मप्र में शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार मुख्यमंत्री बनकर इतिहास रच दिया है। भाजपा को अबकी बार सत्ता कांग्रेसियों की आपसी फूट के कारण मिली है। 2018 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने भाजपा को नकार दिया था। इसकी एक वजह यह थी कि भाजपा की 15 साल पुरानी सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। खुद शिवराज सिंह चौहान पर कई आरोप थे। ऐसे में अब सवाल उठता है कि क्या इस बार शिवराज सिंह चौहान अपने ऊपर लगे दाग धो पाएंगे?
गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छोड़ते वक्त शिवराज ने कहा था कि 'टाइगर जिंदा है, लौटकर जरूर आऊंगा’। अपनी कही हुई बात को सच साबित करते हुए मध्यप्रदेश के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करते हुए प्रदेश की सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली है। 2005 से 2018 तक लगातार 13 साल में तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह ने 23 मार्च को रात 9 बजे राजभवन में चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस तरह शिवराज सिंह के मध्यप्रदेश के 32वें मुख्यमंत्री बनने के साथ ही प्रदेश के इतिहास में ये पहली बार हुआ है, जब किसी ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। प्रदेश में शिवराज सिंह के अलावा अब तक अर्जुन सिंह और श्यामाचरण शुक्ल तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सत्ता संभालते ही शिवराज सिंह चौहान के सामने चुनौतियों का पहाड़ है।
वर्तमान समय में देश और दुनिया कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझ रही है। ऐसे में शिवराज के सामने प्रदेश को इस संक्रमण से बचाने की चुनौती है। इस चुनौती से पार पाते ही उनके सामने आर्थिक तंगी होगी। इस स्थिति में शिवराज को अपनी क्षमता प्रदर्शित करने का अवसर मिलेगा। साथ ही अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर लगे भ्रष्टाचार और अपने ऊपर लगे दाग को धोने की भी चुनौती रहेगी। गौरतलब है कि अगस्त 2019 में शिवराज सिंह चौहान ने जब राज्य में बिगड़ती कानून-व्यवस्था को लेकर कमलनाथ की सरकार पर हमला किया था कि मेरा मध्यप्रदेश ऐसा नहीं था, आपने मध्यप्रदेश को तबाह और बर्बाद कर दिया है। उस पर कमलनाथ ने कहा था कि आपकी सरकार के समय लगे दागों को धोने में लगा हूं। आखिर वे कौन-से दाग थे, जिन्हें धोने की बात पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने की थी। आज यह सवाल प्रदेश की जनता के मन में उठ रहा है।
अगर कांग्रेस के आरोपों की मानें तो भाजपा के पूर्व के 15 साल के शासनकाल में 197 बड़े घपले-घोटाले हुए थे। इनमें से कुछ के छींटे शिवराज सिंह चौहान और उनके परिजनों पर भी पड़े थे। इनमें डंपर कांड, अवैध रेत खनन, व्यापमं, परिवहन आरक्षक भर्ती, नर्मदा किनारे पौधरोपण, ई-टेंडरिंग, मंदसौर किसान गोलीकांड ऐसे मामले थे जिसने सरकार की साख गिरा दी थी। वहीं शिवराज सिंह चौहान द्वारा अधिकारियों-कर्मचारियों के एक वर्ग को खुश करने के लिए 'कोई माई का लाल’ कहना, अधिकारियों को चमगादड़ की तरह टांग देना ये ऐसे मामले हैं जो इस बार भी शिवराज के लिए चुनौती बनेंगे। विपक्षी कांग्रेस ही नहीं जनता भी चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान से जवाब मांगेगी, कि उन्होंने इसके लिए क्या किया।
अलग तरीके की सरकार कैसी?
शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही कहा था कि अब तक प्रदेश में जिस तरह सरकार चल रही थी आगे उस तरह नहीं चलेगी। मैं अलग तरीके से सरकार चलाऊंगा। ऐसे में हर एक के मन में यह सवाल उठ रहा है कि वह अलग तरीके की सरकार कैसी होगी। क्योंकि प्रदेश की साढ़े सात करोड़ आबादी ने उन्हें 13 साल सरकार चलाते देखा है। उस समय उनके शासन में ऐसा कुछ अलग नजर नहीं आया जिससे यह कहा जा सके कि उनकी शासन प्रणाली अलग तरह की रही है। एक बात जरूर है कि इस बार उनको सत्ता वोट देने वाले न सही, वोट लेने वालों के ही दम पर मिली है। यानि कांग्रेस के बागियों के कारण वे मुख्यमंत्री बन पाए हैं।
तीसरी पारी जैसी न हो सरकार
उमा भारती और बाबूलाल गौर के आधे-अधूरे वाले कार्यकाल के दौर में जब शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता संभाली थी, तब लग रहा था कि भाजपा को सरकार चलाना ही नहीं आता। क्योंकि जब शिवराज ने मुख्यमंत्री पद पाया उस समय उनके पास प्रशासनिक अनुभव नगण्य था। वे मुख्यमंत्री जैसे बड़े संवैधानिक पद पर सीधे आए थे। लेकिन उन्होंने सारे कयासों को दरकिनार कर मुख्यमंत्री के रूप में ऐसी सियासी पारी का आगाज किया जो सुखद रही और उन्हें एक लंबी रिकार्डतोड़ पारी खेलने का मौका मिला। जाहिर है वह सब उनकी योग्यता, सहजता, जनता से करीबी और मेहनत का नतीजा था। शुरू के 8 साल का वह समय वाकई एक सच्चे जन प्रतिनिधि के कामकाज का अनुभव कराने में सफल रहा था। यही वजह रही कि शिवराज के चेहरे के कारण ही राज्य की जनता ने लगातार तीसरी बार यहां भाजपा की सरकार बनने का रास्ता साफ किया था। लेकिन उनकी तीसरी पारी ऐसी बिगड़ी कि वह लगातार बिगड़ती चली गई।
शिवराज सरकार की तीसरी पारी में बड़े-बड़े भ्रष्टाचार उजागर होने लगे। खुद मुख्यमंत्री और उनके नाते-रिश्तेदारों पर आरोप लगने लगे। इस दौरान शिवराज सिंह चौहान में एक दंभ भी नजर आया। वे मध्यप्रदेश ही नहीं देशभर में जहां भी जाते उनके भाषणों में अहंकार झलकने लगा था। आलम यह था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कई बार मुख्यमंत्री, सरकार और नौकरशाहों की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए। लेकिन अब सरकार के मुखिया के ही कदम बहक गए हों तो सरकार और नौकरशाह कैसे नहीं बहकते। इसका परिणाम यह हुआ कि 2018 के विधानसभा चुनाव में जनता ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
माई का लाल भूले नहीं लोग
शिवराज सिंह चौहान के तीसरे कार्यकाल में कई अप्रिय घटनाएं हुईं, जिसने उस जनता के अंतस को झंकझोर दिया जो उन पर आंख बंद करके भरोसा करती थी। शिवराज सिंह चौहान को अपने बीच का व्यक्ति समझने वाली जनता उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी। जो शिवराज बिना भेदभाव के हर जन को अपना समझते थे उन्होंने वोट बैंक की खातिर यह बोल दिया कि कोई माई का लाल...। उनके इस कथन से प्रदेश में आक्रोश इस कदर पनपा कि लोग अपने दोस्त को भी दुश्मन समझने लगे। शिवराज ने चौथी बार सत्ता संभाली है तो उन्हें एक बार वक्त निकालकर 'कोई माई का लाल...’ वाला वीडियो जरूर देखना चाहिए। क्योंकि प्रदेश की जनता माई का लाल भूली नहीं है।
