावों में ओबीसी को आरक्षण में बाधा और चुनाव में देरी का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ती रही है। इधर, कांग्रेस ने तथ्यों के आधार पर प्रतिक्रिया में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई।
भाजपा की स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में बेहतर मानी जाती रही है। ऐसे में प्रबल संभावना है कि पहले नगरीय निकायों के चुनाव कराए जाएं, इसके बाद पंचायतों के लिए चुनाव हों। इस स्थिति को लेकर कांग्रेस की तैयारियों की चुनौती बढ़ जाएगी। चूंकि नगरीय निकाय और पंचायत के चुनाव टलते-टलते विधानसभा चुनाव के करीब आ गए हैं, तो इसका प्रभाव मिशन-2023 को भी प्रभावित करेगा ही। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस चुनाव तो नगरीय निकायों का लड़ेंगी, लेकिन नजरें विधानसभा चुनाव पर होंगी।
ओबीसी आरक्षण घटा
परिसीमन के बाद भले ही त्रिस्तरीय पंचायत में सीटें बढ़ गई हैं, पर पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीटें कम हुई हैं। पिछले चुनाव में जिला पंचायत सदस्य की 841 सीटें थीं, जो इस बार बढ़कर 875 हो गई हैं, लेकिन ओबीसी आरक्षण घट गया। 2014-15 के चुनाव में ओबीसी के लिए 168 सीटें आरक्षित थीं, जो इस बार घटकर 98 रह गईं। इसी तरह सरपंच पद के आरक्षण में पिछड़ा वर्ग को नुकसान हुआ है। पंच पद की रिपोर्ट आनी बाकी है और जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए आरक्षण की प्रक्रिया 31 मई को भोपाल में संपन्न हुई। पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने सुप्रीम कोर्ट से राज्य पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की पिछड़ा वर्ग के प्रतिवेदन के आधार पर आरक्षण की प्रक्रिया पूरी कराई। 25 मई को देर रात तक आरक्षण की प्रक्रिया चली। जिला पंचायत सदस्य के लिए हुए आरक्षण में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 140, अनुसूचित जनजाति के लिए 231 और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 98 आरक्षित की गई हैं।
406 सीट अनारक्षित हैं यानी किसी भी वर्ग का व्यक्ति इन पर चुनाव लड़ सकता है। 2014-15 के चुनाव में जिला पंचायत में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 136, अनुसूचित जनजाति के लिए 222, अन्य पिछड़ा वर्ग 168 और अनारक्षित सीटें 315 थीं। इसी तरह सरपंच पद के लिए अभी तक संचालनालय को 22 हजार 424 पंचायतों की जानकारी प्राप्त हुई है। इसमें 3 हजार 302 अनुसूचित जाति, 7 हजार 837 अनुसूचित जनजाति, 2 हजार 821 अन्य पिछड़ा वर्ग और 8 हजार 562 अनारक्षित वर्ग के लिए निर्धारित हुई है। हालांकि, कुछ जिलों से रिपोर्ट आनी अभी बाकी है। वहीं, पिछले चुनाव को देखें तो कुल 22 हजार 607 सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 3 हजार 248, अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए 7 हजार 812, अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 4 हजार 76 और अनारक्षित 7 हजार 471 सरपंच के पद थे। इस प्रकार भले ही ओबीसी के लिए अधिकतम 35 प्रतिशत तक सीटें आरक्षित करने की व्यवस्था लागू की गई हो, पर इसका फायदा होता नजर नहीं आ रहा है। जनपद पंचायत के अध्यक्ष पद के लिए अभी आरक्षण की प्रक्रिया पूरी हो गई है। 