दशकों से कुख्यात रहे चंबल को उपजाऊ बनाने के लिए कई प्रयास हो चुके हैं। लेकिन अभी तक सरकार चंबल की किस्मत को बदलने में कामयाब नहीं हो पाई है। एक बार फिर से चंबल को चमन बनाने की कवायद चल रही है। लेकिन आशंका जताई जा रही है कि इस कवायद में चंबल को कॉरपोरेट को ना सौंप दिया जाए। दरअसल, विश्व बैंक की मदद से चंबल के बीहड़ों के समतलीकरण और इसे कृषि योग्य बनाने हेतु केंद्रीय कृषि मंत्रालय और मप्र सरकार के बीच पिछले दिनों संभावनाओं की तलाश में एक मीटिंग हुई। इस मीटिंग के दौरान चंबल को उपजाऊ बनाने के मसौदे पर चर्चा की गई। ऐसे में लोगों को उम्मीद जगी है कि चंबल में डकैत की जगह अब फसलें उगेंगी।
मिली जानकारी के अनुसार केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने विश्व बैंक के वरिष्ठ प्रतिनिधि और राज्य सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ संयुक्त बैठक की। बैठक में ग्वालियर-चंबल संभाग की 3 लाख हैक्टेयर परती बीहड़ भूमि हेतु जिस प्लान के लिए योजना विकसित हुई है, उसकी 'पार्लियामेंट्री प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ पेश होनी है जिसके बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उस पर अंतिम मुहर लगाएंगे। तोमर मानते हैं कि यह परियोजना न सिर्फ क्षेत्र की भूमि को कृषि योग्य बनाएगी बल्कि क्षेत्रीय लोगों के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार भी मुहैया कराएगी। उन्होंने प्रस्तावित 'चंबल एक्सप्रेस’ हाईवे को इस परियोजना से जोड़ते हुए कहा कि इस सबके पूरा हो जाने से समूचे बीहड़ क्षेत्र का बड़े पैमाने पर विकास होगा। इसके विपरीत स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं और इस क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों का आरोप है कि इस कथित विकास के पीछे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट की घुसपैठ और स्थानीय किसानों के विनाश का षड्यंत्र छिपा है। उनका यह मानना है कि अगर ऐसा सचमुच घटा तो तबाह हो चुके ये किसान 'बागियों’ की नई फौज के रूप में जन्म लेंगे और बीहड़ों में शांति हमेशा-हमेशा के लिए गुम हो जाएगी।
चंबल के बीहड़ों के विकास की मौजूदा योजना कोई नई योजना नहीं है। 1960 से लेकर 1990 के दशकों में दोनों मोर्चों पर पूरे जोर-शोर से 'एक्शन’ होते रहे हैं लेकिन अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद इनमें से कोई भी 'कामयाबी की दास्तान’ नहीं बन सके हैं। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद के 60 सालों के जिन पुराने रास्तों पर चलकर इन्हें नाकामी मिलती रही है, इस बार भी वही राह चुनी गई है या कोई नई डगर ढूंढी जा रही है? 10 साल तक छोटे-मोटे स्तर पर केंद्र और राज्य सरकार की माथाफोड़ी के बाद केंद्र सरकार ने 1971 में 'मेगा रेवाइन रिक्लेमेशन प्रोजेक्ट’ चलाया। लक्ष्य था 80 हजार हैक्टेयर बीहड़ भूमि (55 हजार हैक्टेयर बीहड़ भूमि को कृषि योग्य और 25 हजार हैक्टेयर को जंगलातों के लिए) विकसित किया जाए। इस प्रोजेक्ट में मप्र, राजस्थान और उप्र के क्षेत्रों में फैले बीहड़ थे। मजेदार बात यह है कि 25 वर्षों के कार्यकाल में इससे जुड़ी 19 उप परियोजनाओं के बूते केवल 2 हजार हैक्टेयर बीहड़ भूमि का ही पुनरुद्धार हो सका। 