यही नहीं उन्हें अपने पिछले पांच साल के कार्यकाल का एक बार स्मरण जरूर करना चाहिए। जिससे यह साफ हो जाएगा कि उनके इर्द-गिर्द किस तरह के लोगों की टोली कुण्डली मारकर बैठी थी। जिनके सुझाव पर शिवराज सिंह चौहान ने ऐसी घोषणाएं की, जो पूरी तो नहीं हुईं, लेकिन उनकी साख गिरा गईं। यही नहीं इस दौरान उन्हें अपनी छवि चमकाने के लिए खजाना लुटाने का शौक कुछ इस कदर चढ़ा कि वे प्रदेश को लगभग पौने 2 लाख करोड़ रुपए के कर्ज में डुबो गए थे। हद तो तब हो गई, जब खुद को किसान पुत्र बताकर गौरवान्वित होने वाले शिवराज के शासनकाल में मंदसौर में किसानों को गोली खानी पड़ी। यही नहीं इस दौरान किसानों को खुश करने के लिए शुरू की गई भावांतर योजना का हश्र भी देखना होगा। जिससे उन्हें सबक मिलेगा कि उन्होंने अपने आखिरी पांच साल किस तरह शासन किया।
5 साल जनता की नहीं सुनी
शिवराज सिंह चौहान ने चौथी पारी में अलग तरीके की सरकार चलाने की बात तो कही है, लेकिन उन्हें अपने आखिरी पांच साल के शासनकाल का भी अध्ययन करना चाहिए। इस दौरान उन्होंने जनता की एक नहीं सुनी और अपने चहेतों के चंगुल में फंसे रहे। इस दौरान एक तरफ उन्होंने नर्मदा नदी के संरक्षण के लिए नर्मदा परिक्रमा की, दूसरी तरफ नर्मदा में खुलेआम अवैध खनन होता रहा। आलम यह था कि चौहान लिखे डंपर रात-दिन रेत लेकर दौड़ रहे थे, लेकिन उन्हें रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। अगर कोई अधिकारी उन डंपर को रोक देता था तो उसका तत्काल तबादला हो जाता था। नर्मदा की छाती पर जेसीबी रात-दिन चलती रही और वे दावे करते रहे कि नर्मदा में अवैध खनन बिल्कुल नहीं हो रहा है।
शिवराज सिंह चौहान की साख अपने साले संजय सिंह मसानी के कारण भी गिरी। कांग्रेसी नेता बताते हैं कि जब शिवराज सांसद थे और वे साउथ एवेन्यू में रहते थे, उस वक्त मसानी के पास केवल दो टैक्सी थीं। शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार में संजय का दखल बढ़ गया था। सूत्र यह भी बताते हैं कि रेत और बॉक्साइट के खनन के कारण वे चर्चा में आए। बताया जाता है कि बालाघाट में संजय के संरक्षण में जमकर अवैध खनन हुआ। लेकिन बाद में यही संजय शिवराज सिंह चौहान को धोखा दे गए। इसलिए शिवराज सिंह चौहान को अपनी चौथी पारी में जहां अपने पूर्व के दाग धोने की चुनौती है वहीं एक ऐसी सरकार चलाने का उदाहरण भी देना होगा जिससे लोग उनकी पुरानी गलतियों को भूल सकें। हालांकि वर्तमान में उनके सामने कोरोना वायरस से निपटने की चुनौती है और वे इस दिशा में बेहतरीन काम कर रहे हैं।
ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे
फिल्म शोले का गीत 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर पर सटीक बैठता है। दोनों के बीच दोस्ती का ही परिणाम है कि शिवराज सिंह चौहान को चौथी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई। दरअसल, मध्यप्रदेश की राजनीति में एक समय शिवराज और तोमर की जोड़ी काफी चर्चित थी। शिवराज सिंह चौहान के शासनकाल में नरेंद्र सिंह तोमर दो बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। इन दोनों नेताओं में जितना सामंजस्य दिखा उतना अन्य किसी नेता में नहीं दिख पाया है। दोनों की जोड़ी ने प्रदेश में कई चुनाव और उपचुनाव आसानी से जीते हैं। ऐसे में जब कांग्रेस की सरकार जाने के बाद मप्र के मुख्यमंत्री की दौड़ शुरू हुई तो दावेदारों की कतार लग गई। इस दावेदारी में नरेंद्र सिंह तोमर स्वयं भी थे। लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने अपने मित्र शिवराज सिंह चौहान का नाम आलाकमान के सामने प्रस्तुत कर दिया।
शिवराज ही क्यों?
