मप्र में 27 सीटों पर होने वाला उपचुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं है, बल्कि यह चुनाव सत्ता का भविष्य तय करेगा। चुनाव आयोग ने उपचुनाव की घोषणा भले ही नहीं की है, लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने मोर्चा संभाल लिया है। खासकर भाजपा और कांग्रेस जीत के बड़े-बड़े दावे कर रही हैं। लेकिन फिलहाल उनके दावों में दम नहीं है। क्योंकि कोरोना संक्रमण के कारण मतदाता अभी तक अपने भावों को प्रकट नहीं कर पाया है। इसलिए पार्टियों के दांव कमजोर साबित हो रहे हैं।
कोरोना संक्रमण की दहशत के बीच मप्र में उपचुनाव का घमासान शुरू हो गया है। ये उपचुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और सांसद दिग्विजय सिंह के साथ ही भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के राजनीतिक भविष्य की दिशा और दशा तय करेंगे। खासकर कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया की अग्निपरीक्षा होने वाली है। क्योंकि जिन 27 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, उनमें से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल अंचल की हैं। यह अंचल सिंधिया का गढ़ है। यही नहीं, 16 में से 15 पूर्व विधायक तो सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए हैं। ऐसे में कम से कम इन 15 पूर्व विधायकों को जिताने की जिम्मेदारी सिंधिया पर है। हालांकि दोनों पार्टियां सभी 27 सीटें जीतने का दावा कर रही हैं। लेकिन उनके दावे बेदम हैं और अभी तक जो भी चुनावी दांव चले गए हैं वे कमजोर नजर आ रहे हैं।
उपचुनाव को लेकर भाजपा और कांग्रेस में मैदानी तैयारी शुरू हो गई है। कांग्रेस ने अपने सर्वे के बाद दावा किया है कि भाजपा एक भी सीट नहीं जीत पाएगी। वहीं भाजपा का दावा है कि उपचुनाव हुए तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाएगा। किसके दावे सही होते हैं यह तो वक्त ही बताएगा। उधर, 21 अगस्त को चुनाव आयोग ने कोरोनाकाल में चुनाव की गाइडलाइन जारी कर यह संकेत दे दिया है कि मप्र की 27 विधानसभा सीटों पर अक्टूबर के मध्य तक हर हाल में उपचुनाव हो सकते हैं। चुनाव आयोग से मिले संकेत के बाद प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस और बसपा सहित अन्य पार्टियों ने चुनावी तैयारी शुरू कर दी है। अभी तक की तैयारियों का आंकलन किया जाए तो भाजपा कांग्रेस से काफी आगे नजर आ रही है। इसकी वजह यह है कि भाजपा में लगभग 25 प्रत्याशी तय हैं। जबकि कांग्रेस को अभी सभी 27 प्रत्याशी तय करने हैं। चुनाव आयोग के अनौपचारिक ऐलान के बाद भाजपा और कांग्रेस तय समय पर चुनाव के लिए उत्साहित हैं। गौरतलब है कि मप्र के दो विधायकों के निधन और कांग्रेस के 25 बागी विधायकों के इस्तीफे से रिक्त विधानसभा की कुल 27 सीटों पर एकसाथ उपचुनाव होने हैं। जिन सीटों पर चुनाव होने हैं वे हैं- जौरा, आगर (अजा), ग्वालियर, डबरा (अजा), बमोरी सुरखी, सांची (अजा), सांवेर (अजा), सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह (अजा), मेहगांव, गोहद (अजा), ग्वालियर (पूर्व), भांडेर (अजा), करैरा (अजा), पोहरी, अशोक नगर (अजा), मुंगावली, अनूपपुर (अजजा), हाटपिपल्या, बदनावर, सुवासरा, बड़ामलहरा, नेपानगर, मांधाता आदि।
शुभ मुहूर्त कितना प्रभावी
