राम बनाम बाकी सब
21-Aug-2020 12:00 AM 675

 

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का सपना साकार होने जा रहा है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि अन्य पार्टियां भी नरम हिंदुत्व की ओर आकृष्ट हो रही हैं। कांग्रेस का 'नरम-हिंदुत्व की ओर आकृष्ट होना अब और भी मुखर और जाहिर हो गया है, जब इसके शीर्ष नेताओं में बाबरी मस्जिद को चुपचाप भुलाकर मंदिर बनने का स्वागत करने और राम में आस्था जताने की होड़ लगी है। 

राम मंदिर के भूमिपूजन के बाद अब संभावना जताई जा रही है कि राम मंदिर का मुद्दा राजनीति से गायब हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं है। हालांकि भाजपा अभी इसे अपना एजेंडा बताने से लगातार बच रही है, जबकि हकीकत ये है कि राम मंदिर पर सियासत रोकी नहीं जा सकती। राम मंदिर निर्माण के साथ ही सियासत का नया अध्याय शुरू होगा, जो लंबे दौर तक असरकारक रह सकता है। ये अलग बात है कि खुद उत्तर प्रदेश में ये फिलहाल उतना प्रभाव नहीं दिखा सकेगा। वजह है कि यहां सियासत के केंद्र में जो 18 से 35 साल तक के युवा हैं, उनमें से किसी ने इसके लिए हुए आंदोलन को देखा ही नहीं है। इस आयु वर्ग का समर्थन कामकाज के आधार पर ही मिलना है। ये युवा शायद ही मंदिर मुद्दे के सियासी प्रभाव से इत्तेफाक रखते हों।

कहा तो ये भी जा रहा है कि मंदिर निर्माण का प्रभाव देश के शेष राज्यों पर भी नहीं पड़ना है। इसे एक विवादित अध्याय का सुखांत माना जा रहा है। तभी तो भाजपा इसे प्रचारित कर रही है, लेकिन सियासत से परे जाकर, इसका श्रेय लेने-देने या छिनने जैसे बयानों से दूरी बनाते हुए। चातुर्मास, मुहूर्त और निमंत्रण पर हुई बयानबाजी में भी भाजपा ने प्रतिक्रिया देने के बजाय खुद को मौन ही रखा। सियासत के जानकारों का एक धड़ा ऐसा भी है, जो मंदिर निर्माण के दूरगामी प्रभाव को नकारता नहीं है। वे सवाल करते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतना अहम मुद्दा, जिसने भाजपा को सत्ता तक पहुंचा दिया हो, वो कैसे प्रभावहीन हो सकता है। ये भाजपा का मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है।

मंदिर निर्माण लगभग साढ़े तीन साल में पूरा होगा यानी 2023, तब तक कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हो चुके होंगे, तो कई में होने होंगे, लेकिन भाजपा मंदिर निर्माण के बजाय उन राज्यों के मुद्दों पर ही चुनाव लड़ेगी। जैसे इसी साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार में विस चुनाव होने हैं, जहां भाजपा एनडीए में दूसरे नंबर पर है। जेडीयू से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे, तो मंदिर मुद्दा शायद ही काम करे। 2021 में अप्रैल-मई में पश्चिम बंगाल में विस चुनाव होंगे, जहां भाजपा पहले से ही ममता पर कुशासन के आरोप लगाकर संघर्षरत है, ऐसे में वहां भी मंदिर मुद्दा काम नहीं आएगा। इसी साल तमिलनाडु में चुनाव हैं, जहां राम मंदिर मुद्दा नहीं बन सकता। 2022 में कर्नाटक भी मंदिर के प्रभाव से दूर माना जा सकता है। 2023 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव पर राम मंदिर का कोई प्रभाव शायद ही पड़े। इसके बाद 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे, जिसमें एनडीए मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व को भुनाते हुए मोदी 2.0 की सभी उपलब्धियों को सामने रखेगी। भाजपा मंदिर पर हिंदुओं के मतों के ध्रुवीकरण के बजाय तीन तलाक जैसे मुद्दों पर मुसलमानों को आकर्षित करना चाहेगी।

