कोरोना संकट के बीच मप्र की खाली पड़ी 24 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। चुनाव आयोग के साथ ही भाजपा और कांग्रेस ने भी अपने-अपने स्तर पर तैयारी शुरू कर दी है। कांग्रेस ने जहां प्रत्याशियों की तलाश शुरू कर दी है। वहीं भाजपा सभी सीटों को जिताने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को दी है। भाजपा को उम्मीद है कि यह त्रिमूर्ति सभी सीटों को जीताकर कांग्रेस को करारा जवाब देंगे।
मप्र में 24 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव शिवराज सरकार का भविष्य तय करेंगे। 230 सदस्यीय मप्र विधानसभा में बहुमत के लिए 116 विधायक होने चाहिए। भाजपा के पास अभी 107 विधायक हैं। 22 विधायकों के इस्तीफे और दो विधायकों के निधन के कारण सदन की सदस्य संख्या 206 रह गई है। इस आधार पर शिवराज की सरकार ने सदन में विश्वास मत जीत लिया। उसे बसपा के दो, सपा के एक और दो निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन मिल गया। विधानसभा की खाली 24 सीटों के लिए उपचुनाव में कम से कम 10 सीटें जीतकर लाना होगा, तभी बहुमत के आंकड़े को वह छू सकेगी। लेकिन भाजपा ने सभी 24 सीटों का जीतने का टारगेट बनाया है और उसे 'मिशन 24’ नाम दिया है। इस मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, और नरेंद्र सिंह तोमर को दी है।
गौरतलब है कि उपचुनाव वाली 24 सीटों में से अधिकांश चंबल, मालवा और मध्य भारत क्षेत्र की हैं। ये सिंधिया, तोमर और शिवराज के प्रभाव वाली सीटें हैं। इसलिए भाजपा आलाकमान ने इन तीनों नेताओं को इन सीटों का जिताने की जिम्मेदारी दे दी है। दरअसल, ये उपचुनाव बागी विधायकों के लिए आसान नहीं होने वाले हैं, पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति वफादारी दिखाने वाले इन माननीयों की राह में कांग्रेसियों के अलावा पहले के प्रतिद्वंद्वी रहे भाजपाई भी कांटे बिछाने में सक्रिय हो गए हैं। इससे इनका सियासी कैरियर भी दांव पर लग गया है।
गौरतलब है कि मप्र के दो विधायकों के निधन और कांग्रेस के 22 बागी विधायकों के इस्तीफे से रिक्त विधानसभा की कुल 24 सीटों पर एक साथ उपचुनाव होने हैं। जिन सीटों पर चुनाव होने हैं वे हैं-जौरा, आगर (अजा), ग्वालियर, डबरा (अजा), बमोरी सुरखी, सांची (अजा), सांवेर (अजा), सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह (अजा), मेहगांव, गोहद (अजा), ग्वालियर (पूर्व), भांडेर (अजा), करैरा (अजा), पोहरी, अशोकनगर (अजा), मुंगावली, अनूपपुर (अजजा), हाटपिपल्या, बदनावर, सुवासरा। इनमें से 16 सीटें सिंधिया के गढ़ ग्वालियर-चंबल संभाग की हैं। जौरा सीट पर भाजपा को नए प्रत्याशी की खोज है। वहीं 15 अन्य सीटों पर वही प्रत्याशी उतारे जाएंगे, जो 2018 में कांग्रेस से चुनाव जीते थे। वहीं कांग्रेस को इन सभी सीटों पर नए प्रत्याशी की खोज है। 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव परिणाम पर भाजपा और कांग्रेस का भविष्य टिका है। अगर भाजपा करीब एक दर्जन सीटें जीत लेती है तो वह सत्ता में बनी रहेगी। वहीं अगर कांग्रेस अपनी कब्जे वाली सीटों को जीत लेती है तो वह सत्ता में आ जाएगी। ऐसे में ये उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। भाजपा के प्रत्याशियों के सामने दोहरी चुनौती है, वहीं कांग्रेस को अपने ही नेताओं और कार्यकर्ताओं से भितरघात का खतरा है। ऐसे में भाजपा की त्रिमूर्ति के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।