भाजपा ने उपचुनाव प्रचार का श्रीगणेश गणेश चतुर्थी के दिन ग्वालियर से किया। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि शुभ मुहूर्त में शुरू हुआ चुनावी प्रचार भाजपा को बड़ी विजय दिलाएगा। हमारे देश में आमतौर पर किसी अच्छे और शुभ कार्य करने के लिए श्री गणेशाय नम: लिखा जाता है। ऐसे में गणेश चतुर्थी से शुरू हुआ भाजपा का चुनावी अभियान वैसे तो जोरदार रहा, क्योंकि इस दिन महल विरोधी रहे लगभग सभी नेता महल के साथ नजर आए। यही नहीं भाजपा के लिए गणपति बप्पा ने वर्षों पुरानी 'कसकÓ दूर कर दी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के रजवाड़े में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 'चुनावी मिलनÓ भी किया। तीन दिनों तक ग्वालियर-चंबल अंचल में चले महासदस्यता अभियान के दौरान 72 हजार से अधिक कांगे्रसी कार्यकर्ताओं ने भाजपा की सदस्यता ली। हालांकि कांग्रेस ने अगले ही दिन क्षेत्र में रैली कर भाजपा के महासदस्यता अभियान को फर्जी बता दिया।
मप्र के इतिहास में पहली बार ऐसा नजारा देखने को मिल रहा है, जहां भाजपा और कांग्रेस चुनाव को किसी महायुद्ध की तरह लड़ रहे हैं। इसलिए दोनों पार्टियों का फोकस ग्वालियर-चंबल अंचल में सबसे अधिक है। इसकी वजह यह है कि यहां सबसे अधिक सीटें हैं। जो पार्टी इस क्षेत्र में बाजी मारेगी, वह सत्ता के करीब पहुंच सकती है। गौरतलब है कि देश की राजनीति में ग्वालियर क्षेत्र को मध्यप्रदेश कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर और आसपास के जिलों में कांग्रेस पार्टी को आगे ले जाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। सिंधिया के निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया इस क्षेत्र में कांग्रेस को आगे बढ़ाते रहे। लेकिन अब कांग्रेस से बगावत के बाद सिंधिया के पास भाजपा से राज्यसभा सांसद और मध्य प्रदेश की सत्ता में आधी हिस्सेदारी भी आ गई है।
पहली बार विरोध का सामना
ग्वालियर-चंबल अंचल में महल का प्रभाव इस कदर रहा है कि उसकी छत्रछाया में कांग्रेस के कई नेता पले-बढ़े हैं। अभी तक इस क्षेत्र में महल ही कांग्रेस के टिकट तय करता रहा है। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने से क्षेत्र का माहौल पूरी तरह बदल गया है। 22 अगस्त को भाजपा के महासदस्यता अभियान में शामिल होने जब सिंधिया ग्वालियर पहुंचे तो उनका जगह-जगह विरोध भी हुआ। यह पहला अवसर था जब सिंधिया को अपने क्षेत्र में विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन सिंधिया के लिए सबसे बड़ी बात यह रही कि उनके साथ शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर और वीडी शर्मा सहित पूरी भाजपा खड़ी रही। ग्वालियर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जब सिंधिया को शिवराज सिंह के साथ देखा तो उनका विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। कांग्रेस कार्यकर्ता ज्योतिरादित्य सिंधिया से इस कदर नाराज थे कि उनका विरोध करने के लिए सुबह से ही कई दिग्गज नेता पहुंच गए थे। लेकिन इससे पहले पुलिस ने कांग्रेसियों को गिरफ्तार कर लिया।
यही नहीं कांग्रेस कार्यकर्ताओं के विरोध को देखते हुए सभा स्थल पर काले कपड़े पहनकर आए लोगों को प्रवेश नहीं दिया गया। कांग्रेस नेत्री रश्मि पवार काले कपड़े पहनकर सिंधिया का विरोध करने पहुंचीं, उन्हें भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। पूर्व मंत्री बालेंद्र शुक्ला, भगवान सिंह यादव, पूर्व सांसद रामसेवक सिंह गुर्जर को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। यह पहला मौका था जब सिंधिया का ग्वालियर में इतना बड़ा विरोध हुआ हो। हालांकि भाजपा के लिए यह दांव राहत वाला भी कहा जा सकता है। सही मायने में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह यही चाहते थे कि सिंधिया का ग्वालियर में जितना विरोध होगा उतना पार्टी को फायदा भी मिलेगा।