राम मंदिर के लिए भूमिपूजन से ठीक पहले अचानक कई कांग्रेस नेताओं में श्रीराम को लेकर प्रेम उमड़ पड़ा है। कांग्रेस वही पार्टी है, जिसने श्रीराम के अस्तित्व को ही सुप्रीम कोर्ट में नकारने के लिए ताल ठोक दी थी। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी तक राम मंदिर के पक्ष में देखे जा रहे हैं। नाथ ने तो हनुमान चालीसा का पाठ तक आयोजित कर दिया। कांग्रेस का यह दांव भाजपा को उकसा सकता है कि वह राम मंदिर की सफलता को अपना बताए। हालांकि अब तक भाजपा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। भाजपा यदि दावा जताती है, तो कांग्रेस जनता के बीच यह मुद्दा ले जाएगी कि मंदिर निर्माण को भाजपा ने सियासी हित के लिए हाईजैक कर लिया है। यदि भाजपा चुप रह जाती है, तो हिंदुओं को आकर्षित करने का लोभ कांग्रेस पहले से ही कर रही है। ऐसे में राम को लेकर सियासत का नया अध्याय शुरू हो सकता है।

उम्मीदों से बिल्कुल विपरीत जाकर भाजपा राम मंदिर निर्माण को सियासी रंग बिल्कुल नहीं दे रही है। वह राम मंदिर को राष्ट्र की पहचान के रूप में स्थापित करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवाद के एजेंडे को मजबूत कर रही है। संघ राष्ट्रवाद के अगले अध्याय के रूप में हिंदू राष्ट्र को लक्ष्य मानकर चल रही है। संघ भारत को एक ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है जहां सभी धर्मों का बराबर से सम्मान हो। ऐसे में लंबा सफर तय करने के लिए भाजपा तात्कालिक रूप से ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती, जिससे भविष्य में कोई अनचाही बाधा खड़ी हो। ज्यादातर क्षेत्रीय दल जातीय आधारित राजनीति करते रहे हैं। अब चूंकि भाजपा ने राष्ट्रवाद की राजनीति को मजबूती से स्थापित कर दिया है, तो इसमें जातिगत राजनीति के लिए जगह नहीं बचती। ऐसे में क्षेत्रीय दलों को अपनी जमीन बनाए रखने के लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। जातीय समीकरणों से दूर होने पर क्षेत्रीय दलों के पास युवाओं को मौका देने और रोजगार की बात करने जैसे मुद्दों के विकल्प होंगे। उन्हें बस जरूरत इसे ईमानदारी से उठाने की होगी। यदि वह सफल हो जाते हैं, तो युवा उनसे जुड़ेंगे भी और देश में रोजगार भी मिलना आसान हो जाएगा।

अयोध्या में एक भव्य समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राम मंदिर की आधारशिला रखे जाने के साथ ही एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है- ये एक लंबे संघर्ष का अंत है या एक नए संघर्ष की शुरुआत? यह शानदार समारोह अपने-आप में कई तरह से अनूठा था। शिलान्यास, शुभारंभ समारोहों का चुनावी हथकंडों के रूप में प्रयोग भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है। लेकिन ये शायद पहला अवसर है जब अदालती लड़ाई के जरिए एक सदियों पुराने विवाद का अंत हुआ है। भूमिपूजन समारोह के दो प्रमुख प्रतिभागी थे प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत। ये स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जन आकांक्षाओं को समझते हुए एक टीम के रूप में काम कर रहे हैं और उन्हें हिंदुओं की जनभावना की बेहतर समझ है। अयोध्या फैसले में हिंदुओं के लिए कोई पूर्व शर्त नहीं जुड़ी है- जैसे पूजा, धर्म या पहचान से जुड़े अन्य पवित्र स्थलों पर दावेदारी छोड़ने की अनिवार्यता। काशी और मथुरा के प्राचीन मंदिरों की यात्रा करने वाले भक्तों को मुगल शासन के दौरान मंदिर के ढांचे का हिस्सा बनी मस्जिद की उपस्थिति का सामना करना पड़ता है। हिंदुओं के प्राचीन पवित्र स्थलों के साथ इन मस्जिदों की मौजूदगी न सिर्फ 'राजनीतिक हिंदुओं बल्कि उन धार्मिक हिंदुओं की भावनाओं को भी ठेस पहुंचाती है जिनका कि राजनीति से दूर-दूर का नाता नहीं है।

