रूस और यूके्रन के बीच छिड़ी जंग के चलते इस साल के शुरुआती महीनों में भारत समेत पूरी दुनिया में खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ी हैं। विडंबना यह है कि आपसी लड़ाई में शामिल ये दोनों देश दुनिया के एक बड़े हिस्से को गेहूं, मक्का और सूरजमुखी की आपूर्ति करते हैं। 17 मई, 2022 को जारी आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, भारत की थोक मुद्रास्फीति अप्रैल में बढ़कर 15.08 फीसदी हो गई, जो मार्च में 14.55 फीसदी थी। देश में ईंधन और खाद्य-पदार्थों के दाम बढ़ने से खुदरा महंगाई की दर भी पिछले 8 सालों में सबसे ज्यादा दर्ज की गई है। खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ने का सबसे ज्यादा असर देश के सबसे कमजारे तबके पर पड़ रहा है। इसकी झलक पूर्वी राजस्थान की सीमा से लगे मप्र के शिवपुरी जिले के 6 गांवों मेें तब देखने को मिली। इन सारे गांवों में सहरिया आदिवासी लोग रहते हैं, जिन्हें सरकार ने 'खासतौर से संवदेनशील आदिवासी समुदायÓ के तौर पर वर्गीकृत कर रखा है। इस समुदाय के लोग शिवपुरी समेत मप्र के करीब 8 जिलों में रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी आबादी 6,14,958 है।
सहरिया आदिवासी लंबे समय से भयंकर गरीबी और कुपोषण का सामना कर रहे हैं। अब खाद्य-पदार्थों के दामों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी के चलते दालों और सब्जियों जैसी बुनियादी चीजें उनकी पहुंच से बाहर हो रही हैं। वे महीने के ज्यादातर दिनों में इनके बगैर गुजारा कर रहे हैं। जिसके चलते उनके अस्तित्व पर खतरा और बढ़ गया है। उदाहरण के लिए अशरपी आदिवासी को लें। मोहरा गांव की अशरपी ने 11 मई को दिन की पहली खुराक ली थी। उन्होंने आम के अचार के साथ दो रोटियां खाई थीं। अचार के लिए कच्चे आम उनका बच्चा पास के जंगल से लाया था। उनके पति शंकर कहते हैं- 'अचार का स्वाद अच्छा नहीं है लेकिन हम हर दिन सूखी रोटियां तो नहीं खा सकते। इसलिए उनके साथ जो मिलता है, वो खा लेते हैं।Ó अशरपी और उसके परिवार को रोटी के साथ सब्जी दो दिन पहले खाने को मिली थी, जब उन्होंने प्याज को भूनकर उसकी सब्जी बनाई थी। उसके पहले उन्होंने चने की दाल बनाई थी, जिसके लिए चने राजस्थान में रहने वाले उनके माता-पिता ने दिए थे। उस दिन उन्होंने रोटियों के साथ वह दाल खाई थी।
अशरपी कहती हैं,- 'उस दिन मैं अपने माता-पिता से मिलने गई थी तो मेरी भाभी ने जोर देकर कहा कि मैं अपने परिवार को खिलाने के लिए थोड़ी सी दाल ले जाऊं।Ó अशरपी को याद नहीं है कि पिछली बार कब उन्होंने पूरा खाना खाया था, जिसमें पोषण वाली सब्जी भी शामिल थी, केवल आलू-प्याज या दालें नहीं। उन्होंने बताया कि घर में खाने वाली कोई चीज नहीं है। दूसरे गांव, कोल्हापुर की रहने वाली राजधनी तीन महीने की गर्भवती थीं। गांव में किसी के यहां शादी होने के कारण उस दिन उन्हें कई दिनों के बाद दोनों वक्त का खाना मिला था।
हालांकि वह ठीक से तो याद नहीं कर पाईं, लेकिन करीब 20-25 दिन पहले उन्हें दोनों वक्त का खाना खाने को मिला था। उन्होंने कहा कि हमारे पास खाने को कुछ नहीं है। राजधनी बताती हैं कि दो साल पहले जब उनका पहला बच्चा होने वाला था, तो उन्हें दोनों वक्त की खुराक मिल जाती थी। वे कहती हैं - 'मुझे भूख महसूस नहीं होती।Ó ये वे शब्द हैं, जो आप यहां किसी भी सहरिया को कहते सुनेंगे, खासकर महिलाओं को। यह शब्द, उस समुदाय को बार-बार याद दिलाते हैं कि उसने कठोर हकीकत को स्वीकार कर लिया है, कुपोषित होना जिसकी नियति बन चुकी है। इन गांवों के लोग सब्जी के नाम पर केवल आलू-प्याज बना सकते हैं, वह भी एक सप्ताह में केवल कुछ बार। दाल भी वे महीने में केवल 4-5 बार खा पाते हैं, उसमें भी खासकर चने की दाल।
राजधनी के गांव के ही रहने वाले 52 साल के सियाराम कहते हैं- 'पहले हम रोज तो नहीं, लेकिन सप्ताह में कुछ दिन लौकी, करेला और भिंडी पका लेते थे, लेकिन अब ये सब्जियां भी 60 रुपए किलो के करीब हैं। अब हम केवल आलू खरीदते हैं।Ó गांव के लोग जंगल से जंगली सब्जियां भी तोड़ते हैं लेकिन वे मानसून के बाद ही उगेंगी। 2017 में, मप्र सरकार ने खासतौर से आदिवासी समुदायों के लिए एक योजना शुरू की थी। इस योजना के तहत एक परिवार को सब्जियों, दूध और फलों के लिए हर महीने एक हजार रुपए मिलते थे। हालांकि इन 6 गांवों में से हर किसी ने यही बताया कि उन्होंने 2-3 महीने पहले ही ये राशि लेना बंद कर दिया।
भूखे हैं कई पेट
धान, गेहूं, सरसों और आलू की बुआई व कटाई के समय सहरिया समुदाय के लोग मप्र के अलग-अलग हिस्सों, राजस्थान और उप्र में खेतिहर मजूदर के रूप में काम करने के लिए जाते हैं। बाकी बचे 6-7 महीनों के दौरान, वे अपनी कमाई से जीने की कोशिश करते हैं या फिर अपने गांवों में काम खोजने की कोशिश करते हैं। मई के महीने के दौरान उनमें से कई लोग कई तेंदूपत्ते तोड़ते हैं। हालांकि बाकी बचे तमाम लोगों के आजीविका के स्रोत सीमित हैं। सियाराम के परिवार में 12 लोग हैं, जिनमें 5 साल से कम उम्र के तीन छोटे बच्चे शामिल हैं। इन सभी को महीने में कम से कम 10-12 दिनों के लिए गेहूं की सूखी रोटियों से ही काम चलाना पड़ता है। आदिवासियों के घरों में आजकल राशन के नाम पर केवल गेहूं है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत हर परिवार को महीने में 35 किलो राशन मिलता है, जिसमें 25 किलो गेहूं और दस किलो चावल होते हैं। आठ लोगों का परिवार चलाने वाले शंकर ने कहा,-'हमारा गेहूं 10-12 दिनों में खत्म हो जाता है। खाने को चावल भी मिलता है, लेकिन उसे खाकर लगता ही नहीं कि कुछ खा भी रहे हैं। उसके साथ हम और क्या खाएं।Ó इनमें से ज्यादातर लोगों को सरकारी दुकान से चीनी, नमक और मिट्टी के तेल जैसी अन्य वस्तुएं नहीं मिलती हैं, जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत उन्हें मिलनी चाहिए।
- बृजेश साहू