दोनों ओर भितरघात का खतरा
उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस की परेशानी यह है कि दोनों पार्टियों में भितरघात का डर है। इसकी वजह भी नजर आती है। कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए 25 पूर्व विधायकों का तो भाजपा से चुनाव लड़ना निश्चित है। इससे क्षेत्र के भाजपा नेताओं का भविष्य दांव पर लग गया है। कांग्रेस के पास कई क्षेत्रों में चुनाव मैदान में उतारने के लिए उम्मीदवारों का टोटा है। इसलिए कांग्रेस अब भाजपा के हारे और वरिष्ठ नेताओं को अपने पाले में लाने का प्रयास कर रही है। उसे अपनी इस मुहिम में सफलता भी मिल रही है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ भाजपा के ऐसे असंतुष्ट नेताओं से खुद मुलाकात कर रहे हैं। प्रदेश में अब तक के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला होता रहता है। लेकिन बसपा, सपा, निर्दलीय और अन्य पार्टियों के प्रत्याशी कांग्रेस-भाजपा की जीत के गणित को बिगाड़ते रहते हैं। अत: इस बार के उपचुनाव में दोनों पार्टियों की नजर वोटकटवा उम्मीदवारों पर रहेगी। सूत्र बताते हैं कि दोनों पार्टियों ने विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं से संपर्क करना शुरू कर दिया है। साथ ही चुनावी मैदान में उनके उतरने के प्रभाव का आंकलन किया जा रहा है।
दरअसल, 27 सीटों पर होने वाला उपचुनाव शिवराज सरकार के स्थायित्व और कांग्रेस की नई उम्मीदों से जुड़ा है। यही वजह है कि एक-एक सीट पर जीत सुनिश्चित करने के लिए दोनों दल बिसात बिछा रहे हैं। इसमें दाल किसकी गलेगी अभी कह पाना मुश्किल है, लेकिन टिकट के दावेदारों की रस्साकसी देखकर संकेत मिलने लगा है कि बगावत दोनों तरफ होगी। अगर ऐसी स्थिति में कुछ सीटों पर बागी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतर गए तो किसी एक का खेल बिगड़ सकता है। टिकट न मिलने पर दल से बगावत कर चुनाव लड़ने का चलन बहुत पुराना है। इस बार होने वाले उपचुनाव भी इस घमासान से अछूते नहीं रहेंगे। भाजपा ने तो तय कर दिया है कि जो विधानसभा सदस्यता और कांग्रेस से इस्तीफा देकर पार्टी में शामिल हुए हैं, उन्हें ही टिकट मिलेगा। इसमें एक-दो फेरबदल भले हो जाएं, लेकिन ज्यादातर सीटों के उम्मीदवार तय हैं। वहीं कांग्रेस असंतुष्ट भाजपा नेताओं को पार्टी में शामिल करवा रही है। ऐसे में वहां भी बहुत से दावेदारों की उम्मीद टूटनी तय है। अब चुनाव लड़ने की आस में अपनी-अपनी जमीन तैयार कर रहे दोनों दलों के नेता टिकट न मिलने पर निर्दलीय भी आ सकते हैं। कई दावेदारों ने अपने समर्थकों को तैयारी में लगा दिया है।
कांग्रेस के सामने चुनौतियां
कांग्रेस में राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर सतह पर आए कलह राज्यों में भी पार्टी को खासा नुकसान पहुंचा सकती है। मप्र में होने वाले 27 विस सीटों के उपचुनाव में वह सत्ता वापसी की राह तलाश रही है, जो कलह के चलते खटाई में पड़ सकती है। खींचतान ने मतदाताओं के बीच पार्टी की साख पर सवाल तो खड़े ही किए हैं, राज्य में कांग्रेस की खेमेबंदी पर लगी पैबंद उधड़कर फिर सामने आने लगी है। कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, विवेक तन्खा, मुकुल वासनिक, अजय सिंह सहित कई प्रमुख नेताओं के दिल्ली कनेक्शन से उपजी खेमेबंदी चर्चा में है।
