भारत इस समय चीन के साथ मोर्चा लड़ा रहा है। साथ ही अन्य पड़ोसी देशों से भी जूझ रहा है। ऐसे समय में पूरा देश एक सूत्र में बंधा नजर आ रहा है। लेकिन राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रनीति के समय में राजनीति कर रही हैं। चाहे वह सत्तारूढ़ भाजपा हो या कांग्रेस या अन्य पार्टी। सबकी यही कोशिश है कि वे किस तरह एक-दूसरे को नीचा दिखाए। इससे पूरे विश्व समुदाय में यह संदेश जा रहा है कि भारत अपनी एकता और अखंडता को लेकर एक मत नहीं है। इसलिए पार्टियां इस समय राष्ट्रनीति पर अपना फोकस करें।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक लेह यात्रा की अलग-अलग नजरिए से व्याख्या संभव है, लेकिन सच यही है कि अपनी चौंकाने वाली कार्यशैली के इस नवीनतम और सबसे महत्वपूर्ण कदम से उन्होंने एक साथ कई निशाने साधे हैं, कई संदेश दिए हैं। यह संदेश बिना संवेदनशीलता महसूस किए हर मुद्दे पर राजनीति करने के आदी राजनीतिक दलों से लेकर भारत की शांतिप्रियता को कमजोरी समझने वाले चीन और भारत के अहसान भुलाकर चीन के पिट्टू बनने को उतावले कुछ देशों तक सभी के लिए है। अब चाहे इसे मोदी का 'मास्टर स्ट्रोक’ कहें या फिर 'सरप्राइज स्ट्राइक’ मोदी ने अपनी शैली में सभी को जवाब दे दिया है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की त्वरित टिप्पणी बताती है कि संदेश सही जगह, सही रूप में पहुंच भी गया है। बाकी की प्रतिक्रियाएं आने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा।
गत 15 जून को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों से हिंसक भिड़ंत और उसमें 20 भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद बने माहौल में बढ़ता तनाव हर कोई महसूस कर रहा है। जाहिर है, चीन ने एक बार फिर अपने विश्वासघाती चरित्र का ही परिचय दिया था, लेकिन अतीत से सबक सीखे बिना बार-बार विश्वासघाती पर विश्वास करना भी काबिले तारीफ तो नहीं माना जा सकता। अभूतपूर्व कोरोना महामारी और लॉकडाउन के समय इस मुद्दे पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हुई सर्वदलीय बैठक में गोपनीयता समेत तमाम कारणों से सरकार की अपनी सीमाएं रही होंगी। फिर भी सभी दलों ने इस मुद्दे पर एकजुटता का ही संदेश दिया था, लेकिन उसके बाद अलग-अलग राजनीतिक राग अलापने में भी देर नहीं लगी।
राजनीति बुरी बात नहीं है। सवाल पूछना तो लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है, लेकिन हर चीज का समय और सीमा होती है। अगर कोरोना से लेकर गलवान घाटी तक हर मुद्दे पर आलोचना का मकसद सिर्फ केंद्र सरकार या और स्पष्ट शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करना रह जाएगा, तब वह प्रासंगिकता खोकर खीझ से उपजा अनर्गल प्रलाप भर रह जाएगा, जबकि यह समय राजनीति का नहीं, राष्ट्रनीति का है। मोदी सरकार और भाजपा भले कहे कि लॉकडाउन समेत समय पर उठाए गए कदमों से कोरोना संक्रमण नियंत्रित करने में मदद मिली, पर संक्रमितों के आंकड़ों में आए दिन की उछाल का सच तो नहीं छिप सकता। जाहिर है, संभावित परिस्थितियों के आंकलन और उनसे निपटने की रणनीति बनाने में सरकार से चूक हुई है, पर यह समय आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक से कब क्या चूक हुई, उसकी जिम्मेदारी-जवाबदेही की बहस बाद में भी हो सकती है। फिलहाल तो देश के कुछ हिस्सों में बेकाबू नजर आ रहे कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण तथा संभावित परिस्थितियों के अनुरूप हर मोर्चे पर तैयारियां ही हर किसी की प्राथमिकता होनी चाहिए।