1980 और 1990 के दशक में मप्र सरकार के वन विभाग ने 'हवाई बीज विभाग’ की स्थापना की ताकि हवाई जहाज के जरिए बीजों का छिड़काव किया जा सके। सरकारी जहाजों द्वारा 'बबूल’, 'विलायती बबूल’ और 'जंगल जलेबी’ आदि के बीजों का छिड़काव हुआ लेकिन कामयाब नहीं हो सका। बीज या तो बारिश में बह गए या बगल के खेतों में चले गए और वहां उगकर किसानों के लिए खेती के कामकाज में बड़ा व्यवधान बनकर खड़े हो गए जबकि भिंड, मुरैना आदि क्षेत्र जबरदस्त उपजाऊ धरती वाले हैं।
नवंबर 2016 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीहड़ को समतल करके कृषि योग्य बनाने हेतु एक नई महत्वाकांक्षी परियोजना को केंद्र के समक्ष भेजा। उक्त परियोजना में मुख्यत: चंबल, सिंध, बेतवा, क्वारी और यमुना की सहायक (ट्रीब्यूट्री) नदियों वाले मुरैना, भिंड और श्योपुर आदि क्षेत्रों के 68,833 हैक्टेयर बीहड़ों को केंद्र में रखा गया था। 1200 करोड़ रुपए के बजट वाली उक्त परियोजना में केंद्र बनाम राज्य के बजट का अनुपात 80:20 था। यानी केंद्र के जिम्मे 900 करोड़ रुपए और शेष राशि राज्य सरकार और उन किसानों के हिस्से में आने का प्रावधान था, जिन्हें भविष्य में उक्त परिवर्धित भूमि मिलती। संभावना जताई जा रही है कि जल्द ही परियोजना साकार होगी।
3 लाख हैक्टेयर की योजना
मौजूदा परियोजना में 3 लाख हैक्टेयर बीहड़ भूमि को कृषि और वन क्षेत्र के लिए विकसित करने की बात है। मप्र कृषक कल्याण और कृषि विकास विभाग के अध्ययन के अनुसार बीहड़ में पसरा कुल क्षेत्र 3.97 मिलियन (लगभग 40 लाख) हैक्टेयर है जिसकी चपेट में मप्र, राजस्थान, उप्र और गुजरात राज्य आते हैं। इसमें अकेले मप्र का हिस्सा 70 प्रतिशत (29 लाख हैक्टेयर) है। 6 दशकों की ढेरों कोशिशों के बावजूद उक्त अध्ययन बताता है कि प्रति वर्ष बीहड़ का होने वाला विस्तार 9.5 प्रतिशत है यानी भूमि क्षरण के चलते हर साल बीहड़ 8000 हैक्टेयर भूमि निगल रहा है। तब मौजूदा परियोजना को लेकर 2 सवाल सीधे-सीधे खड़े होते हैं। पहला, कि क्या उन कारणों का अध्ययन किया गया जिनके चलते वे सारे प्रयास और परियोजनाएं फेल साबित हुईं। दूसरा, कि क्या नई परियोजना में नए तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं या पुराने 'प्रयोगों’ की ही पुनरावृत्ति होने वाली है। मुख्यत: इस क्षेत्र के बीहड़ों की धरती के साथ 4 प्रकार की कठिनाइयां हैं। पहली तो यह कि यहां की मिट्टी बड़ी कठोर और कड़ी है। यदि इन्हें समतल कर दिया जाए तो वर्षा इन्हें फिर से बीहड़ों में तब्दील कर देती है। दूसरी मुश्किल थी कि सरकारी प्रभुत्व वाली भूमि को किसानों में कैसे स्थानांतरित किया जाए। तीसरी दिक्कत थी कि बहुत से किसानों ने इसे कृषि योग्य बनाने की कोशिश की लेकिन कामयाब कोई न हो सका और चौथा संकट था बीहड़ों को कृषि जोतों में बदलना किसानों के लिए असंभव था।
- विकास दुबे