कांग्रेस उपचुनाव की 27 विस सीटों पर प्रत्याशी तय नहीं कर सकी है। कड़ी टक्कर देने के लिए वो भाजपा में विद्रोह की आस करती दिख रही है। वह भाजपा के बागियों को मौका देने की तैयारी में है। दूसरी मुश्किल है युवाओं को मौका न मिलना। सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कांग्रेस में युवा चेहरे की कमी है, जिसे भरने के लिए कमलनाथ, दिग्विजय सिंह के पुत्रों सहित जीतू पटवारी की खींचतान पिछले दिनों सड़क से सोशल मीडिया तक देखी जा चुकी है। बुजुर्ग नेताओं के ही हावी होने की दशा में युवा भी भविष्य के लिए इंतजार की मुद्रा में हैं। उन्हें उम्मीद है कि राहुल गांधी यदि पार्टी की कमान संभालते हैं तो उन्हें मौका मिल सकता है। ऐसे में जब तक हाईकमान स्तर पर तस्वीर स्पष्ट नहींं होगी, युवाओं का पार्टी की तरफ रुझान बढ़ा पाना टेढ़ी खीर होगी।
फायदा और नुकसान का गणित
संक्रमण बढ़ने के दौरान अप्रैल-मई में ही भाजपा और कांग्रेस ने अनुमान लगा लिया था कि इस बार चुनाव, फील्ड के बजाय डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लड़ा जाएगा। इसलिए उसने चुनाव की डिजिटल तैयारी पहले से शुरू कर दी थी। भाजपा की वर्चुअल रैली और कांग्रेस की वर्चुअल मीटिंग इसी तैयारी का हिस्सा हैं। भाजपा और कांग्रेस ने समय की मांग को देखते हुए साइंटिफिक इलेक्शन कैंपेन की तैयारी पहले ही शुरू कर दी थी। राज्य में मार्च माह में पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 तत्कालीन विधायकों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था, जिससे कमलनाथ की सरकार गिर गई थी और भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला। इसके बाद तीन और विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था। वहीं दो विधायकों का निधन होने से स्थान खाली पड़ा हुआ है। इस तरह राज्य में 27 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं। राज्य की विधानसभा की स्थिति पर गौर किया जाए तो भाजपा पूर्ण बहुमत से अभी 9 अंक दूर है, क्योंकि 230 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 116 विधायकों का समर्थन आवश्यक है। वर्तमान में भाजपा के 107 विधायक हैं। कांग्रेस के 89 विधायक हैं, सपा, बसपा व निर्दलीय मिलाकर सात विधायक हैं। इस तरह 203 विधायक हैं। भाजपा को 27 स्थानों में से सिर्फ 9 स्थानों पर ही जीत मिलने पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल हो जाएगा।
भाजपा सूत्रों का कहना है कि कुछ विधानसभा क्षेत्रों से भाजपा के लिए सुखद अभी भी सूचनाएं नहीं आ रही हैं। इस वजह से भाजपा संगठन जहां अपने स्तर पर उपचुनाव वाले क्षेत्रों में काम कर रहा है, वहीं संघ के स्वयंसेवक अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इस समय कोरोना संक्रमण के कारण लोग मुसीबत में हैं और संघ के स्वयंसेवक इन लोगों की हर संभव मदद करने में लगे हैं। स्वयंसेवकों की सक्रियता से संघ को जमीनी फीडबैक भी मिल रहा और उसी के आधार पर आगे की रणनीति बनाई जा रही है। पिछले एक माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की भोपाल में हुए दो दौरों को विधानसभा उपचुनावों से भी जोड़कर देखा जा रहा है। वैसे, संघ प्रमुख के इन दौरों के दौरान उनका भाजपा के किसी बड़े नेताओं से तो मुलाकात नहीं हुई, मगर संघ प्रमुख का स्वयंसेवकों से संवाद जरूर हुआ। संघ के सूत्रों का कहना है कि संघ सूचनाओं के आधार पर अपनी रणनीति बनाता है। इसी आधार पर पिछले चार माह से संघ रणनीति बनाकर काम कर रहा है। इसीलिए संघ प्रमुख एक माह के भीतर मध्यप्रदेश का दो बार दौरा कर चुके हैं और संघ के लोगों से फीडबैक ले चुके हैं।