313 पदों में से 41 अनुसूचित जाति, 115 अनुसूचित जनजाति और 30 अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित हैं। 127 पद अनारक्षित हैं। एससी, एसटी, ओबीसी एकता मंच के प्रदेश अध्यक्ष लोकेंद्र गुर्जर का कहना है कि पिछले चुनाव में 56 जनपद पंचायत अध्यक्ष के पद आरक्षित थे। उधर, ओबीसी आरक्षण को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा कि हमारे पास कई शिकायतें आ रही हैं। अन्याय तो हुआ है, पर हम चाहते हैं कि अब पंचायत चुनाव हो। मेरी अपील है कि यदि थोड़ी बहुत कमी रह गई है तो इसको अदालत के मामलों में न फंसाएं, जनता के बीच जाना चाहिए।
निकाय चुनाव 2023 का लिटमस टेस्ट
प्रदेश में निकाय चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं। सूबे की नगर निगमों के महापौर को पार्षद नहीं बल्कि अब सीधे जनता चुनेगी। शिवराज सरकार बकायदा अध्यादेश लेकर आई है। मेयर का चुनाव सीधे जनता से कराने के फैसले के बाद निकाय चुनाव को 2023 के विधानसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है, जहां पर कांग्रेस और भाजपा के लिए असल इम्तिहान होगा? प्रदेश में साल 2003 से मेयर का चुनाव जनता के द्वारा चुने जाने का नियम लागू था, लेकिन साल 2018 में कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी थी तो मेयर का चुनाव पार्षदों के माध्यम से कराने का फैसला ले लिया था। यही वजह थी कि शिवराज सरकार ने राज्य निकाय चुनाव की संभावनाएं बनते ही मेयर का चुनाव सीधे जनता से कराने के लिए सक्रिय कदम उठाया है। प्रदेश में कुल 16 नगर निगम हैं जबकि 100 नगर पालिकाएं और 264 नगर पंचायतें हैं। वहीं, ग्राम पंचायतों की संख्या 23 हजार से कुछ ज्यादा हैं। मप्र में भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, सागर, रीवा, उज्जैन, खंडवा, बुरहानपुर, रतलाम, देवास, सिंगरोली, कटनी, सतना, छिंदवाड़ा और मुरैना में नगर निगम हैं। निकाय चुनाव 2019 में ही होने थे, लेकिन परिसीमन और फिर आरक्षण के चलते चुनाव टलते रहे। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद अब चुनाव की संभावना बनी है, जिसके चलते सियासी सरगर्मियां बढ़ गई हैं।
साल 2023 के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन अब उससे पहले निकाय चुनाव में कांग्रेस और भाजपा की परीक्षा होनी है। ऐसे में नगर निगम के मेयर का चुनाव सीधे जनता के द्वारा होना है। कांग्रेस 2019 में सत्ता में होने के कारण अप्रत्यक्ष चुनावों के जरिए अधिकांश नगरीय निकायों को कब्जाने के लिए फायदों की आस में थी, लेकिन अब सत्ता में बैठी भाजपा ने जनता के पाले में गेंद डाल दी है। कांग्रेस-भाजपा को दोनों ही दलों को निकाय चुनाव में जीत का परचम फहराने के लिए जनता के बीच अब जाना होगा। इस निकाय चुनाव के बाद ही विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके चलते दोनों ही दल किसी तरह का कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि निकाय चुनाव के नतीजों का असर विधानसभा चुनाव पर भी पड़ना लाजमी है। देखना है कि निकाय चुनाव में किसका दबदबा रहता है?