कोरोना से संक्रमित भारत अकेला देश नहीं है। अन्य देशों की सरकारों से भी स्थिति के आंकलन और तैयारियों में चूक हुई होगी, पर क्या वहां कहीं भी दलगत राजनीति से प्रेरित आरोप-प्रत्यारोप का शर्मनाक खेल दिखा? कोरोना किसी भी सरकार की विफलता का परिणाम नहीं है। हां, उससे निपटने की रणनीतियों में विफलता की जिम्मेदारी-जवाबदेही अवश्य सरकारों पर आयद होती है। यह भी कि ऐसी महामारी से निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार के भरोसे भी नहीं छोड़ी जा सकती। दरअसल ऐसे किसी भी संकट से बिना सामाजिक भागीदारी और सामूहिक प्रयास के पार पाई ही नहीं जा सकती। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं होनी चाहिए कि राजनीतिक दल भी समाज का ही हिस्सा हैं, जो कोरोना संक्रमण रोकने और उसके लिए सामाजिक जागरूकता फैलाने में कहीं प्रयासरत नहीं दिखे। हां, वे चिकित्सा विशेषज्ञों से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक द्वारा बार-बार की जा रही मास्क, सामाजिक दूरी और बार-बार हाथ धोने की अनिवार्यता सावधानी की अपील की धज्जियां उड़ाते अवश्य दिखे। खुद भाजपा सांसद मनोज तिवारी लॉकडाउन के दौरान ही सोनीपत में बिना मास्क क्रिकेट खेलने आए तो हाल ही में मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल विस्तार के समय अनेक मंत्री-विधायक बिना मास्क ही सामाजिक दूरी की अवधारणा की धज्जियां उड़ाते टीवी न्यूज चैनलों पर नजर आए।
अब दूसरे बड़े संकट की ओर लौटते हैं। वैसे विडंबना यह है कि कोरोना हो या गलवान, दोनों ही संकट चीन के धूर्त और विश्वासघाती चरित्र की ही देन हैं। सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का ही यह आरोप नहीं है कि न सिर्फ चीन की लैब से कोरोना वायरस फैला, बल्कि उसने विश्व समुदाय को समय रहते इसके प्रति आगाह भी नहीं किया। चीन जिस तरह इस संक्रमण को वुहान शहर या हद से हद एक प्रांत तक सीमित रखने में सफल रहा, और इस बीच कोरोना संकट में जरूरी चिकित्सा उपकरणों समेत तमाम चीजों का भारी स्टॉक भी कर लिया, उससे तो किसी सुनियोजित बड़ी साजिश का संदेह और भी गहराता है। उसी कोरोना संकटकाल में चीन ने लद्दाख में भारतीय सीमा में जमीनी वास्तविकताएं बदलने की भी साजिश रची। कारणों पर बहस हो सकती है, पर यही सच है कि दशकों से भारत की सुरक्षा चिंताएं और सामरिक तैयारियां पाकिस्तान केंद्रित ही रही हैं। खासकर समाजवादी पृष्ठभूमि के राजनेता और विचारक समय-समय पर केंद्र सरकार को चीन के नापाक मंसूबों के प्रति आगाह भी करते रहे, लेकिन लंबे अंतराल के बाद टास्क फोर्स और विशेष प्रतिनिधि स्तर पर शुरू हुई सीमा वार्ता वजह रही हो या फिर चीन द्वारा बनाई गई अपनी विश्व महाशक्ति की छवि केंद्र सरकार भारतीय सीमा क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की हरकतों को नजरअंदाज कर तूल देने से परहेज करती रही।
ध्यान रहे कि तीन दशक से भी ज्यादा समय तक दोनों देशों के रिश्तों में जमी रही बर्फ 1988 में तब पिघली थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन की यात्रा पर गए थे। तत्कालीन चीनी नेतृत्व देंग शियाओ पिंग ने भी भारत के युवा प्रधानमंत्री का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए दोनों देशों के संबंधों में नए अध्याय की उम्मीद जताई थी। उसके बाद ही सीमा विवाद निपटारे के लिए टास्क फोर्स बनी, जिनमें बाद में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में विशेष प्रतिनिधि शामिल करने का भी फैसला हुआ।
गलवान अचानक नहीं हो गया। अरुणाचल, सिक्किम और यहां तक कि उत्तराखंड में भी पिछले कई दशकों में चीनी सेना की नापाक हरकतें जारी रही हैं। बेशक दोनों देशों के बीच होने वाली वार्ताओं में इस तनाव को कम किया जाता रहा, लेकिन उस प्रक्रिया, जिसे अब दिखावा कहना ज्यादा सही लगता है, के बीच भी चीन का धूर्त और विश्वासघाती चरित्र नहीं बदला। गलवान घाटी में 15 जून की भिड़ंत इसका सबसे ताजा प्रमाण है। जब अन्य देशों की तरह भारत भी कोरोना के भयावह संकट से अपने नागरिकों का जीवन बचाने के लिए जूझ रहा है, चीनी सेना ने अपने नापाक मंसूबों को अंजाम दिया। हमारे 20 सैनिकों की शहादत का सच सबके सामने है, पर मारे तो चीनी सैनिक भी गए हैं, जिनकी संख्या न तो चीन बता रहा है, न ही वहां कोई पूछ भी रहा है। तर्क दिया जा सकता है कि चीन में तानाशाही है, जबकि भारत में लोकतंत्र। बेशक यह बड़ा और बुनियादी फर्क है, जो दोनों देशों के चरित्र में भी साफ नजर आता है, लेकिन कम से कम संकटकाल में तो राष्ट्रहित में राजनीति पर कुछ समय के लिए विराम लगा देना चाहिए।