15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस 15 माह में ही सत्ता से बाहर हो गई। इसकी वजह यह रही कि एक तरफ जहां कांग्रेस में शुरू से फूट रही, वहीं दूसरी तरफ भाजपा उनके बीच की खाई को और बढ़ाती रही। कांग्रेसियों के बीच लगातार बढ़ती खाई को बढ़ाने और उसे और गहरी करने में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने पाले में लाकर सत्ता पलट कर दी। लेकिन जब सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठने की बारी आई तो लॉटरी शिवराज सिंह चौहान के नाम लग गई। दरअसल, प्रदेश में मुख्यमंत्री के लिए नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय, राकेश सिंह और शिवराज सिंह चौहान दावेदार बताए जा रहे थे। लेकिन आलाकमान ने शिवराज के नाम पर मुहर लगा दी। दरअसल, शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं उनमें विरोधियों को साधने की अपूर्व क्षमता है। वे मिलनसार नेता हैं। साथ ही जो अन्य नेता सीएम पद के दावेदार थे, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था जिनका पूरे प्रदेश में जनाधार हो। यही नहीं विपक्ष में होने के बाद भी शिवराज लगातार सक्रिय रहे। आलाकमान द्वारा केंद्रीय संगठन में उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद भी उन्होंने मप्र से मुंह नहीं मोड़ा। वे संघ की पसंद भी हैं। सबसे बड़ी बात शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता, राजनीतिक और सामाजिक समीकरण ने उनका साथ दिया और अब वो चौथी बार प्रदेश के सीएम बने। मध्य प्रदेश में उनका बड़ा जनाधार है। कमलनाथ सरकार में रहे जिन 22 कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफे दिए हैं उन पर अभी उपचुनाव होना है। जबकि 2 सीटों आगर मालवा और जौरा सीट का उपचुनाव पहले से प्रस्तावित है। ऐसे में उपचुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए शिवराज जैसा लोकप्रिय चेहरा सामने होना जरूरी है। शिवराज का नाम तय होने की एक वजह जातिगत समीकरण भी माना जा रहा है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष पद पर अभी ब्राह्मण और सामान्य वर्ग से क्रमश: वीडी शर्मा और नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव हैं। इसलिए सामान्य वर्ग के सीएम पद के संभावित नाम नरेंद्र सिंह तोमर और नरोत्तम मिश्रा पर मुहर लगना मुश्किल था। शिवराज सिंह चौहान ओबीसी वर्ग से आते हैं। इन्हीं सब कारणों ने शिवराज की राह आसान कर दी। शिवराज को मुख्यमंत्री बनाए जाने की एक और वजह है कोरोना वायरस का संकट। प्रदेश का खजाना खाली है, ऐसे में शिवराज सिंह चौहान भलीभांति जानते हैं कि किस तरह इस संकट की घड़ी में काम किया जा सकता है। वे इस संकट से निपटने के लिए जुट गए हैं और औद्योगिक घरानों से इस संकट की घड़ी में सहयोग करने की अपील कर चुके हैं।
अधर में मंत्रिमंडल!
मप्र की सत्ता पर शिवराज सिंह चौहान काबिज होने में कामयाब हो गए हैं, लेकिन मंत्री बनने की चाहत रखने वाले विधायकों और नेताओं को करीब एक महीने तक इंतजार करना पड़ सकता है। देश में कोरोना के बढ़ते खतरों को देखते हुए 14 अप्रैल तक पूरी तरह से लॉकडाउन है। ऐसे में शिवराज का कैबिनेट गठन लॉकडाउन खत्म होने के बाद ही संभव है। उधर, मंत्री बनने की आस लगाए बैठे नेताओं में बेचैनी बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण के मामले मध्य प्रदेश में भी तेजी से आ रहे हैं। राज्य में अब तक कोरोना वायरस से 64 लोग पीड़ित हैं और 5 लोगों की मौत हो गई है। इसके अलावा सूबे में जिस तरह से कोरोना संक्रमण के मामले पिछले दिनों में सामने आए हैं। इससे शिवराज सरकार की चिंता बढ़ गई। ऐसे में शिवराज सरकार की पहली प्रथामिकता कोरोना वायरस को हराना है न कि मंत्रिमंडल का गठन और विस्तार।
शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा था, मेरे और भाजपा की सरकार के सामने फिलहाल मध्य प्रदेश में सबसे बड़ी चुनौती कोरोना वायरस को फैलने से कैसे रोका जाए, ये है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने संकेत भी दे दिए हैं कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद ही कैबिनेट गठन और मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाएगा। उन्होंने भाजपा विधायकों को पहले ही कह रखा है कि सभी अपने-अपने घरों और विधानसभा क्षेत्र में रहें। अब तो 14 अप्रैल तक लॉकडाउन भी है। बता दें कि मध्य प्रदेश विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं। इस हिसाब से सरकार में मुख्यमंत्री सहित ज्यादा से ज्यादा 35 विधायक मंत्री बन सकते हैं। शिवराज की नई सरकार में सामाजिक समीकरण और क्षेत्रीय संतुलन साधने की कवायद होगी। क्षेत्रीय स्तर पर प्रदेश के सभी संभागों से मंत्री बनाने के साथ सामाजिक समीकरण के स्तर पर क्षत्रिय, ब्राह्मण, पिछड़े, अनुसूचित जाति और आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व दिए जाने की संभावना है।
कमलनाथ सरकार के 6 मंत्रियों समेत 22 विधायकों के इस्तीफा देने से ही मध्य प्रदेश में शिवराज को सरकार बनाने का अवसर मिला। इनमें प्रभुराम चौधरी, तुलसी सिलावट, इमरती देवी, गोविंद सिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर और महेंद्र सिंह सिसोदिया मंत्री थे, जिन्होंने इस्तीफा देकर भाजपा की सरकार तो बनवा दी। ऐसे में अब किए गए वादों को पूरा करने की बारी शिवराज सरकार और भाजपा की है। इस लिहाज से शिवराज सरकार में भी इनका मंत्री बनना पूरी तरह से तय है। इसके अलावा कांग्रेस से बगावत करने वाले बिसाहूलाल सिंह, ऐंदल सिंह कंसाना, हरदीपसिंह डंग और राज्यवर्धन सिंह भी मंत्री पद के दावेदारों में शामिल हैं। इन नेताओं ने कमलनाथ सरकार से बगावत ही इसीलिए की थी, क्योंकि कमलनाथ ने इन्हें मंत्री नहीं बनाया था। ऐसे में इन्हें साधकर रखने के लिए शिवराज मंत्री पद का इनाम दे सकते हैं। हालांकि शिवराज कैबिनेट में मंत्रियों के चयन प्रक्रिया में ज्योतिरादित्य सिंधिया की अहम भूमिका होगी। बागियों में उन्हें ही मंत्री बनाया जाएगा, जिन पर सिंधिया मुहर लगाएंगे। ऐसे में अब देखना है कि 22 में से कितने नेताओं को मंत्री बनाया जाता है।
मध्य प्रदेश में 15 महीनों से सत्ता से दूर भाजपा में भी मंत्री पद के दावेदारों की फेहरिस्त अच्छी खासी लंबी है। कमलनाथ सरकार गिराने में बेहद अहम भूमिका निभाने वाले नरोत्तम मिश्रा का मंत्री बनना तय है। इसके अलावा पिछली शिवराज सरकार में मंत्री रहे नेता भी दौड़ में माने जा रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष रहे गोपाल भार्गव, पूर्व मंत्री भूपेंद्र सिंह, अरविंद सिंह भदौरिया, राजेंद्र शुक्ला, विश्वास सारंग, संजय पाठक, कमल पटेल, हरिशंकर खटीक, गौरीशंकर बिसेन, अजय विश्नोई, मालिनी गौड़, मीना सिंह, नीना वर्मा जैसे भाजपा के कई विधायक हैं, जिनके मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने के पूरी संभावना है।
शिवराज सिंह चौहान को सपा, बसपा और निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन हासिल है। यही वजह है कि निर्दलीय विधायकों ने भी मंत्री पद के लिए अपने-अपने समीकरण सेट करने शुरू कर दिए हैं। प्रदीप जायसवाल ने तो पहले ही भाजपा सरकार में शामिल होने की बात कहकर माहौल गर्मा रखा है। बसपा और सपा के सदस्य भी दावेदारी में पीछे नहीं हैं। इसके अलावा अन्य निर्दलीय विधायक भी जुगाड़ लगाने में जुट गए हैं, जिनमें ठाकुर सुरेंद्र सिंह नवल सिंह (शेरा भैया) भी शामिल हैं।
