बाकी राज्यों में चुनाव कब?
04-Jun-2020 12:00 AM 746

 

महाराष्ट्र में राज्य विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव संपन्न होने के साथ ही देश की राजनीति गर्माने लगी है। इसकी वजह यह है कि कई राज्यों में होने वाले चुनाव लंबित हैं। कोरोना वायरस के कारण चुनाव नहीं हो पा रहे हैं। इसी कारण राज्यसभा के चुनाव भी टाल दिए गए हैं। ऐसे में महाराष्ट्र में चुनाव होना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या प्रधानमंत्री की विशेष कृपा के बाद ही चुनाव होंगे? इससे चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं।

महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'अभूतपूर्व हस्तक्षेपÓ के बाद विधान परिषद का चुनाव संपन्न हो गया, साथ ही इससे एक नया सवाल यह खड़ा हो गया है कि महाराष्ट्र के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार में विधान परिषद और कई राज्यों में राज्यसभा के लिए लंबित उपचुनावों का क्या होगा, जो कोरोना संक्रमण के संकट की वजह से लॉकडाउन के चलते मार्च महीने में ही टाल दिए गए थे?

गौरतलब है कि इस वर्ष राज्यसभा की 73 सीटों और तीन राज्यों की विधान परिषद की करीब 50 रिक्त सीटों के द्विवार्षिक चुनाव प्रस्तावित थे। इनमें से 18 राज्यों से राज्यसभा की 55 और तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में विधान परिषद की करीब 28 सीटों के लिए बीती 26 मार्च को चुनाव होने थे, लेकिन मतदान से ठीक दो दिन पहले चुनाव आयोग ने कोरोना वायरस संक्रमण का हवाला देते हुए इन चुनावों को टाल दिया था। हालांकि राज्यसभा की 55 में से 37 सीटों का चुनाव निर्विरोध हो चुका है और राष्ट्रपति के मनोनयन कोटे की खाली हुई एक सीट भी सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के मनोनयन से भरी जा चुकी है। लेकिन अभी भी 7 राज्यों में राज्यसभा की 18 सीटों के चुनाव होना बाकी है। सवाल उठता है कि चुनाव आयोग अपने फैसले से पीछे हटते हुए 21 मई को सिर्फ महाराष्ट्र में ही विधान परिषद के चुनाव किस आधार पर करवा रहा है? यह सवाल इसलिए कि कोरोना महामारी के जिस संकट को आधार बनाकर चुनाव टाले गए थे, वह आधार तो अब भी कायम है और वह अभी आगे भी काफी समय तक कायम रहेगा।

चुनाव आयोग ने राज्यसभा की 18 सीटों और तीन राज्यों की विधान परिषद के चुनाव कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से अगले आदेश तक टाले जाने का फैसला 24 मार्च को जिस समय किया था, उससे चंद घंटे पहले ही मध्य प्रदेश विधानसभा की कार्यवाही चल रही थी और लगभग 114 विधायकों की मौजूदगी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्वास मत हासिल किया था। जाहिर है जब सत्र चला तब विधानसभा के तमाम अफसर, क्लर्क, सुरक्षा गार्ड और मीडियाकर्मी भी वहां मौजूद रहे होंगे।

मध्य प्रदेश विधानसभा के इस सत्र से एक दिन पहले तक संसद का बजट सत्र भी जारी था। 23 मार्च को दोनों सदनों में वित्त विधेयक पारित कराया गया था। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने चुनाव टालने का फैसला कोरोना वायरस संक्रमण को वजह बताते हुए किया। हालांकि राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव ऐसे नहीं हैं कि जिनमें बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हों। कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन होने के बावजूद सरकार के स्तर पर जिस तरह कई जरूरी और गैरजरूरी काम भी हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं, उसी तरह राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव भी हो सकते थे और अभी भी हो सकते हैं।