महापौर की दौड़ में माननीय भी कूदे
मप्र में होने वाले चुनावों को लेकर भाजपा सहित कांग्रेस भी बड़ी मुश्किल में फंस गई है। चुनावों को लेकर जहां एक ओर वैसे ही दोनों पार्टियों में तनाव बना हुआ था, वहीं अब खुद के विधायक ही इन दोनों पार्टियों के लिए बड़ी परेशानी का विषय बनते दिख रहे हैं। दरअसल प्रदेश में महापौर पद के लिए टिकटों की खींचतान बढ़ती जा रही है। सबसे अहम ये कि विधायकों का इस पद के लिए दबाव बढ़ रहा है। इसमें भाजपा संगठन फिलहाल विधायकों को प्रारंभिक तौर पर टिकट देने के पक्ष में नहीं है, लेकिन 4 प्रमुख शहरों में से 3 शहरों में विधायकों की दावेदारी ज्यादा है। वहीं, कांग्रेस को विधायकों को टिकट देने में कोई ऐतराज नहीं है। हालांकि जयपुर चिंतन के तहत एक पद-एक व्यक्ति के फॉर्मूले से उलझन की स्थिति है। इसलिए इस मामले में भी आगे निर्णय पर पेंच है। दरअसल, विधायकी से ज्यादा महापौर पद को पसंद करने के पीेछे सीधे चुनाव में महापौर पद का जलवा है। पूरे नगर निगम के बजट पर महापौर का अधिकार रहता है। उस पर सियासी तौर पर भी भोपाल-इंदौर जैसे शहरों का महापौर विधायकों से ज्यादा रूतबा व वजनदारी रखता है। सीधे तौर पर महापौर जिले-निगम का प्रथम नागरिक हो जाता है।
महापौर पद के लिए भाजपा में विधायकों की दावेदारी का सबसे ज्यादा जोर भोपाल-इंदौर में है। ग्वालियर में भी समीकरण विधायकों के जरिए प्रभावित हो रहे है। भोपाल से कृष्णा गौर, इंदौर से सुदर्शन गुप्ता और रमेश मेंदोला की दावेदारी है। खनिज निगम के पूर्व अध्यक्ष गोविंद मालू भी दावेदारी कर रहे हैं। ग्वालियर में विधायकों से ज्यादा पूर्व मंत्रियों की दावेदारी है। यहां से पूर्व मंत्री माया सिंह टिकट की दावेदारी में हैं। जबलपुर में भाजपा विधायक अजय विश्नोई की भी महापौर पद के लिए दावेदारी उभरी है, लेकिन सत्ता-संगठन दोनों उन पर सहमत नहीं है। महापौर पद के लिए कांग्रेस इंदौर से संजय शुक्ल का नाम घोषित कर चुकी है। यह नाम जयपुर चिंतन के पहले से घोषित है। अब चिंतन के बाद एक पद-एक व्यक्ति का फॉर्मूला है। इस कारण एक ही पद पर कोई नेता रह सकेगा। इस लिहाज से कांग्रेस अब जबलपुर या ग्वायिलर में इस फॉर्मूले को आजमाने में झिझक रही है। ग्वालियर में कमलनाथ संगठन के ही चेहरे को टिकट देने के पक्ष में हैं। दूसरी ओर, जबलपुर में विधायक के तौर पर तरुण भनोत और विनय सक्सेना का नाम भी महापौर पद के लिए पार्टी में उभरा है।
भाजपा संगठन 50 साल से ज्यादा उम्र और विधायक-सांसद पद वाले नेता को टिकट देने के पक्ष में नहीं है। हालांकि अभी इस पर निर्णय नहीं हुआ है, लेकिन प्रारंभिक तौर पर पार्टी में इस पर चर्चा हुई है। साथ ही पार्टी को यही सुझाव भी निकाय चुनाव कमेटी की बैठकों के दौरान मिले हैं। भाजपा के पास विकल्प भी बहुत है, इस कारण वह विधायक-सांसदों से हटकर नई पीढ़ी को टिकट देने के पक्ष में है। अगले हफ्ते टिकट के मापदंड तय हो जाएंगे। दूसरी ओर कांग्रेस ने सर्वे करके जीत के चेहरे के तौर पर टिकट देने का फॉर्मूला रखा है। पार्टी जयपुर चिंतन के बाद