कैसे मिलेगी मंजिल
वर्ष 2018 में नवंबर में विधानसभा चुनाव होने थे और कांग्रेस हाईकमान ने अप्रैल में ही मप्र कांग्रेस की बागडोर कमलनाथ को सौंप दी थी। तब कांग्रेस मप्र में कई धड़ों में बंटी होने के कारण करीब 15 साल से सत्ता से बाहर चल रही थी। नाथ ने सबसे पहले इन धड़ों को एकसाथ लाने में सफलता हासिल की, फिर कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया। केंद्रीय नेतृत्व को जीत का भरोसा दिलाया, तो राहुल गांधी ने मंदसौर की रैली में किसानों की कर्जमाफी का वादा किया। माना जाता है कि इसी वादे के चलते भाजपा के हाथों से सत्ता चली गई और कांग्रेस ने वापसी की। हालांकि करीब डेढ़ साल बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा में चले गए और कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी। अब कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ही मप्र में संगठन के मुख्य सूत्र हैं, लेकिन दिल्ली में मची उठापटक के बाद इनकी राहें भी एक नहीं दिख रहीं। सवाल उठ रहे हैं कि यदि राहें जुदा होंगी तो मंजिल कैसे मिलेगी? उपचुनाव वाले क्षेत्रों में अब तक दोनों एक साथ नहीं गए, न ही उपचुनाव को लेकर कभी चर्चा के लिए बैठे, जिससे कार्यकर्ताओं में सक्रियता का संदेश जा सके।
कार्यकर्ता फिर पसोपेश में
मप्र कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर बिखराव से कार्यकर्ता एक बार फिर चौराहे पर है कि इधर जाए या उधर? तय नहीं कर पा रहा है कि पार्टी और खुद के सियासी भविष्य के लिए उसे किधर कदम बढ़ाने हैं। जानकार कहते हैं कि मामला भले ही जमीनी कार्यकर्ता का हो, लेकिन इसके लिए काफी हद तक पार्टी हाईकमान जिम्मेदार है। यदि वह राज्य संगठनों को प्रोत्साहित करे और नेतृत्व की स्थिति स्पष्ट रखे तो कार्यकर्ता बिना किसी उहापोह के निष्ठा के साथ पार्टी संग खड़ा रहेगा। वैसे भी मप्र में हाईकमान को सिंधिया प्रकरण के बाद कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के उपाय करने ही चाहिए थे, जो नहीं किए गए। हम देख सकते हैं कि ग्वालियर-चंबल अंचल में भी शिवराज और सिंधिया का विरोध करने में थोड़ी संख्या में ही कांग्रेस कार्यकर्ता सामने आए। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कांग्रेस में संगठन स्तर पर काफी उथल-पुथल देखी गई। ऐसे में जो नेता कांग्रेस छोड़कर गए, उनके स्थान पर पार्टी ने नियुक्ति नहीं की है। सिंधिया के प्रभाव क्षेत्र ग्वालियर चंबल में तो लगभग पूरा संगठन ही सिंधिया के समर्थकों के हाथों में था, जो अब भाजपा में जा चुके हैं। संगठन के मामले में यदि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की बात करें, तो कमलनाथ की जमीनी पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर है, जबकि दिग्विजय सिंह ब्लॉक स्तर तक कांग्रेस पदाधिकारियों को जानते-पहचानते हैं। चूंकि दोनों नेताओं में दूरी की बातें कही जा रही हैं, तो संगठन की मजबूती कमलनाथ के लिए चुनौती बनेगी ही। यदि हाईकमान की अस्थिरता खत्म हो तो मप्र में भी तस्वीर काफी हद तक साफ होगी और संगठन मजबूत हो सकेगा।