हालांकि ऐसा नहीं है कि इन चुनावों के बगैर कोई काम रुक रहा है, फिर भी अगर चुनाव आयोग चाहता तो ये चुनाव 26 मार्च को हो सकते थे। इनके लिए बहुत ज्यादा तैयारी करने की भी जरूरत नहीं थी। मिसाल के तौर पर झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों के चुनाव के लिए कुल 81 मतदाता हैं। आयोग चाहता तो तीन से पांच मिनट के अंतराल पर हर विधायक के वोट डालने की व्यवस्था की जा सकती थी। विधानसभा भवन में, जहां मतदान की प्रक्रिया संपन्न होती है, वहां दो-दो मीटर की दूरी पर विधायकों के खड़े होने का बंदोबस्त हो सकता था। मास्क और सैनिटाइजर का भी इंतजाम किया जा सकता था। इसी तरह गुजरात में राज्यसभा की 4 सीटों के लिए 177, मध्य प्रदेश में 3 सीटों के लिए 206, राजस्थान में 3 सीटों के लिए 200, आंध्र प्रदेश में 3 सीटों के लिए 175 और मणिपुर तथा मेघालय में एक-एक सीट के लिए 60-60 विधायक मतदाता हैं। इसी तरह महाराष्ट्र विधान परिषद की जिन 9 सीटों के लिए चुनाव होना हैं वे सभी विधानसभा कोटे की हैं, जिनके लिए 288 विधायकों को मतदान करना है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के लिए शिक्षक और स्नातक वर्ग की 11 सीटों के लिए और बिहार में इन्हीं वर्गों की 8 सीटों के लिए अलग-अलग जिला मुख्यालय पर वोट डलने हैं, जिसके लिए इंतजाम करना कोई मुश्किल काम नहीं है। मगर चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के बजाय चुनाव टालने का आसान रास्ता चुना। सवाल यही है कि जब चुनाव आयोग महाराष्ट्र विधान परिषद की 9 सीटों के लिए 21 मई को चुनाव कराने का ऐलान कर चुका था तो बाकी राज्यों में विधान परिषद और राज्यसभा के चुनाव टाले रखने का क्या औचित्य है? कोरोना संक्रमण का संकट तो अभी लंबे समय तक जारी रहना है।

इसी साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश की 10, कर्नाटक की चार, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर की एक-एक राज्यसभा सीट के लिए चुनाव होना है। इसी साल जुलाई में ही बिहार में राज्यपाल के मनोनयन और विधायकों के वोटों से चुनी जाने वाली विधान परिषद की 18 सीटें खाली होने वाली हैं। फिर नवंबर-दिसंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव भी होना है। मध्य प्रदेश में भी विधानसभा की 24 सीटों पर उपचुनाव सितंबर महीने से पहले कराए जाने की संवैधानिक बाध्यता है। आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर सहित कई राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों पर भी अभी रोक लगी हुई है। आखिर कोरोना संक्रमण के संकट को आधार बताकर इन सभी चुनावों को कब तक टाला जाता रहेगा?

बिहार के उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने संभावना जताई है कि आगामी विधानसभा चुनाव डिजिटल तरीके से होगा और लोग घरों में बैठे-बैठे ही मतदान कर पाएंगे। उनके इस बयान का सरकार में सहयोगी जेडीयू के साथ कई विपक्षी दलों ने भी कड़ा विरोध किया है। उनके इस बयान पर कई दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। सरकार में सहयोगी जनता दल-यूनाइटेड (जेडीयू) ने भी इस पर कड़ा विरोध किया है। जेडीयू के प्रधान महासचिव केसी त्यागी ने कहा, भाजपा नेता का यह प्रस्ताव अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक है। उन्होंने कहा कि बिहार में चुनाव परंपरागत तरीके से ही होना चाहिए। त्यागी ने कहा, चुनाव में आप डिजिटल प्रचार करोगे, रैली करोगे या प्रेस कॉन्फे्रंस करोगे, यह संभव नहीं है। इस बीच राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के प्रधान महासचिव माधव आनंद ने भी सुशील मोदी के इस सुझाव का विरोध किया है। उन्होंने कहा है, 'सुशील मोदी हमेशा पिछले दरवाजे से विधान परिषद में पहुंचते रहे हैं, वो लोकतंत्र का मतलब ही नहीं समझते हैं। उनकी इन बातों को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।Ó सुशील मोदी ने अपने बयान में कहा था, इस बार चुनाव में राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा डिजिटल माध्यम से वोट मांगते नजर आएंगे। राजनीतिक पार्टियां मोबाइल और टेलीविजन के जरिए वोट की अपील करती दिख सकती हैं। मतदाता भी डिजिटली ऑनलाइन वोटिंग भी करते दिख सकते हैं। बिहार में राजनीतिक दल डोर-टू-डोर कैम्पेन कर सकते हैं। बता दें कि बिहार में इसी साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होना है। लेकिन कोरोना वायरस संक्रमण के बीच चुनाव कराने को लेकर संशय की स्थिति बनी हुई है।

