नए कृषि कानून को लेकर देश के कई राज्यों में किसान आक्रोशित हैं, लेकिन मप्र के किसान मंडी सिस्टम से खुश हैं। इसकी वजह यह है कि प्रदेश में सरकार ने कोरोनाकाल में गेहूं, चना, मूंग, उड़द, धान और चना के बाद हरड़, बहेड़ा, चिरोंजी के साथ लघु वनोपज खरीद की जो व्यवस्था बनाई, वह किसानों को भरोसा दिलाती है कि यहां उनके हित सुरक्षित हैं। इसलिए यहां का किसान कानून का विरोध नहीं कर रहा है।
नए कृषि कानून के विरोध में दिल्ली में पंजाब, हरियाणा, उप्र सहित कई राज्यों के किसान आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन मप्र के किसान इसमें शामिल नहीं हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मप्र के अन्नदाताओं को विश्वास है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं तो उनका विकास निर्बाध होता रहेगा। दरअसल, पिछले 9 माह के दौरान कोरोना महामारी का संकट होने के बावजूद शिवराज और उनकी सरकार ने किसानों के साथ ही हर वर्ग का जिस तरह ख्याल रखा है, उससे उनके प्रति जनता का विश्वास प्रगाढ़ हुआ है।
मप्र में इस समय सीमांत व छोटे किसान मिलाकर कुल 1.10 करोड़ काश्तकार हैं। इनमें से 50 लाख किसानों पर कर्ज है। लेकिन उसके बावजूद किसान खुशहाल हैं। इसकी वजह यह है कि शिवराज सरकार किसानों के साथ खड़ी है। यही कारण है कि प्रदेश के लाखों किसानों को आलू-प्याज और सब्जियों पर एमएसपी का इंतजार है, फिर भी किसान आंदोलन में शामिल नहीं, क्योंकि अनाज-दलहन-तिलहन पर एमएसपी और मंडियों की व्यवस्था से 80 प्रतिशत तक किसान संतुष्ट हैं। हालांकि कुछ मांगें ऐसी हैं, जो पूरी हो जाए तो किसानों को सीधा फायदा मिलेगा।
दरअसल मप्र गांवों का प्रदेश है और यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान है। मुख्यमंत्री स्वयं किसान परिवार से संबंध रखते हैं और किसानों की समस्याओं के निराकरण को लेकर वे बेहद संवेदनशील रहे हैं। यही कारण है कि मप्र के किसानों ने बीते कुछ वर्षों में सफलता के कीर्तिमान गढ़े हैं और अब किसान कल्याण और कृषि उत्पादन में प्रदेश का नाम देश के अग्रणी राज्यों में शुमार किया जाने लगा है। इस समय समूचा विश्व कोरोना की महामारी को झेल रहा है। इसका प्रभाव हमारे रोजमर्रा के जीवन पर भी पड़ा है और समाज के सभी वर्ग इससे प्रभावित हुए हैं। अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चुनौती का समय होने के बाद भी किसानों के हितों पर कोई आंच न आए, इसका ध्यान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा बखूबी रखा जा रहा है। समय-समय पर किसानों को राहत राशि ट्रांसफर की जा रही है। उधर, किसानों द्वारा रबी सीजन में की गई कड़ी मेहनत को पूरे देश में सराहा गया है। इस वर्ष गेहूं उत्पादन में प्रदेश के किसानों ने जो इतिहास रचा, उससे मप्र देश का अग्रणी राज्य बनकर उभरा है। किसानों की इस उपलब्धि के ऐवज में राज्य सरकार द्वारा किसानों को 25 हजार करोड़ रुपए की राशि का भुगतान किया गया। यही नहीं प्रदेश सरकार ने किसानों से तिवड़ा लगा चना भी खरीदा। पूर्व में 13 क्विंटल चना खरीदी की अनुमति थी, जिसे बढ़ाने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से चर्चा कर चना खरीदी लिमिट को 20 क्विंटल तक बढ़ाया गया। पूर्व में मप्र के 35 लाख किसानों को प्रधानमंत्री सम्मान निधि का लाभ मिलता था, जिसे राज्य सरकार ने बढ़ाकर 77 लाख किसानों तक कर दिया है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से प्रदेश का किसान लाभान्वित हो, इसका बेहतर प्रबंधन शिवराज सरकार द्वारा किया गया और वर्ष 2020 में पुन: सरकार में आते ही किसानों की प्रधानमंत्री फसल बीमा की