तय होगा दिग्गजों का भविष्य
27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण हैं। ये चुनाव सत्ता का भविष्य तो तय करेंगे ही दिग्गज नेताओं का भी भविष्य तय करेंगे। इनके नतीजे भाजपा-कांग्रेस के प्रमुख नेताओं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे। इसीलिए उपचुनावों को आम चुनावों जैसा महत्वपूर्ण माना जा रहा है। दोनों दल यही मानकर तैयारी कर रहे हैं। खास बात यह है कि दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिख रहे हैं। हालांकि इतिहास पर नजर डालें तो उपचुनाव के नतीजे सत्तापक्ष की ओर ज्यादा आते रहे हैं। फिर भी बदली राजनीतिक परिस्थितियों में कुछ भी हो सकता है। भाजपा में शिवराज और ज्योतिरादित्य पर चुनाव की जवाबदारी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक कांग्रेस विधायकों को तोड़कर लाए हैं। इसके बाद सरकार बनी है। उन्हें यह साबित करना है कि ये विधायक उनके आभामंडल की बदौलत जीते थे, इसे बरकरार रखने के लिए फिर सभी का जीतना जरूरी है। इससे भाजपा में उनका राजनीतिक भविष्य निर्धारित होगा। विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय के बावजूद शिवराज सिंह चौहान को फिर मुख्यमंत्री बनाया गया है। इसलिए उनकी जवाबदारी है कि ज्यादा सीटों पर भाजपा जीते ताकि सत्ता बरकरार रहे। इसलिए शिवराज का भविष्य भी इन उपचुनावों के नतीजों पर टिका है।
उधर कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय के कौशल की परीक्षा है। कांग्रेस में कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह की पारी अभी और चलेगी या उनके राजनीतिक भविष्य पर विराम लग जाएगा, उपचुनाव के नतीजों से यह भी तय हो सकता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ चुके हैं। इसकी वजह नाथ-दिग्विजय की जोड़ी को माना जा रहा है। बाद में भी 3 विधायक कांग्रेस छोड़कर गए, इसका भी यही अर्थ निकला कि कमलनाथ सरकार के बाद संगठन को संभाल नहीं पा रहे हैं। ऐसे हालात में यदि उपचुनाव के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आते हैं तो एक बार फिर नाथ-दिग्विजय की जोड़ी के कौशल का लोहा माना जाएगा। ऐसा न हुआ तो कांग्रेस के नुकसान का खामियाजा इन दोनों नेताओं को उठाना पड़ सकता है।
कई विधानसभा सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला
मध्य प्रदेश में होने वाली उपचुनाव की जंग कई विधानसभा सीटों पर त्रिकोणीय होगी। ये सीटें ग्वालियर-चंबल अंचल की हैं। उन सीटों पर भाजपा, कांग्रेस और बसपा के बीच मुकाबला होगा। बहुजन समाज पार्टी ने ग्वालियर-चंबल की 8 सीटों के लिए प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिए हैं। बसपा मध्यप्रदेश में उपचुनाव के लिए पूरी ताकत से जोर आजमाइश करेगी। बसपा ने ग्वालियर-चंबल अंचल की 8 सीटों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा कर दी। इनमें से ज्यादातर सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। इस सीटों पर बसपा तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में चुनाव में जोर आजमाइश करेगी। ग्वालियर-चंबल अंचल में बसपा के वोटों की अच्छी-खासी संख्या है। 