कुछ लोग मोदी की एलएसी यात्रा को संभावित युद्ध का संकेत मान रहे हैं। निश्चय ही इस यात्रा से उन सैनिकों को बड़ा हौसला मिला होगा, जो बेहद प्रतिकूल और जटिल परिस्थितियों में भी देश की सीमाओं की रक्षा के लिए दुर्गम स्थानों पर दिन-रात डटे रहते हैं। 2020 में हम जैसी अप्रत्याशित स्थितियों का सामना कर रहे हैं, उसमें किसी भी स्थिति की संभावना-आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता, लेकिन हर समझदार इंसान जानता है कि युद्ध अक्सर अंतिम विकल्प तो माने जाते हैं, पर समस्या हल करने के बजाय नई समस्याएं ही पैदा करते हैं। इसलिए चीनी ऐप, निवेश और कारोबार पर हर संभव लगाम कसते हुए कूटनीति के जरिए अलग-थलग कर चीन पर दबाव बनाया जाना चाहिए कि वह 21वीं शताब्दी में विस्तारवादी मानसिकता को त्याग कर विकासवाद के रास्ते पर चले। वही सभी के हित में है।
मोदी-शाह भी 'बांटो और राज करो’ की कांग्रेसी नीति पर
भाजपा ने अपने राजनीतिक और चुनावी प्रतिद्वंद्वी को जिस तरह पीछे छोड़ दिया है और जनमत पर हावी होने की होड़ में भी उसे जिस तरह मात दे दी है, उसके बाद उसे कांग्रेस से, खासकर उसके मौजूदा अवतार में, शायद ही कुछ सीखने की जरूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कांग्रेस से एक बड़ा सबक जरूर सीखा है- 'बांटो और राज करो’ वाला सबक। कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश और असम तक भाजपा की कई प्रादेशिक इकाइयों में दबी-खुली गुटबाजी और अंदरूनी झगड़े बेकाबू जारी हैं और ऐसा लगता है कि पार्टी के ये दो सर्वेसर्वा इन झगड़ों को जारी रखने की खुशी-खुशी छूट दिए हुए हैं। यह कांग्रेस की पुरानी चाल रही है, उसका आलाकमान यानी गांधी परिवार अपने मातहत नेताओं में आपसी टक्कर से खुश होता रहा है ताकि वे परिवार की मेहरबानी के मोहताज बने रहें, कोई भी उनके लिए खतरा बनकर न उभरे और उनकी स्थिति मजबूत बनी रहे। मोदी-शाह ने भी यही रणनीति अपना ली है। वे इतने ताकतवर तो हैं ही और पार्टी पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत तो है ही कि वे आपस में भिड़ रहे गुटों पर लगाम कस सकें और अंदरूनी टकरावों को शांत कर सकें।
चीन के खिलाफ मंत्रियों के ऊंचे बोल
अब गौर करें जून 2020 की स्थिति पर। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां पाकिस्तान को दंडित करने के लिए 2016 और 2019 में क्रमश: 'सर्जिकल स्ट्राइक’ और हवाई हमले किए थे। वहीं उनके मंत्री अब चीन पर एक के बाद एक ज़ुबानी हमले करने में उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं। संचार एवं आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ऐलान किया कि 59 चीनी ऐप पर प्रतिबंध लगाकर भारत ने 'डिजिटल स्ट्राइक’ कर दिया है। गरजते हुए उन्होंने कहा, 'हम भारत की अखंडता, भारत की संप्रभुता और भारत की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे।’ अगले दिन ऊर्जा मंत्री आरके सिंह की 'थर्मल और सोलर हमले’ करने की बारी थी और उन्होंने घोषणा की कि भारत अब चीन से बिजली उपकरणों का आयात नहीं करेगा। उसके बाद राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने ये कहते हुए चीन पर रोड रोलर चढ़ा दिया कि भारत की राजमार्ग परियोजनाओं में चीनी कंपनियों को शामिल नहीं होने दिया जाएगा। गडकरी के जूनियर मंत्री जनरल (सेवानिवृत) वीके सिंह पहले ही आव्हान कर चुके हैं, 'पहले उन पर आर्थिक चोट करते हैं। बाकी चीजें बाद में होंगी।’ टीवी स्टूडियो में जुटने वाले भाजपा के योद्धा सबको 1962 की पराजय की याद दिलाने और यह बताने से नहीं चूकते हैं कि कैसे मोदी जवाहरलाल नेहरू से अलग हैं।
- इन्द्र कुमार