मप्र सहित देशभर में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान चलाकर भू्रण हत्या पर रोक लगाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन उसके परिणाम संतोषजनक नहीं आ रहे हैं। हाल ही में जारी हुई एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक देश में 68 लाख से अधिक बच्चियों को जन्म के पहले ही मार दिया जाएगा।
दे श में 2030 तक भारत में 68 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले सकेंगी, क्योंकि बेटे की लालसा में उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा। यह जानकारी 19 अगस्त को जर्नल प्लोस में छपे एक नए शोध में सामने आई है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए देशभर में हो रही कन्या भ्रूण हत्या को जिम्मेवार माना है। यह शोध फेंग्किंग चाओ और उनके सहयोगियों द्वारा किया गया है जो कि किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सऊदी अरब से जुड़े हैं।
भारत में कन्या भ्रूण हत्या का इतिहास कोई नया नहीं है। लंबे समय से लड़कों को दी जा रही वरीयता का असर लिंगानुपात पर भी पड़ रहा है। समाज में फैली इस कुरीति ने संस्कृति का रूप ले लिया है। लड़का वंश चलाएगा यह मानसिकता आज भी भारत में फैली हुई है। सिर्फ अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे परिवारों में ही नहीं बल्कि शिक्षित लोगों में आज भी यह मानसिकता खत्म नहीं हुई है। 1970 के बाद से तकनीकी ज्ञान ने इस काम को और आसान कर दिया है। इसमें भ्रूण की पहचान बताने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर और नर्सिंग होम की एक बड़ी भूमिका है।
इस शोध में शोधकर्ताओं ने देश के 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल किया है और उनमें जन्म के समय लिंगानुपात का विश्लेषण किया है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार यह देश की 98.4 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिसमें से 9 में स्पष्ट तौर पर बेटे की वरीयता साफ झलकती है। इसमें से उत्तर-पश्चिम के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। यदि पूरे भारत को देखें तो 2030 तक 68 लाख कन्या भ्रूण जन्म नहीं ले पाएंगी। यदि 2017 से 2025 तक का वार्षिक औसत देखें तो यह आंकड़ा 469,000 के करीब है। जबकि 2026 से 2030 के बीच यह बढ़कर प्रति वर्ष 519,000 पर पहुंच जाएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार कन्या जन्म में सबसे अधिक कमी उत्तर प्रदेश में होगी, जिसमें अनुमान है कि 2017 से 2030 के बीच 20 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाएंगी।
हालांकि देश में इसको रोकने के लिए पीसी पीएनडीटी एक्ट अर्थात् प्रसव पूर्व निदान तकनीक (विनियमन एवं दुरूपयोग निवारण अधिनियम-1994) बनाया गया था जिसे 1996 में लागू किया गया था। वर्ष 2003 में इसे संशोधित किया गया था, इसके तहत लिंग निर्धारण करते हुए पहली बार पकड़े जाने पर तीन वर्ष की सजा एवं 50 हजार का जुर्माना लगाने का प्रावधान था। जबकि दूसरी बार पकड़े जाने पर पांच वर्ष की जेल एवं एक लाख रुपए का अर्थ दंड निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद देश में अभी भी इस कानून का उल्लंघन जारी है।
यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलती। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। भारतीय समय में मानसिकता के बदलाव की जो प्रक्रिया है वो बहुत धीमी है। आज भी लोग बेटियों की जगह बेटों को तरजीह देते हैं। जिसके पीछे की मानसिकता यह है कि बेटों से वंश चलता है, जबकि बेटियां पराया धन होती हैं। जो शादी के बाद पराए घर चली जाती हैं।
देश में आज भी लड़की का मतलब परिवार के लिए अतिरिक्त खर्च होता है। इसमें समाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है, बच्चियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों की वजह से भी लोग बेटी के बदले बेटा चाहते हैं। तकनीक की मदद से गर्भ में ही बच्चे के लिंग का पता चल जाता है और बेटी होने पर गर्भपात करा दिया जाता है। ऐसे में कानून के साथ-साथ मानसिकता में भी बदलाव लाने की जरूरत है, जिससे वास्तविकता में बेटियों को बराबरी का हक दिया जा सके।
जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आईएमआर का विश्लेषण करने पर शिशु की मौत का आंकड़ा भी काफी चौंकाने वाला है। आंकड़ों के विशेषज्ञ और विकास संवाद के रिसर्च एसोसिएट अरविंद मिश्रा ने वर्ष 2000 से 2018 तक के आईएमआर और सेंसस के आंकड़ों की गणना करके पाया कि इस दौरान 17,68,500 शिशुओं की मौत हुई है। मध्यप्रदेश में शिशुओं की यह हालत तब है जब सरकार इन्हीं वर्षों में विकास के तमाम दावे करती आई है। प्रदेश सरकार ने कृषि विकास दर (18-20 प्रतिशत) और आर्थिक विकास दर (करीब 10-12 प्रतिशत) को हमेशा राष्ट्रीय औसत से अधिक रहने का दावा किया है।
16 साल में 17 लाख शिशुओं की मौत
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा मई 2020 में सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के जारी आंकड़ों से यह तय हो गया कि मध्यप्रदेश लगातार 15वीं बार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सबसे अव्वल रहा। 2018 के आंकड़ों को लेकर जारी यह ताजा रिपोर्ट बताती हैं कि 2017 के मुकाबले एक अंक की बढ़ोतरी के साथ मध्यप्रदेश का आईएमआर 48 हो गया, यानी प्रति हजार जन्म पर 48 शिशुओं की मौत। वर्ष 2004 के बाद से ही मध्यप्रदेश की स्थिति शिशु मृत्यु दर के मामले में देश में सबसे खराब रही है। वर्ष 2017 के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में यह दर एक अंक और शहरी इलाकों में 4 अंक बढ़ी है जो कि चौंकाने वाली है। पिछले 15 वर्षों में इस दर में लगातार कमी आ रही थी और 2016 और 2017 में दर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। ऐसा पहली बार हुआ कि आईएमआर में वृद्धि दर्ज की गई है।
- राजेश बोरकर