जरूर विधायक-सांसदों को टिकट देने के पक्ष में नहीं है। इसका असर आगे के टिकट वितरण पर नजर आएगा। भाजपा में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान टिकट वितरण में असरदार नजर आते हैं। संगठन के लिए सबसे बड़ी चुनौती केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे को साधना है। ग्वालियर-चंबल में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर खेमे का संतुलन भी रखना होगा। वहीं, हर अंचल में क्षत्रपों को साधने की चुनौती है। कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का खेमा असरदार है। कांग्रेस में इन दोनों के सामने क्षत्रपों को साधने की चुनौती नहीं है, पर गोविंद सिंह, अरुण यादव, अजय सिंह, जीतू पटवारी जैसे नेताओं की पसंद-नापसंद को तरजीह दी जा सकती है। फिलहाल पार्टी समन्वय और संतुलन की राह पर आगे बढ़ रही है।
जो जिताए उसी को टिकट
कांग्रेस ने निकाय चुनाव में प्रत्याशी चयन के मापदंड तय कर दिए हैं। इसमें दो ही कसौटी पर उम्मीदवार परखे जाएंगे। एक वह जो क्षेत्र में जीतने वाला लोकप्रिय चेहरा हो और दूसरा वह जो पार्टी का खांटी और कट्टर कार्यकर्ता हो। प्रदेश संगठन ने साफ कर दिया है कि इसके अलावा किसी मापदंड पर विचार नहीं होगा। टिकट चयन के लिए जिले से लेकर प्रदेश कांग्रेस तक जिम्मेदारियां भी तय कर दी गई हैं। यह भी कहा गया है कि 50 प्रतिशत महिलाओं के मामले में भी क्राइटेरिया का पालन हो। आरक्षण के हिसाब से महिला उम्मीदवारों के चयन में लगनशील, सक्रिय एवं उस क्षेत्र में लोकप्रिय चेहरों को टिकट दिया जाए। जिला कांग्रेस कार्यालय में कंट्रोल रूम बनाया जाएगा। पीसीसी में प्रदेशभर के 52 जिलों के 313 विकासखंड का कंट्रोल रूम होगा जहां से पीसीसी चीफ समेत उनकी टीम निगरानी करेगी। एक वरिष्ठ उपाध्यक्ष के नेतृत्व में पूरे प्रदेश की स्थिति पर नजर रखी जाएगी। कोशिश की जाएगी कि प्रत्याशियों के बीच आम सहमति बन जाए। जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए कांग्रेस समर्थित प्रत्याशियों को जिताने की कोशिश की जाएगी। प्रत्याशी का चयन और अच्छे परिणाम की जिम्मेदारी जिला अध्यक्षों एवं स्थानीय नेताओं को सौंपी गई है।
पार्षद प्रत्याशियों का चयन जिला स्तर पर गठित समिति द्वारा किया जाएगा। समिति अपने सदस्यों से गोपनीय सर्वे कराकर निर्णय लेंगी। समितियां सर्वानुमति से प्रत्याशियों का नाम तय कर सूची पीसीसी को भेजेंगी। प्रत्येक जिले के लिए एक वरिष्ठ नेता को प्रभारी मनोनीत किया जाएगा। 9 संभागीय प्रभारी भी बनाए गए हैं। नगर निगम, नगरपालिका और नगर परिषद में 27 प्रतिशत टिकट ओबीसी को दिए जाएंगे। नगर निगम में प्रत्याशी चयन समिति के अध्यक्ष शहर एवं जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहेंगे। वहीं सांसद एवं लोकसभा प्रत्याशी 2019, जिले के विधायक, नगर निगम नेता प्रतिपक्ष समिति के सदस्य होंगे।
