21-Aug-2014 06:42 AM
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पुणे के निकट मालिन गांव के निवासी अपने गांव के नजदीक बहने वाली एक नदी के निकट श्मशान घाट बनवा रहे थे। उन्हेें क्या पता था कि इसी श्मशान में जलने को आधा गांव शीघ्र ही पहुंचने

वाला है।
29 जुलाई को जब अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने शाम के समय नलिन गांव के आसपास भूस्खलन की चेतावनी दी तो उसे नजरअंदाज किया गया और अगले ही दिन पास के पहाड़ की मिट्टी ने पूरे गांव को ढंक दिया जिससे 136 लोगों की मौत हो गई तथा गांव का गांव कीचड़ में समा गया। देखा जाए तो किसी भूस्खलन वाले क्षेत्र में 175 मिमी से अधिक बारिश 24 घंटे के अंदर हो जाए तो वहां सुरक्षात्मक उपाय किए जाने चाहिए या फिर लोगों को हटा देना चाहिए क्योंकि गीली मिट्टी पहाड़ से नीचे की तरफ धसकने लगती है लेकिन 29 और 30 जुलाई के बीच इस इलाके में भारी बारिश के बावजूद प्रशासन नहीं चेता और समीप के पहाड़ से बही मिट्टी की कीचड़ ने गांव को ढंक दिया। 53 पुरुष 65 महिलाओं और 18 बच्चों के शव निकाले जा चुके हैं। मरने वालों का आंकड़ा 160 से ऊपर है। लाशें सड़ रही हैं। इस गांव में 10 फीट से ज्यादा कीचड़ जमा हो गई है ऐसा लग रहा है जैसे किसी प्राचीन गांव की खुदाई की जा रही है जो हजारों वर्ष पहले से मलबे में दबा पड़ा हो। बमुश्किल चार-पांच घर इस गांव में बच पाए। घर, खेत, खलिहान, इंसान और 35 फुट ऊंचा मंदिर सब जमीन के नीचे दब गए नजर आ रहा है केवल कीचड़, मलबा। भूस्खलन इतना विनाशक था कि परिवार के परिवार इसमें उजड़ गए। न कोई रोने वाला बचा और न अंतिम संस्कार करने वाला। राहत व बचाव कार्य भारी बारिश के बीच किसी तरह प्रारंभ किया गया तो उसमें भी अड़चनें आ रही हैं। किस घर से कितने लोग इस भूस्खलन का शिकार हुए और कितने बच पाए, इसका हिसाब फिलहाल तो लगाना मुश्किल है। लेकिन घटना के कारणों का हिसाब लगाना कठिन नहीं है। बाढ़, अकाल, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पीछे दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ करने की इंसानी फितरत जिम्मेदार होती है, मालिण गांव भी इस प्रवृत्ति का ही शिकार हुआ है। चारों तरफ पहाड़ी से घिरे इस आदिवासी गांव में चावल की खेती ही मुख्य तौर पर होती है। प्रकृति बारिश का धन दोनों हाथों से यहां लुटाती रही है। लेकिन थोड़ा और पाने का लालच रखने वाले लोगों की वक्र दृष्टि गांव के पास की पहाड़ी पर पड़ गई। पर्यावरण मंत्रालय के निर्देशों को धता बताते हुए इस पहाड़ी पर गलत तरीके से रास्ते का निर्माण किया गया। उद्योगों के लिए प्लाटिंग की गई। पहाड़ी का जंगल काट दिया गया। बारिश में पहाड़ की मिट्टी को बहने से थामने वाले पेड़ नहीं रहे तो बारिश के साथ मिट्टी बहती हुई नीचे आ गई।