2018 के चुनावों में यहां की ज्यादातर सीटों में बसपा के प्रत्याशी दूसरी पॉजीशन पर रहे थे। ऐसे में लड़ाई त्रिकोणीय होने की पूरी संभावना है। घोषित की गई सीटों में मुरैना की जौरा सीट से सोनाराम कुशवाहा पूर्व विधायक बसपा, मुरैना से राम प्रकाश राजोरिया, मुरैना की अंबाह से भानु प्रताप सिंह सखवार, भिंड की मेहगांव सीट से योगेश मेघसिंह नरवरिया, भिंड की गोहद से जसवंत पटवारी, ग्वालियर की डबरा से संतोष गौड़, शिवपुरी की पोहरी से कैलाश कुशवाहा और शिवपुरी की करैरा सीट से राजेंद्र जाटव चुनावी मैदान में उतरेंगे। इसमें बसपा की भूमिका कांग्रेस के वोट बैंक को सेंध लगाने वाली हो सकती है। जिन सीटों की घोषणा की गई है, इनमें ज्यादातर सीटों पर 2018 में बसपा के उम्मीदवार सेकंड पॉजीशन पर रहे थे। अब कांग्रेस के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया भी नहीं हैं। ऐसे में इन चुनावों में बसपा भारतीय जनता पार्टी को ही फायदा पहुंचाती दिख रही है।
ये चुनाव मध्य प्रदेश के भविष्य के लिए है : कमलनाथ
उपचुनाव को लेकर प्रदेश में शुरू हुए राजनीतिक घमासान के बीच पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का कहना है कि प्रदेश की जनता भलीभांति जानती है कि उसे किसे वोट देना है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनी गई सरकार को जिस तरह षड्यंत्र करके सत्ता से बेदखल किया गया है, जनता उसका सबक भाजपा को जरूर सिखाएगी। वह कहते हैं कि प्रदेश में 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव, आम चुनाव नहीं हैं। मैं इसे उपचुनाव भी नहीं मानता। ये चुनाव मध्य प्रदेश के भविष्य के लिए हैं। इसके अलावा उन्होंने कहा कि पिछले चार महीने से मैंने पार्टी को मजबूत करने का काम किया है, क्योंकि हमारी लड़ाई भाजपा की उपलब्धियों के साथ नहीं बल्कि उनके संगठन के साथ है। साथ ही कहा कि प्रदेश की जनता के सामने कांग्रेस के 15 महीने का शासन और भाजपा के 15 साल के कार्यकाल की तस्वीर है। हमने अपनी नीतियों और नीयत का परिचय दिया है। जनता सच्चाई को पहचाने और सच का साथ दे। मैं मध्य प्रदेश की पहचान बदलने की कोशिश कर रहा था लेकिन भाजपा इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी और इसलिए उन्होंने मेरी सरकार को गिरा दिया।
उपचुनाव से पहले संघ की शरण में ज्योतिरादित्य
तीन दिनों के ग्वालियर-चंबल के दौरे के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया गत दिनों नागपुर स्थिति संघ कार्यालय पहुंचे। कहा जा रहा है कि यहां ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संघ सरसंचालक डॉ. मोहन भागवत से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद सियासी हलचलें तेज हो गई हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार संघ कार्यालय पहुंचे हैं। हालांकि सिंधिया ने कांग्रेस में रहते हुए भी संघ पर हमला नहीं बोला था। इसकी एक बड़ी वजह है सिंधिया परिवार का हिंदू महासभा, जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए सॉफ्ट कॉर्नर। सिंधिया की इस मुलाकात के बाद ये माना जा रहा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का कद कांग्रेस की राजनीति के अपेक्षा भाजपा में बड़ा होने वाला है। ज्योतिरादित्य सिंधिया पहली बार संघ कार्यालय पहुंचे हैं। उनके संघ कार्यालय पहुंचने के साथ ही माना जा रहा है कि भाजपा में शामिल होन के बाद उपचुनाव से पहले सिंधिया संघ का आशार्वाद लेने के लिए नागपुर पहुंचे थे। संघ के पदाधिकारियों से मुलाकात के बाद अब सिंधिया उपचुनाव में पूरी तैयारी से उतरेंगे। सिंधिया भाजपा