काशी और मथुरा के मंदिरों के पुनरोद्धार, वहां अतिक्रमण हटाए जाने और इन स्थलों को हिंदुओं के लिए अधिक सुलभ बनाए जाने, ताकि उन्हें बुतपरस्ती के विरोधियों के साथ इन्हें साझा नहीं करना पड़े की मांग बहुत पुरानी है। अयोध्या पर अदालती फैसले और केंद्र एवं राज्य में मजबूत सरकारों की मौजूदगी ने इस संबंध में पहले से ही मुखर हिंदुओं की उम्मीदों को बढ़ा दिया है। अयोध्या में बिना किसी अड़चन के शिलान्यास समारोह संपन्न होने के साथ ही, हिंदुओं के लिए अहम तीन स्थलों पर दावेदारी के भाजपा और आरएसएस की मूल एजेंडे का एक तिहाई हिस्सा पूरा हो गया है। काशी और मथुरा की 'मुक्ति के लिए शायद किसी आंदोलन की भी आवश्यकता नहीं पड़े।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के अलावा भाजपा की प्रतिबद्धता समान नागरिक संहिता लागू करने की भी है। हिंदुओं के धार्मिक स्थलों के गौरव की पुनर्बहाली ही नहीं बल्कि अनुच्छेद-370 या समान नागरिक संहिता जैसे गैर-धार्मिक मुद्दे भी अन्य दलों के बिल्कुल राजनीतिक रवैए के कारण बुरी तरह विवादित हो गए हैं, जो कि इन विषयों को हिंदू बनाम मुस्लिम के नजरिए से देखते हैं। मोदी के नेतृत्व में भाजपा की राजनीतिक पकड़ मजबूत होने और कई राज्यों में पार्टी का प्रभाव बढ़ने के साथ ही हिंदू एकजुटता उत्तरोत्तर प्रबल होती जा रही है। इसलिए, भाजपा-आरएसएस का एजेंडा अब बहुत कम समय में आसानी से पूरा होने लायक दिखता है।

दरअसल, भाजपा ऐसे विकल्पों को तैयार करती है जिसे चुनना तमाम मतदाताओं के लिए आसान नजर आता है। आखिरकार कौन पाकिस्तान का समर्थन करता है? या 'टुकड़े-टुकड़े गैंग किसे पसंद आएगा? कौन नामदारों का समर्थन कर सकता है? और अब कौन-सा पक्का हिंदू या इस वातावरण में रहने वाला- राम के खिलाफ जा सकता है? बहरहाल, तब तक मंदिर बन पाए या नहीं, राम ने 2022 में उत्तर प्रदेश में भाजपा का स्टार प्रचारक बनने के लिए खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया है।

कांग्रेस आस्था की राह पर

कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं, जिनमें शीर्ष नेतृत्व के लोग भी शामिल हैं, ने ना सिर्फ सोशल मीडिया पर भूमिपूजन के स्वागत में संदेश डाले हैं, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का ताला खोले जाने का श्रेय भी लिया जा रहा है। ये कदम 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 2007 की अपनी गलती सुधारने के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के समर्थन में उनके द्वारा सीडब्ल्यूसी में प्रस्ताव पारित कराने जैसा ही है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2007 में राम सेतु मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा था कि 'भगवान राम में वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सत्यता का अभाव है। मनमोहन सिंह सरकार ने कहा था, 'वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस निश्चय ही प्राचीन भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन उन्हें उनमें वर्णित पात्रों और घटनाओं के अस्तित्व को निर्विवाद रूप से साबित करने वाला ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं माना जा सकता है।

गैर एनडीए सरकारों को सबक

मोदी सरकार ने जिस तरह सरदार पटेल की विश्वविख्यात मूर्ति स्थापित की, राम मंदिर निर्माण होने जा रहा है और वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर विकसित करने के अलावा अन्य प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों के व्यापक स्वरूप के लिए रोडमैप तैयार हो रहा है, निश्चित तौर पर आने वाले समय में भाजपा इन्हें अपने विकास के प्रतिमान के रूप में बताएगी। ऐसी कोशिश मायावती ने उप्र में बसपा सरकार के दौरान अंबेडकर पार्क विकसित करके की थी, लेकिन उसका लाभ उन वर्गों को नहीं मिला जिनके प्रतिनिधित्व का वह दावा करती रही हैं। यह पार्क पर्यटन को आकर्षित न कर सके। ऐसे में देश के जिन राज्यों में गैर एनडीए सरकारें हैं, उन्हें भी अभी से जवाब तैयार करने के लिए कुछ प्रतिमान स्थापित करने ही होंगे, वह भी बीएसपी से सबक लेकर यानी उन्हें ऐसे निर्माण कराने होंगे, जो किसी वर्ग को खुश करने के अलावा कम से कम पर्यटन को तो जरूर बढ़ावा दें। ऐसा न करके गैर एनडीए दल भविष्य में भाजपा के सामने टिक पाने में सक्षम नहीं रह जाएंगे।

- दिल्ली से रेणु आगाल

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