कोरोना संकट के चलते निर्वाचन आयोग ने गत तीन अप्रैल को आदेश जारी कर इन सभी सीटों के लिए चुनाव अगले आदेश तक  के लिए स्थगित कर दिए थे। इनमें महाराष्ट्र विधान परिषद की नौ सीटों के चुनाव भी शामिल थे, जिन्हें अब राज्य में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की मांग के  बाद कराया जा चुका है। सूत्रों के अनुसार चुनाव आयोग इन सीटों के लिए चुनाव कराने में जल्दबाजी नहीं करेगा, क्योंकि स्थितियां अभी सामान्य होती नहीं दिख रही हैं। सीटों के चुनाव न होने से कोई संवैधानिक संकट या बड़ी समस्या भी सामने नहीं आ रही है। इसके चलते इन सीटों के दावेदार कई बड़े नेताओं को अभी लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।

राज्यसभा चुनाव भी अधर में

कोरोना महामारी के चलते टाले गए राज्यसभा और दो राज्यों के विधान परिषद चुनाव जून से पहले होना संभव नहीं है। गौरतलब है कि राज्यसभा की 18 सीटों पर नामांकन प्रक्रिया के बाद मतदान न होने के कारण अभी तक लंबित हैं। इनमें आंध्र प्रदेश की चार, झारखंड की दो, मध्यप्रदेश की तीन, मणिपुर की एक, राजस्थान की तीन, गुजरात की चार और मेघालय की एक सीट शामिल है। उधर, गत दिनों मप्र की मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी (सीईओ) वीरा राणा ने भी विधानसभा पहुंचकर चुनाव की व्यवस्था संबंधी जानकारी ली। प्रदेश की तीन सीटों के लिए 26 मार्च को चुनाव होने थे, लेकिन लॉकडाउन के कारण उन्हें स्थगित कर दिया गया। अब फिर से सुगबुगाहट शुरू हुई है। सचिवालय से कई विधायकों को फोन करके स्वास्थ्य की जानकारी ली जा रही है। उनसे ये भी पूछा गया कि वे कहां हैं। सूत्रों के अनुसार यह जानकारी इसलिए ली जा रही है कि यदि कोई विधायक कोरोना प्रभावित है, तो उसके लिए राज्यसभा चुनाव के दौरान क्या व्यवस्था की जाए। इधर, सीईओ राणा ने उस स्थान का जायजा लिया, जहां राज्यसभा चुनाव कराए जाते हैं। वहां के हॉल को देखकर उन्होंने कहा कि यह छोटा है, वर्तमान हालात को देखते हुए किसी बड़े हॉल में चुनाव कराना पड़ेगा। 

चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में

यह सही है कि विधानसभा या लोकसभा के उपचुनाव और स्थानीय निकाय चुनावों में सीधे आम मतदाता की भागीदारी रहती है, लिहाजा कोरोना संकट के चलते अभी उनका चुनाव नहीं कराया जा सकता। लेकिन सीमित मतदाताओं के जरिए होने वाले राज्यसभा और विधान परिषद चुनावों को टालकर और प्रधानमंत्री के परोक्ष दखल से सिर्फ एक राज्य में चुनाव कराने का फैसला लेना बताता है कि चुनाव आयोग को भले ही संविधान ने एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय की हैसियत बख्शी हो, मगर चुनाव आयोग के मौजूदा नेतृत्व को यह हैसियत स्वीकार नहीं है। वह साफ तौर पर सरकार के आदेशपाल की भूमिका निभा रहा है। चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र की आधारशिला होती है, भले ही वह चुनाव पंचायत का हो या संसद का। किसी भी कारण से चुनावों का टाला जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। चुनाव आयोग के रवैए से कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर चलाए गए उस खतरनाक अभियान को भी बल मिलता है, जिसमें कहा गया है कि कोरोना महामारी के संकट के मद्देनजर देश में अगले दस वर्ष तक सभी तरह के चुनाव स्थगित कर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही दस वर्ष तक देश का नेतृत्व करने दिया जाए।

- इन्द्र कुमार

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