में शामिल होने के बाद कई नेताओं से मिले थे जो संघ के भी करीब थे। लेकिन संघ के पदाधिकारियों से नहीं मिले थे। अब उपचुनाव से पहले संघ कार्यालय पहुंचने का एक मकसद ये भी हो सकता है कि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में संघ का दबदबा है। सिंधिया मालवा में भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं। ऐसे में संघ कार्यालय में हाजिरी लगाकर सिंधिया नागपुर की भी पसंद बनने की कोशिश कर रहे हैं। इससे पहले भाजपा के कई नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया पर हमला करते रहते थे।
18 लाख मतदाताओं की उपेक्षा किस पर पड़ेगी भारी
मप्र में जिन 27 सीटों पर उपचुनाव होने वाला हैं, उनमें से 25 पर कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे और भाजपा में शामिल होने के कारण हो रहा है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले इन नेताओं के खिलाफ इनके क्षेत्र में माहौल है। कांग्रेस का दावा है कि 18 लाख मतदाताओं की उपेक्षा करने वाले पूर्व विधायकों को मतदाता उपचुनाव में सबक सिखाएंगे। वहीं भाजपा का कहना है कि कांग्रेस में भेदभाव और भ्रष्टाचार की राजनीति से परेशान होकर पूर्व विधायकों ने पार्टी छोड़ी है। गौरतलब है कि मार्च में कांग्रेस छोड़ने वाले 22 विधायकों में 19 ज्योतिरादित्य सिंधिया के वफादार हैं। बाकी बिसाहूलाल सिंह, ऐदल सिंह कंसाना और हरदीप सिंह डंग सिंधिया के समर्थक नहीं हैं, लेकिन सिंधिया की नाव में सवार होकर मंत्री की कुर्सी की ओर बढ़ गए। ये कमलनाथ कैबिनेट में स्थान न मिलने से नाराज थे। कांग्रेस छोड़ने वाले प्रद्युम्न लोधी, सुमित्रा कासडेकर और नारायण पटेल नए चेहरे थे, लिहाजा इनका कोई गहरा वैचारिक नाता कांग्रेस से नहीं था। ये बड़े नेताओं की मेहरबानी के अलावा कमलनाथ की ओर से किए गए सर्वे के जरिए पार्टी उम्मीदवार बनाए गए थे। ये लोग टिकट बंटवारे के समय पीसीसी को जातीय गणित के मुफीद भी थे। यानी ये बात तय है कि ऐसे ही राजनीति में नए और पहली बार के विधायकों पर भाजपा की नजर है। कांग्रेस का मैनेजमेंट इस टूटन को रोकने में नाकाम साबित हो रहा है। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी और राजनीतिक प्रबंधन के माहिर नेताओं का गणित भी फेल हो गया है। कांग्रेस नेताओं को विधायकों के जाने की भनक भी नहीं लग पा रही है। इस दल बदल से जाहिर है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की अनदेखी हो रही है। लोकतंत्र में खरीद-फरोख्त या हॉर्स ट्रेडिंग जैसे किसी भी कृत्य की स्पष्ट मनाही है। सवाल यह भी है कि यदि इस तरह सरकारें चलनी हैं तो चुनाव की आवश्यकता ही क्या है। कांग्रेस के जिन 25 विधायकों ने विधायकी छोड़ी उनको 18 लाख से ज्यादा लोगों ने चुना था। अब उनके इस संवैधानिक अधिकार वोट का क्या मतलब निकला। कांग्रेस कहती है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को खरीदने या उनके दलबदल की कोई व्यवस्था नहीं है। भाजपा देश की सभी संस्थाओं को नष्ट करने पर तुली हुई है। चाहे आप मध्यप्रदेश, कर्नाटक या राजस्थान का उदाहरण देख लीजिए। कांग्रेस के इस तर्क को भाजपा हास्यास्पद बताती है, भाजपा कहती है कि आपातकाल लगाने वाले कब से लोकतंत्र की फिक्र करने लगे। अब देखना यह है कि उपचुनाव में मतदाता विधायकी छोड़कर फिर से चुनाव मैदान में उतरे नेताओं को सिर-आंखों पर बैठाता है, या उन्हें सबक सिखाता है।
- राजेंद्र आगाल