पुरानी किश्त भरने का काम किया जिसका भरपूर लाभ प्रदेश के किसानों को मिला है। फसल बीमा की न्यूनतम राशि को लेकर सरकार नए नियम बनाने के लिए आगे बढ़ रही है और जिसका लाभ हमारे किसान परिवारों को मिलेगा। प्रदेश के किसानों को अब फूड प्रोसेसिंग से भी जोड़ा जा रहा है, जिससे उनके द्वारा उत्पादित कच्चे माल का उपयोग फूड प्रोसेसिंग में कर रोजगार भी बढ़ाए जाएंंगे। जैविक खेती को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। जिले की उद्यानिकी फसल को पहचान दिलाने की कोशिशें भी प्रारंभ की गई हैं। किसानों के हितों की सुरक्षा के लिए सहकारी बैंक का भरोसा बेहद जरूरी है। इस दिशा में मुख्यमंत्री ने 1500 करोड़ रुपए भरने का ऐलान कर दिया है। साथ ही भावांतर के 470 करोड़ रुपए भी देने की घोषणा की है।
देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक कृषि पर निर्भर करती है। देश की आधी से अधिक आबादी की आजीविका खेती पर निर्भर है। मौजूदा समय में कृषि, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 14 प्रतिशत से अधिक का योगदान करती है और देश के श्रमिकों के 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से को आजीविका प्रदान करती है। कोविड-19 की वजह से पैदा आर्थिक मंदी के बीच 2020-21 में आर्थिक स्थिरता के लिए इसका योगदान और भी अधिक होने की उम्मीद है। मप्र का देश की जीडीपी में मप्र का योगदान 5 प्रतिशत है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 30 से 35 प्रतिशत योगदान किसानों का है। इस बात को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भलीभांति समझते हैं। इसलिए सरकार की प्राथमिकता में किसान हैं। भारतीय किसान सेना के प्रदेशाध्यक्ष केदार पटेल और सचिव जगदीश रावलिया का कहना है किसानों की ताकत को भाजपा सरकार ने पहचाना है। यही कारण है कि पिछले एक दशक में मप्र का किसान सबल हुआ है।
मप्र के किसान दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं कि नए कृषि कानूनों से किसानों का कोई नुकसान हो सकता है। इसकी ठोस वजह है। मप्र के किसानों ने हाल में 2,150 रुपए प्रति क्विंटल एमएसपी पर बाजरे की उपज बेची है जो देश के अधिकतर राज्यों के मुकाबले अधिक है। नए कृषि कानून के तहत पड़ोसी राज्यों के किसानों ने भी मप्र के क्रय केंद्रों पर बाजरा बेचा। चूंकि राज्य सरकार लक्ष्य से अधिक बाजरा खरीदने को तैयार थी, इसलिए किसी तरह का विवाद नहीं हुआ। जाहिर है, राज्य में नए कृषि कानूनों का डंका बजने लगा है। किसानों को इनका लाभ मिलने लगा है। होशंगाबाद जिले का मामला उल्लेखनीय है। इसे नए कृषि कानून का पहला प्रभाव माना जा रहा है। दरअसल, एक कंपनी ने किसानों से अनुबंध किया कि वह मंडी से 50 रुपए अधिक मूल्य पर उनका धान खरीदेगी। गत 9 दिसंबर को जिले की पिपरिया मंडी में धान की कीमत 2,950 रुपए प्रति क्विंटल पहुंच गई। अनुबंध के मुताबिक किसान अपनी उपज 3,000 रुपए की दर पर बेचना चाहते थे तो कंपनी टालमटोल करने लगी। इसकी शिकायत मिलने पर स्थानीय प्रशासन सक्रिय हुआ और नए कानून के तहत कंपनी को तय अनुबंध पर धान खरीदने पर बाध्य किया।
होशंगाबाद के किसान मानते हैं कि यह नए कृषि कानून से संभव हुआ, अन्यथा कंपनी इस मूल्य पर उनका उपज नहीं खरीदती। यह देखने की बात है कि क्या किसी अन्य राज्य में धान की खरीद 3,000 रुपए मूल्य पर हुई? दरअसल, किसानों का हित किसी हद तक राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। मप्र सरकार की नीतियां किसान-हितैषी हैं। इस राज्य में अधिकतर जिंसों का एमएसपी पंजाब और हरियाणा से भी अधिक है। इसके अलावा, राज्य में एमएसपी से कम मूल्य पर किसी भी उपज की बिक्री नहीं होती है। राज्य में भावांतर योजना भी प्रभावी है जिसके तहत यदि किसान की उपज एमएसपी से कम मूल्य पर बिकती है तो अंतर की भरपाई खुद राज्य सरकार करती है। यही वजह है कि इस राज्य में एमएसपी या नए कृषि कानूनों को लेकर एक भी विवाद नहीं है।