वर्ष 2012 में केन्द्रीय वन एवं पर्याïवरण मंत्रालय ने पश्चिमी घाटों की पारिस्थितिकी के संरक्षण व विकास के लिए एक उच्च स्तरीय कार्य समूह गठित किया था। इस समूह द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के कई गांव पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील माने गए, मालिण गांव भी उनमें से एक है। इन संवेदनशील इलाकों में किसी भी किस्म का निर्माण कार्य या औद्योगिक कार्य करने से पहले काफी एहतियात बरतनी चाहिए, ताकि इनकी प्राकृतिक बनावट पर कोई असर नहीं पड़े। मालिण के पास की पहाड़ी में यह सावधानी नहीं बरती गई। महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु तक 15 सौ किमी के दायरे में फैला पश्चिमी घाट अपनी अद्भुत सुंदरता से सबका मन मोह लेता है। इन राज्यों के अनेक पर्यटक स्थल पश्चिमी घाटों की बदौलत ही आबाद हैं। इस प्राकृतिक सुंदरता को मशीनों से विकृत करने पर नुकसान के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा, किंतु उद्योगपति इसमें ही अपना मुनाफा देखते हैं। उनके इस मुनाफे में वे राजनेता और अधिकारी भी हिस्सा प्राप्त करते हैं, जिनकी बदौलत पहाड़ों को नष्ट करने की अनुमति नियमों को किनारे कर दी जाती है। उत्तराखंड की आपदा में भी यही बात प्रमुखता से सामने आयी थी कि अगर यहां की प्राकृतिक संरचना से छेड़छाड़ न की जाती तो इतने बड़े पैमाने पर तबाही नहीं मचती। मालिण में भी यही तथ्य उभर कर आ रहा है। भारत में हुई प्राकृतिक आपदाओं में अधिकांश में यही बात सामने आई है कि यह मनुष्य द्वारा प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का नतीजा है। साल दर साल हम ऐसे नतीजे भुगत रहे हैं, फिर भी सबक सीखने तैयार नहीं हैं।
प्रकृति का यह खूनी खेल हर वर्ष उन इलाकों में खेला जाता है जहां की भूमि अपेक्षाकृत कमजोर है और जहां पहाड़ों से मिट्टी बारिश के समय तेजी से धसकती है। महाराष्ट्र, बिहार, यूपी के कुछ इलाके और उत्तराखण्ड, कश्मीर से लेकर देश के अन्य इलाकों में हर वर्ष बारिश के समय ये आशंका बनी रहती है। सवाल यह उठता है कि ऐसे इलाकों में घर बनाने की अनुमति ही क्यों दी जाती है। भूस्खलन एक प्राकृतिक घटना है, जिसे रोकना संभव नहीं है। इसलिए एहतियात के तौर पर ऐसे इलाकों में जनता की रिहाइश को प्रतिबंधित किया जाता है लेकिन अब कानून बनाने की जरूरत है। महाराष्ट्र ही नहीं बिहार में भी कोसी नदी के किनारे भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं। हाल ही में कोसी नदी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोगों को हटाया गया है। बिहार के 9 जिलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। नेपाल के सिंधुपाल चौक जिले के जूरे में भूस्खलन के बाद भोटे कोशी में बांध बन गया। भूस्खलन से वहां 28 से 32 लाख क्यूसेक तक पानी जमा है। यह जगह काठमांडो के उत्तर और बिहार-नेपाल की सीमा से करीब 260 किलोमीटर की दूरी पर है। भूस्खलन के मलबे को आंशिक रूप से हटाने के लिए नेपाली सेना ने कम क्षमता के दो विस्फोट कर 1.25 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा। इससे बिहार में कोशी का जलस्तर बढ़ गया ।
कहां कितनी मौतें
उड़ीसा में बाढ़ के चलते 39 की मौत।
असम में बाढ़ के कारण 2 लोगों की मौत।
केरल में तेज बारिश से 13 लोगों की मौत।
बिहार के अररिया, कटिहार एवं सुपौल में बिजली गिरने से 10 की मृत्यु।
भोपाल में भारी बारिश के कारण दीवार गिरी 2 की मौत।
एक इमारत झुकने के बाद डायनामाइट से उड़ाई गई।
उत्तराखंड में चार धाम यात्रा ठप। बारिश-भूस्खलन से 30 मौतें।
हरियाणा, गुजरात, बंगाल, उत्तर प्रदेश में भी तबाही। सेना के हैलीकॉप्टरों द्वारा बचाव
Ritendra Mathur