उधर, भाजपा ने प्रत्याशी चयन के लिए पहले ही तैयारी कर ली है। अब पार्टी का पूरा फोकस पंचायत और निकाय चुनावों के माध्यम से मिशन-2023 पर है। वैसे तो भाजपा ने मार्च 2020 से ही विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं, इसके लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा निरंतर सक्रिय हैं और सत्ता और संगठन को सक्रिय रखे हुए हैं। पार्टी ने लक्ष्य बनाकर पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव का खाका तैयार किया है। पार्टी का पूरा फोकस 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव को जीतकर सत्ता में बने रहने पर है।
आरक्षण से बिगड़ा गणित
भोपाल नगर निगम के वार्ड आरक्षण ने भाजपा-कांग्रेस के कई नेताओं के समीकरण और गणित दोनों बिगाड़ दिया है। अब वे अपने वार्ड से चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। इसलिए नई जमीन तलाश रहे हैं। मां-पत्नी या अपने रिश्तेदारों को भी मैदान में उतारने का प्लान बना रहे हैं। इनमें पूर्व निगम अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष जैसे बड़े नेता भी शामिल हैं। नगर निगम के 85 वार्डों के लिए आरक्षण की प्रक्रिया 25 मई को हो चुकी है। इससे पूरी तस्वीर बदल गई है। खासकर ओबीसी के वार्डों के रिजर्वेशन ने नेताओं का समीकरण गड़बड़ा दिया है। वहीं, कई नेताओं के समीकरण बने भी हैं। यही कारण है कि रविंद्र भवन के ऑडिटोरियम में जब रिजर्वेशन हो रहा था, तब कोई खुशी से झूम रहा था तो किसी के चेहरे पर मायूसी देखने को मिली थी। कई दिग्गज नेता अब दूसरे वार्ड से चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे हैं। हालांकि, यह किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है, क्योंकि कम समय में वार्डवासियों के बीच पैठ जमाना और पार्टी की अंदरूनी कलह भी रहेगी। भाजपा के सुरजीत सिंह चौहान पिछले निगम परिषद में अध्यक्ष रह चुके हैं। वे वार्ड 51 से पार्षद हैं। यह वार्ड अब अनारक्षित महिला के हिस्से में चला गया है। ऐसे में चौहान के परिवार से कोई महिला चुनाव में उतर सकती हैं, या फिर उन्हें दूसरे वार्डों की ओर रूख करना पड़ेगा। वार्ड 31 से कांग्रेस पार्षद रहे अमित शर्मा अब 33 नंबर वार्ड से चुनाव लड़ेंगे। वार्ड-31 ओबीसी (महिला) कैटेगिरी के हिस्से गया है। भाजपा से रविंद्र यति, शंकर मकोरिया, मनोज राठौर, महेश मकवाना, सरोज जैन, जगदीश यादव, रामबाबू पाटीदार, गणेशराम नागर, गिरीश शर्मा, तुलसा वर्मा, कृष्णमोहन सोनी, मनोज चौबे जैसे कई नेताओं के समीकरण भी गड़बड़ा गए हैं। पूर्व नेता प्रतिपक्ष मोहम्मद सगीर, शहवार मंसूरी, रईसा मलिक, मोहम्मद सऊद, अब्दुल शफीक समेत कई कांग्रेसियों के वार्ड भी बदल गए हैं।
इंदौर में ओबीसी के वार्ड 21 से हुए 18
नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए आरक्षण की प्रक्रिया पूरी हो गई है। इंदौर नगर निगम के कुल 85 में से 34 वार्ड आरक्षित किए गए हैं। जिस ओबीसी आरक्षण के चलते यह सब हुआ वहां ये हुआ कि ओबीसी के वार्ड पहले 21 थे, मगर आरक्षण के बाद 18 रह गए। इसी तरह महिलाओं के लिए 42 वार्ड आरक्षित हुए। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से चुनावों की हलचल तेज हुई थी। सुप्रीम कोर्ट व नगरीय प्रशासन विभाग के निर्देश पर इंदौर जिला प्रशासन ने देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी ऑडिटोरियम में आरक्षण की प्रक्रिया पूरी की। शहर के कुल 85 वार्डों का आरक्षण हुआ। 13 वार्ड अनूसचित जाति और 3 वार्ड अनुसूचित जनजाति के लिए वर्ष 2020 में आरक्षित थे। लॉटरी के माध्यम से अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 18 वार्ड आरक्षित किए गए। अजा-अजजा वार्ड में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं के लिए वार्ड आरक्षित हुए। इधर आरक्षण के कारण पिछली निगम में सभापति सहित सभी एमआईसी सदस्यों के वार्डों में आरक्षण की स्थिति बदल गई है। नगर निगम के साथ जिला पंचायत के 17 वार्डों, इंदौर, सांवेर, महू, देपालपुर जनपद अध्यक्ष और वार्डों का आरक्षण हुआ। कलेक्टर मनीष सिंह की उपस्थिति में यूनिवर्सिटी सभागृह में बैठे जनप्रतिनिधियों व पूर्व पार्षदों ने वार्ड आरक्षण की प्रक्रिया के दौरान लॉटरी के माध्यम से पर्चियां निकाली। निगम चुनाव में महिला प्रतिभागियों के 50 प्रतिशत पद आरक्षित किए गए हैं। ऐसे में 85 वार्ड में से 42 वार्ड में महिलाएं लड़ेंगी। वार्ड आरक्षण की प्रक्रिया के दौरान सभागृह में ज्यादातार सामान्य व पिछड़ा वर्ग के पूर्व पार्षद व जनप्रतिनिधि मौजूद थे। आरक्षण प्रक्रिया को देखने के लिए कांग्रेस व भाजपा नेता भी पहुंचे थे। वार्ड आरक्षण लॉटरी की पर्चियां उठाने के लिए कई लोग एक साथ मंच पर पहुंचे तो कलेक्टर ने सबको आने से रोका और एक-एक करके नाम व पहचानकर लोगों को पर्चियां उठाने के लिए मंच पर बुलाया। इसमें कुछ जनप्रतिनिधि तो कुछ आम लोगों ने भी पर्चियां उठाई। लॉटरी शुरु होने से पहले एडवोकेट जयेश गुरनानी के कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए आरक्षण प्रक्रिया पर आपत्ति ली। इस पर अपर कलेक्टर अभय बेड़ेकर ने उन्हें अपनी आपत्ति मंच पर आकर देने को कहा।
ग्वालियर की स्थिति
ग्वालियर में प्रस्तावित त्रि-स्तरीय पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव के लिए वार्ड आरक्षण और जनपद पंचायत अध्यक्षों एवं जिला पंचायत के वार्ड (जिला पंचायत सदस्य निर्वाचन क्षेत्र) आरक्षण की कार्रवाई की गई। कलेक्ट्रेट ऑफिस में जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की निगरानी में बॉक्स में पर्चियां डालकर वार्ड व पंचायतों का आरक्षण किया गया है। जिसके बाद शहर में काफी रोचक स्थिति बन गई है। जो वार्ड पहले सामान्य थे वह ओबीसी हो गए हैं। ओबीसी को पहले 17 वार्ड मिल रहे थे, लेकिन बदलाव के बाद 20 वार्ड मिले हैं वहीं यूआर (अनारक्षित वर्ग) को जहां पहले 37 वार्ड मिले थे उनको अब 34 ही वार्ड मिले हैं। शहर के 66 वार्ड में से 33 वार्ड सभी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गए हैं।
66 वार्ड की स्थिति
एससी के आरक्षित वार्ड- 23, 28, 16, 22, 37, 61, 11, 60, 36, 39, 17
एसटी के लिए आरक्षित वार्ड- 6
ओबीसी को मिले यह वार्ड- 12, 35, 50, 59,02, 31, 48,63, 64,62, 38, 24, 56, 04, 09, 15, 10, 27, 65,21