किसान आंदोलन के नाम पर देश के दूसरे राज्यों में जहां गरमाहट है, वहीं मप्र में सन्नाटा है। किसान अपने काम में व्यस्त हैं। दिल्ली के किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले बड़े चेहरों में एक राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा कक्काजी मप्र के हैं। उनके खाते में वर्ष 2011 में भोपाल का ऐतिहासिक महाजाम आंदोलन शामिल है, लेकिन इस बार दिल्ली आंदोलन की धमक से मप्र के किसान बेफिक्र हैं। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि दिल्ली आंदोलन में कक्काजी की उपस्थिति के बावजूद आखिर मप्र में सन्नाटा क्यों है? दरअसल, प्रदेश में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान, बाजरा, ज्वार की खरीद चल रही है। किसान अपनी उपज बेचने और नई फसल की देखरेख में जुटा है। इसके पीछे राज्य सरकार की वह अनूठी पहल है जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिला रही है।
नए कृषि कानून से किसानों को ऐसे हो रहा फायदा
नए कृषि कानून का असर अब दिखना शुरू हो गया है, किसानों को इससे बड़ा फायदा हो रहा है। मप्र में दो मामले ऐसे सामने आए हैं, जिसमें नए कृषि कानून ने किसानों की बड़ी मदद की। पहला मामला डबरा क्षेत्र का है, जहां प्रशासन किसानों की कमाई लेकर भागे व्यापारी की संपत्ति कुर्क कर उन्हें पैसा लौटाएगा। वहीं दूसरा मामला बालाघाट का है जहां किसानों का पैसा न देने पर राइस मिलर पर मामला दर्ज होगा। इसी तरह होशंगाबाद जिले में पिपरिया एसडीएम ने नए कृषि कानून के तहत कंपनी को किसानों से अनुबंध के आधार पर धान खरीदने का आदेश दिया था। इसके पहले कंपनी अनुबंध पर तय किए गए दाम के मुताबिक खरीदी नहीं कर रही थी, जिसके बाद किसान अपनी शिकायत लेकर पहुंचे थे और 24 घंटे के अंदर ही उन्हें न्याय मिला। वहीं डबरा क्षेत्र में किसानों की उपज का 40 लाख रुपए भुगतान नहीं करके भाग गए एक व्यापारी की संपत्ति कुर्क होगी। ग्वालियर जिला प्रशासन कुर्क संपत्ति से किसानों का पैसा वापस दिलाएगा।
खेती का कायाकल्प होगा
संघ के एक नेता कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए मोदी सरकार के नए कानूनों का किसानों के एक वर्ग द्वारा तीखा विरोध जारी है। इन किसानों के मन में शंका है कि नए कृषि कानूनों से उनकी आमदनी खतरे में पड़ सकती है। यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भरोसा दिला चुके हैं कि न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी व्यवस्था समाप्त होने जा रही है और न ही मंडी व्यवस्था। इससे किसानों को आश्वस्त होना चाहिए, लेकिन वे उलटे आक्रोशित हो रहे हैं। कुछ राजनीतिक दल इन किसानों का भ्रम और बढ़ा रहे हैं। केंद्र ने जो तीन कृषि कानून बनाए हैं, उनकी लंबे अर्से से प्रतीक्षा की जा रही थी। जैसे आवश्यक वस्तु अधिनियम की व्यवस्था तब बनाई गई थी, जब हम अपनी आबादी का पेट भरने में ही सक्षम नहीं थे। इसके उलट आज ऐसे अधिशेष की स्थिति है कि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआई के गोदामों में अनाज रखने के लिए पर्याप्त जगह ही नहीं है। ऐसे में भारत को खाद्यान्न के मोर्चे पर अकाल से अधिशेष की स्थिति का लाभ उठाने की दिशा में अग्रसर होना ही होगा। इसी कारण सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का उचित फैसला किया है।
- नवीन रघुवंशी