मध्यप्रदेश के इतिहास में पहली मर्तबा 24 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव की परिस्थितियां पैदा हो गई हैं और चुनाव परिणाम तक प्रदेश की सियासत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी। उपचुनाव परिणाम के नतीजे क्या होंगे उसके मुख्य किरदारों की भूमिका में शिवराज, ज्योतिरादित्य, तोमर और कमलनाथ ही होंगे, क्योंकि मतदाताओं के सामने ये चार चेहरे होंगे और 22 दलबदलू विधायकों की चुनावी वैतरणी पार लगेगी या नहीं यह इनके अपने-अपने करिश्मे पर निर्भर करेगी। जहां तक शिवराज का सवाल है चौथी बार प्रदेश की कमान संभलाते ही उन्हें अकेले वन-मेन आर्मी की तरह चुस्ती-फुर्ती, मुस्तैदी तथा दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ विश्वव्यापी कोरोना महामारी की जंग में कूदना पड़ा। जब उन्होंने सत्ता की बागडोर संभाली तो उनके सामने केवल यही अकेली चुनौती नहीं थी बल्कि उनके सामने और भी अनेक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। पहली चुनौती है 24 विधानसभा सीटों के उपचुनावों में से कम से कम आधे से अधिक सीटों पर भाजपा की विजय पताका लहराना। मप्र में शिवराज सिंह चौहान एकमात्र नेता हैं जिनका जादू गांव-कस्बों से लेकर शहर तक एक समान है। शिवराज आज भी लोगों के दिलों-दिमाग पर छाए हुए हैं। यही कारण है कि जब प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ तो आलाकमान ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाने में तनिक भी झिझक नहीं दिखाई। शिवराज चौथी बार मुख्यमंत्री तो बन गए हैं, लेकिन उनके सामने कोरोना वायरस के संक्रमण के रूप में बड़ी चुनौती खड़ी है। इस चुनौती के खत्म होते ही उपचुनाव का पहाड़ सामने आ जाएगा। मुख्यमंत्री होने के नाते शिवराज पर सभी 24 विधानसभा सीटों की जिम्मेदारी है। एक तो उन्हें अपनी सरकार बचाना है, वहीं आलाकमान के टारगेट को भी पूरा करना है। इसलिए उनके सामने चुनौतियों की भरमार है। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी है कि सभी सिंधिया समर्थक पूर्व विधायकों से शिवराज सिंह चौहान के व्यक्तिगत संबंध और घनिष्ठता बहुत जबर्दस्त है। इस लिहाज से भी स्वाभाविक तौर पर उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है। प्रदेश में उनकी लोकप्रियता ज्यादा है और प्रदेश में उनकी तरह का दूसरा कोई नेता नहीं है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि पार्टी ने उन पर उपचुनाव जिताने की जिम्मेदारी बड़ी सोच-समझकर सौंपी है। सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों के साथ उनके समीकरण भी अच्छे हैं। इसलिए शिवराज इन सीटों को जीतने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे।
गौरतलब है कि शिवराज की मध्य क्षेत्र के मतदाताओं में जितनी पकड़ है, उतनी ही प्रदेश के अन्य क्षेत्र के मतदाताओं में। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर-चंबल अंचल ने ही चौथी बार सरकार बनाने में बैरिकेड्स लगा दिया था। एक बार फिर ग्वालियर-चंबल अंचल को तय करना है कि भोपाल में शिवराज सरकार रहेगी या फिर कमलनाथ सरकार की वापसी होगी। क्योंकि उपचुनाव में अंचल की 16 विधानसभा सीटों पर चुनाव होना हैं। इन 16 विधानसभा क्षेत्रों से चुने गए विधायकों के कारण ही कांग्रेस सरकार से बाहर हुई है। इन सभी पूर्व विधायकों ने शिवराज पर भरोसा जताया है। इसलिए उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है।
भाजपा आलाकमान ने उपचुनाव जीतने के लिए जो त्रिमूर्ति बनाई है, उसमें सबसे अधिक भार सिंधिया पर होगा। दरअसल, सिंधिया के सामने हिमालयीन चुनौती है सभी 22 दलबदलुओं को चुनावी वैतरणी पार कराना। क्योंकि उन्होंने अगाध श्रद्धा और एक सीमा तक स्वयं के हितों को साधने के लिए दलबदल किया एवं पिछले चुनाव में जो जनादेश कांग्रेस को मिला था उसे उलट दिया। ज्योतिरादित्य को सही मायनों में इन उपचुनावों में एक प्रकार की अग्नि परीक्षा से होकर गुजरना पड़ेगा और उनके साथ गए अधिकांश विधायक दोबारा नहीं जीत पाए तो फिर उनका भी राजनीतिक कद और महत्ता उस अंचल में भाजपा की नजर में कम हो जाएगी जिसे वे अपना इलाका मानते हैं। जहां तक उनका स्वयं का सवाल है वे स्वयं अपने ही गृह निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार से 2019 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गए थे इसलिए इन उपचुनावों में उनके सामने एक और मौका है कि वे यह साबित करें कि उनकी पकड़ अभी भी मजबूत है। लेकिन यह इलाका एक-दो अपवादों को छोड़कर भाजपा का मजबूत गढ़ रहा है और भाजपा के बड़े नेता नरेंद्र सिंह तोमर, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा, डॉ. नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा, अनूप मिश्रा, जयभान सिंह पवैया भी इसी क्षेत्र के हैं। इन सब लोगों ने लगातार संघर्ष कर भाजपा की जड़ें काफी गहरे तक जमा दी हैं। इन सबके चलते भी यहां की अधिकांश सीटें उपचुनाव में जीतने के बाद भी ज्योतिरादित्य उतना बड़ा श्रेय नहीं ले पाएंगे जितना वे कांग्रेस की जीत के लिए लेते रहे हैं।