वैश्विक महामारी कोरोना संकट के चलते देशभर में लॉकडाउन है। साथ ही सभी कार्यक्रम निरस्त कर दिए गए हैं। चुनाव आयोग ने भी उपचुनाव एवं राज्यसभा चुनाव स्थगित कर दिए हैं। ऐसे में मप्र से भाजपा के टिकट पर राज्यसभा जाने वाले ज्योतिरात्यि सिंधिया, कांग्रेस के दिग्विजय सिंह का राज्यसभा सदस्य चुना जाना फिलहाल टल गया है। साथ ही कमलनाथ सरकार को गिराकर कांगे्रस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले सिंधिया समर्थक 6 पूर्व मंत्रियों का भी फिर से मंत्री बनने के सपने पर लॉकडाउन है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल का विस्तार कब करेंगे, यह तय नहीं हो पा रहा है।
शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद सिंधिया समर्थर्कों को उम्मीद थी कि वे भी एक हफ्ते के भीतर मंत्री बन जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार लॉकडाउन 31 मार्च तक किया था। तब ऐसी संभावना थी कि अप्रैल के पहले हफ्ते में मंत्रिमंडल का गठन हो जाएगा। लेकिन लॉकडाउन की अवधि 14 अप्रैल तक बढ़ाए जाने के बाद अब इससे पहले मंत्रिमंडल के गठन की संभावना कम ही है। ऐसे में सिंधिया समर्थक पूर्व मंत्रियों को लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। हालांकि वे अपने क्षेत्र में जाने की बजाय भोपाल में ही हैं। वहीं सिंधिया को भी राज्यसभा पहुंचने की उम्मीद थी। यदि चुनाव स्थगित नहीं होता तो वे राज्यसभा सदस्य बन गए होते। राज्यसभा सांसद प्रभात झा और सत्यनारायण जटिया अगले महीने 20 अप्रैल को अपना कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। ऐसे में सिंधिया राज्यसभा सदस्य की शपथ लेते। इसके बाद उनके केंद्रीय मंत्री बनने की संभावना बनती। हालांकि मौजूदा हालात में सिंधिया और उनके समर्थकों के सपनों पर फिलहाल पानी फिरता दिखाई दे रहा है।
भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि पार्टी विधायक एवं सिंधिया समर्थकों को विभाग बांटने को लेकर दिल्ली में मंथन चल रहा है। जिस दिन शिवराज सिंह चौहान ने आनन-फानन में शपथ ली थी, उस समय हाईकमान यह तय नहीं कर पाया था कि कितने विधायकों को मंत्री बनाना है। क्योंंकि सिंधिया समर्थक एक पूर्व मंत्री और भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक को भी उपमुख्यमंत्री बनाने की अटकलें लगाई जा रही हैं। फिलहाल कोरोना संकट के चलते देश 14 अप्रैल तक के लिए पूरी तरह से लॉकडाउन है। ऐसे में भाजपा हाईकमान मंत्रिमंडल विस्तार की अनुमति नहीं दे रहा है। जिसकी वजह यह बताई जा रही है कि यदि लॉकडाउन के दौरान मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो फिर भाजपा पर सत्ता के लिए लॉकडाउन का उल्लंघन करने का आरोप लगेगा। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरे राज्यों से मजूदरों के भीड़ के रूप में घर लौटने, शहरों में रोजमर्रा की चीजों के लिए लोगों के बाहर निकलने से लॉकडाउन का उल्लंघन होने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाने को कहा है। ऐसी स्थिति में लॉकडाउन खत्म होने तक मप्र में मंत्रिमंडल के गठन की संभावना कम ही है। कमलनाथ की सरकार गिराने वाले सिंधिया समर्थक पूर्व विधायकों के सपनों पर भी पानी फिरता दिखाई दे रहा है। बैंगलुरु से लौटने के बाद सिंधिया समर्थक पूर्व विधयाक अपने क्षेत्र में नहीं गए हैं। इस्तीफा देने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि वे छह महीने के भीतर फिर से विधायक बन जाएंगे। कोरोना संकट के चलते वे जनता के बीच भी नहीं जा पा रहे हैं। फिलहाल उपचुनाव कब होगा, यह भी तय नहीं है।
क्या चूक जाएंगे चौहान!
शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड तो बना लिया है लेकिन उनके सामने बड़ी चुनौती अगले 6 महीने में आने वाली है। 6 महीने के अंदर ही शिवराज सिंह चौहान के सामने उपचुनाव में भाजपा की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी होगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा का रुख करने वाले 22 विधायकों और दो अन्य रिक्त सीटों पर उपचुनाव होंगे। कुल 24 सीटों पर उपचुनाव मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार और खुद शिवराज सिंह चौहान की राजनीतिक जीवन की दिशा तय करेंगे। चौहान के सामने यह चुनौती होगी कि जिन 24 सीटों पर उपचुनाव होने हैं उनमें कम से कम 10 सीटों पर भाजपा को जीत दिलाना होगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो शिवराज सिंह की कुर्सी खतरे में पड़ जाएगी और भाजपा के हाथ से आया हुआ राज्य निकल जाएगा। कर्नाटक में भाजपा ने यह करामात कर दिखाया था। वहां कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों और मंत्रियों के इस्तीफा देने से खाली हुए सीटों पर जब उपचुनाव हुए तब मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भाजपा को जीत दिलाकर अपनी सरकार की स्थिरता को सुनिश्चित किया था। किंतु मध्यप्रदेश के मामले में स्थिति इतनी आसान नहीं है। मध्य प्रदेश में सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होता आया है। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 22 सीटों पर भाजपा को हराया था। यहां से कांग्रेस के जो प्रत्याशी जीते थे उनमें से ज्यादातर को इस बार भाजपा टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारेगी। इस वजह से भाजपा के कैडर की नाराजगी स्वाभाविक होगी। इन 22 सीटों पर 2018 के चुनाव में भाजपा के जो प्रत्याशी थे वह उपचुनाव के लिए दोबारा टिकट की उम्मीद में होंगे।
22 सीटों पर उपचुनाव भाजपा के लिए चुनौती
कांग्रेस के 22 बागी विधायकों की सदस्यता खत्म हो गई है और वे भाजपा में शामिल हो गए हैं। इन 22 सीटों पर उपचुनाव होंगे। लेकिन ये उपचुनाव भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं हैं। सबसे पहली चुनौती कि इन सभी 22 पूर्व विधायकों को कांग्रेस के नाम पर वोट मिला था। दूसरी चुनौती यह कि भाजपा इन सीटों पर अपने नेताओं को टिकट दे या इन बागियों को। अगर भाजपा 22 बागियों को टिकट देती है तो पार्टी में असंतोष बढ़ेगा। इसका खामियाजा प्रत्याशी को उठाना पड़ सकता है। 2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ये 22 विधायक अपनी सीटों पर औसतन 15 प्रतिशत वोटों के अंतर से जीते थे। वहीं, इन 22 में से 20 सीटों पर भाजपा प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। 22 में से 11 सीटों पर जीत और हार का अंतर 10 प्रतिशत से भी कम था। ऐसे में भाजपा यदि कांग्रेस के बागियों को टिकट देती है तो उसके पूर्व प्रत्याशी विरोध में मैदान में उतर सकते हैं। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस के 22 बागी विधायक अगर दोबारा चुनाव लड़ेंगे, तो वे उन्हीं सीटों से लड़ेंगे, जिससे वे 2018 के विधानसभा चुनाव में लड़े थे। पिछली बार तो ये विधायक कांग्रेस के टिकट पर खड़े हो गए थे, लेकिन इस बार उन्हें भाजपा की टिकट पर या भाजपा की मदद से लड़ना होगा। इसका मतलब हुआ कि इन सीटों से भाजपा के जो उम्मीदवार पिछली बार लड़े थे, उनका टिकट इस बार कटेगा। इससे इस बात की पूरी संभावना है कि जिन भाजपा नेताओं का टिकट कटेगा, वो सभी कांग्रेस से भाजपा में आए बागी विधायकों के लिए चुनौती बनेंगे ही बनेंगे। अब देखना यह है कि भाजपा इस चुनौती से किस रणनीति के साथ निपटती है। उधर, कांग्रेस भी इन सीटों को जीतने की रणनीति पर काम कर रही है। पार्टी की कोशिश है कि उपचुनाव में वह इन सीटों को जीतकर भाजपा से सत्ता वापस ले ले।
- राजेंद्र आगाल