यूआर के लिए यह रहे वार्ड- 01, 03, 05, 07, 08, 13, 14, 18, 19, 20, 25, 26, 29, 30, 34, 33, 32, 40, 41, 42, 43, 44, 45, 46, 47, 49, 51, 52, 53, 54, 55, 57, 58, 66
महिलाओं के लिए 33 वार्ड
ओबीसी, यूआर के आरक्षण में बदलाव हुआ है। इसके साथ ही महिलाओं को 66 वार्ड में से 33 वार्ड में प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा। अनारक्षित वर्ग को 34 वार्ड मिले हैं, इनमें से 17 वार्ड महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं। वहीं ओबीसी को 20 वार्ड मिले हैं उनमें से 10 महिलाओं के लिए हैं। एसटी में एक सीट है वह सामान्य है, जबकि एससी के लिए 11 वार्ड हैं और उनमें से 6 महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं।
बदल गए समीकरण
नगरीय निकाय चुनाव में भाग्य आजमाने के सपने देखने वाले कुछ लोगों को नए आरक्षण से झटका लगा है। जैसे एसटी में पहले 6 वार्ड फीमेल थे, लेकिन इस बार सामान्य हो गए। इसके साथ ही ओबीसी को 3 वार्ड ज्यादा मिलने से 3 वार्ड में सामान्य प्रत्याशी का समीकरण गड़बड़ा गया है। जनपद पंचायत मुरार का अध्यक्ष पद अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित हुआ है। जनपद पंचायत घाटीगांव (बरई) के अध्यक्ष का पद अनारक्षित महिला, जनपद पंचायत डबरा के अध्यक्ष का पद अनारक्षित और जनपद पंचायत भितरवार के अध्यक्ष का पद अनुसूचित जाति महिला के लिए आरक्षित हुआ है।
जबलपुर में आरक्षण की तस्वीर साफ
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद जिले में आरक्षण की पूरी प्रक्रिया पूरी हो गई। नगर निगम जबलपुर में ओबीसी की एक सीट आबादी की तुलना में अधिक रिजर्व हुई। अब वार्ड नंबर 51 रविंद्रनाथ टैगोर ओबीसी हो गई। शहर के सभी 79 वार्डों में 21 वार्ड ओबीसी के लिए आरक्षित हो गई हैं। इसी के साथ जिला पंचायत के सभी 17 वार्डों, जनपद पंचायत अध्यक्षों के पदों की तस्वीर भी साफ हो चुकी है। नगर निगम जबलपुर में अभी ओबीसी आरक्षण 25 प्रतिशत के हिसाब से 20 सीट पर मिला था। जबकि आबादी के मुताबिक जिले में ओबीसी की संख्या 26.58 प्रतिशत है। इस कारण एक सीट बढ़ाई गई। उप जिला निर्वाचन अधिकारी नम: शिवाय अरजरिया के मुताबिक निर्देशों के अनुसार एससी-एसटी के प्रकरण व महिला आरक्षण में कोई परिवर्तन नहीं होना था। जहां आबादी के अनुसार ओबीसी के पद घट या बढ़ रहे हैं, वहां आरक्षण होना था। जबलपुर में एससी के 11, एसटी के 4, ओबीसी के 20 और सामान्य महिला 22 व सामान्य 22 सीटों का आरक्षण किया गया था। एक सीट ओबीसी की बढ़ाई जानी थी, जो सामान्य से ली गई। सामान्य के 22 वार्डों में 9 वार्ड पिछली बार ओबीसी के लिए आरक्षित थी। इस कारण 13 वार्डों से ही एक वार्ड का चयन किया गया। मानस भवन में अधिकारियों और सामान्य लोगों की मौजूदगी में वार्ड नंबर 8, 11, 16, 32, 34, 35, 39, 40, 42, 51, 55, 56, 73 की पर्ची डाली गई। लॉटरी सिस्टम से एक पर्ची निकलवाई गई, तो वार्ड क्रमांक 51 रविंद्रनाथ टैगोर ओबीसी में आरक्षित हुई।
राजेंद्र आगाल