दलबदलुओं को आसानी से चुनाव जिताना स्वयं सिंधिया के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि अब कांग्रेस जोरशोर से इस बात का प्रचार करेगी कि इन्होंने जनादेश के साथ छल किया है तो दूसरे सिंधिया ने भी किसी बड़े पद की आकांक्षा में कांग्रेस छोड़ी है। सिंधिया राजपरिवार की पुरानी पृष्ठभूमि को भी अब कांग्रेसजन जोरशोर से उठाने की कोशिश करेंगे। इन सबके बीच मतदाताओं के गले कौन-सी बात उतरती है यह उपचुनाव के नतीजों से ही पता चलेगा।
तोमर का प्रभाव दांव पर
मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार वापस लाने में केंद्रीय मंत्री और पार्टी नेता नरेंद्र सिंह तोमर की बड़ी और निर्णायक भूमिका रही है। मिशन कमल को गुपचुप तरीके से चलाने और ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा खेमे में लाने की व्यूह रचना में तोमर बड़े रणनीतिकार बनकर उभरे हैं। ये तब है कि जब नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों की राजनीति ही ग्वालियर संभाग में परस्पर विरोध के आधार पर ही चलती है। चंबल और ग्वालियर संभाग में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया था और वर्चस्व की लड़ाई अपने नाम कर ली थी। दोंनों ही नेताओं में राजनीतिक अदावत पुरानी रही है। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व के कहने पर मिशन कमल को सफल बनाने के लिए नरेंद्र सिंह तोमर ने ज्योतिरादित्य से गुपचुप दिल्ली में कई दौर की बातचीत की। अब तोमर के सामने उपचुनाव में सभी 24 विधानसभा सीटों को जिताने की जिम्मेदारी है। मप्र की राजनीति में तोमर और शिवराज की दोस्ती ख्यात है। तोमर हमेशा समन्वय की राजनीति करते आए हैं।
उपचुनावों में सिंधिया को सबक सिखाने की तैयारी
उधर, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ अब बागी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और 22 पूर्व विधायकों को नाकों चने चबवाने की तैयारी कर रहे हैं। कमलनाथ को भरोसा है कि सिंधिया और भाजपा दोनों को मुंह की खानी पड़ेगी। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के कद्दावर नेता गोविंद सिंह को भी लग रहा है कि उपचुनाव में भाजपा और सिंधिया दोनों को पता चल जाएगा कि उनकी क्या हैसियत है। गोविंद सिंह कहते हैं कि सिंधिया जानते हैं कि उपचुनाव आसान नहीं होगा। इसलिए वह शिवराज मंत्रिमंडल से लेकर केंद्र सरकार में अधिक से अधिक सत्ता पा लेना चाहते हैं। अभी जितना चाहें दबाव बनाकर भाजपा को पिघला लें, लेकिन बाद में मुश्किल होगी। ग्वालियर में लाखन सिंह, मुरैना में कांग्रेस जिलाध्यक्ष और रवींद्र सिंह तोमर जैसे कई नेताओं के बूते कांग्रेस बड़ी चुनौती देगी। बता दें ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस के पास गोविंद सिंह और केपी सिंह, ये दो बड़े विधायक नेता हैं। सिंधिया से विरोध करके भी ये चुनाव नहीं हारे। गहरी पकड़ रखते हैं। इस समय कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के लिए न केवल भरोसेमंद हैं, बल्कि सिंधिया के खिलाफ मजबूत हथियार हैं। गोविंद सिंह का कहना है कि कांग्रेस में वे 'महाराज’ ज्योतिरादित्य सिंधिया थे। हाईकमान तक पहुंच थी और दबाव बनाकर 40-50 नेताओं को टिकट दिलवाते थे। इनमें से अधिकांश हार जाते थे। जिन्हें सिंधिया को नजरअंदाज करके टिकट मिलता था, खुल्लम-खुल्ला उन्हें हरवाने में लग जाते थे। कोई कुछ बोल नहीं पाता था। यहां जनता तो जनता, नेता से भी हाथ नहीं मिलाते थे। समय नहीं रहता था। वहां (भाजपा) नेताओं के चक्कर काट रहे हैं।
- कुमार विनोद