पुराने सियासी नुस्खों का मोह
18-Feb-2020 12:00 AM 1829

क्या कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता? ऐसा नहीं है। उम्मीद पर दुनिया कायम है, पर असल मुद्दा तो यह है कि क्या कांग्रेस के लोगों को उम्मीद है? यह तय मानिए कि जैसा चल रहा है वैसा चलता नहीं रह सकता और चलता रहा तो कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। तो फिर इसकी शुरुआत कैसे हो? जिन्हें भविष्य में भी कांग्रेस में रहकर राजनीति करना है उन्हें पार्टी के अतीत की ओर देखना चाहिए और कुछ घटनाओं की ओर भी। कांग्रेसजन सीताराम केसरी को भूले नहीं होंगे। कांग्रेस के समर्पित नेता-कार्यकर्ता थे। कभी निजी हित को पार्टीहित पर तरजीह नहीं दी, पर उन्हें अध्यक्ष पद से किस तरह हटाया गया? क्या पार्टी के युवा नेताओं में परिवार के किसी नेता को इस तरह पद से हटाने की हिम्मत है? कहने का यह अर्थ नहीं कि वैसा ही करना जरूरी है, लेकिन यदि यह इरादा भी जाहिर कर दिया कि ऐसा कर सकते हैं तो बदलाव आ जाएगा।

कहते हैं कि आपकी हार उस समय नहीं होती जब आप हारते हैं। हार उस समय होती है जब लडऩे का जज्बा खत्म हो जाता है। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व इसी बात के प्रमाण दे रहा है कि जीतना तो छोडि़ए, उसमें लडऩे का ही माद्दा खत्म हो गया है। कांग्रेस अपने विरोधी, भाजपा की एक आंख फोडऩे के लिए अपनी दोनों आंखें फोडऩे को तैयार है। चिकित्सा विज्ञान कहता है कि कैंसर जैसे रोग से भी व्यक्ति लड़ सकता है अगर उसमें जिजीविषा यानी जीने की इच्छा हो।

यदि कांग्रेस को देश का मुख्य विपक्षी दल बने रहना है तो दो चीजों से छुटकारा पाना होगा। पहला, पराजय की मानसिकता से, क्योंकि इस मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति किसी भी बिंदु पर स्वयं सोच-विचार करने में असमर्थ होता है। इसके साथ ही कांग्रेसियों को इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि नेहरू-गांधी परिवार उसका अतीत था। यह मान लेने में भी हर्ज नहीं कि अतीत सुनहरा था, पर अब यह परिवार उसका भविष्य नहीं है। यह भूत बेताल के कंधे से उतर जाए, इसी में कांग्रेस की भलाई है।

उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच इस सवाल पर रस्साकसी शुरू हो गई है कि 2022 विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कौन करेगा। चुनाव अभी कम से कम दो साल दूर है, पर खाली बैठे विपक्षी दल करें भी क्या? योगी सरकार उन्हें कोई मौका भी नहीं दे रही। वैसे भी अखिलेश यादव अपने पारिवारिक झगड़े निपटाने में व्यस्त रहते हैं। चाचा आए दिन उनके लिए नई-नई मुसीबतें खड़ी करते रहते हैं।

सपा के एक जिला अध्यक्ष ने बताया कि अखिलेश से तो मुलाकात खैर दूर की बात है, अब तो गजेंद्र (अखिलेश के कोई करीबी सहयोगी हैं) से मिलने के लिए भी पर्ची लगानी पड़ती है। चार-पांच जनाधारविहीन नेताओं की चौकड़ी उनके इर्द-गिर्द मंडराती रहती है ताकि कोई पुराना कार्यकर्ता उनके नजदीक न भटकने पाए।

यह चौकड़ी उन्हें आश्वस्त रखती है कि 2022 में उनका दोबारा राजतिलक पक्का है। मायावती का कभी भी धरना-प्रदर्शन या आंदोलन की राजनीति में विश्वास नहीं रहा। उनका सबसे प्रिय कार्य टिकट वितरण है जो लगातार चलता रहता है। कांग्रेस को सड़क पर उतरकर हो-हल्ला करने में बेशक मजा आता है, पर उसके पास कार्यकर्ता नहीं हैं। ऐसे में भाजपा विपक्ष के खाली पड़े हाफ में घुसकर दनादन गोल मार रही है। भाजपा खेमा 2022 चुनाव को लेकर चिंतित नहीं दिखता। पार्टी के रणनीतिकार सिर्फ यह चाहते हैं कि सपा, बसपा और कांग्रेस अलग-अलग ही रहें, कोई गठबंधन न बनने पाए। फिलहाल इसके आसार दिखते भी नहीं।

लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन करके बुरे फंसे अखिलेश 2022 में ऐसी कोई गलती करने के मूड में नहीं हैं। बसपा भी किसी से चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करेगी। सपा और कांग्रेस भी बसपा से गठबंधन करने के इच्छुक नहीं। रही बात कांग्रेस की, तो उसके पास ना कार्यकर्ता हैं और ना वोट। ये हालात भाजपा के लिए मुंहमांगी मुराद हैं। पिछले महीने लखनऊ में सीएए के विरोध की आड़ में आयातित अराजक भीड़ ने सरकारी और निजी संपत्तियों का दहन किया और पुलिसकर्मियों सहित राहगीरों पर पत्थर चलाए तो इसे नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया।

प्रियंका गांधी ऐसे कुछ लोगों के घर गईं। इसके कुछ दिन बाद मायावती और अखिलेश भी सीएए के खिलाफ कुछ बोले तो प्रियंका ने इस पर गहरी आपत्ति जताई। उनकी आपत्ति की ध्वनि यह थी कि सपा और बसपा को भाजपा का विरोध करने का अधिकार नहीं है। यूपी में कांग्रेस की जो भी हालत है, पर परिदृश्य में प्रियंका की मौजूदगी भर के लिए ही सही, पार्टी का हौसला तो बढ़ ही जाता है। इसके बावजूद कांग्रेस में फिलहाल वो ताकत नहीं दिखती जो भाजपा का मुकाबला कर सके। पिछले तीन दशक से गैर कांग्रेस विपक्षी दल ही भाजपा से भिड़ते आ रहे हैं।

सपा और बसपा ने अपने बूते सरकार भी बनाई, पर भाजपा से खफा मतदाताओं ने कांग्रेस की तरफ देखा तक नहीं। वर्ष 2019 चुनाव में राहुल गांधी अमेठी में चुनाव हार गए। इसके बावजूद प्रियंका चाहती हैं कि भाजपा से मुकाबला करने की जिम्मेदारी सिर्फ कांग्रेस के पास रहे। उन्हें यह समझना चाहिए कि यह जनाधार के आधार पर तय होगा, उनकी चाहत से नहीं। फिलहाल सपा और बसपा इस दौड़ में कांग्रेस से बहुत आगे हैं। इन्हें पीछे करने के लिए कांग्रेस को आत्ममुग्धता त्यागकर जनता के बीच आना होगा। समझना होगा कि जब भाजपा के विकल्प की बात आती है तो मतदाता कांग्रेस के नाम पर विचार क्यों नहीं करते। भाजपा का विकल्प निर्धारण कांग्रेस के अध्यक्ष का मनोनयन नहीं है कि उनका परिवार अदल- बदलकर यह जिम्मेदारी संभालता रहे।

उत्तर प्रदेश का अगला विधानसभा चुनाव, वर्ष 2024 लोकसभा चुनाव की बुनियाद तैयार करेगा, लिहाजा कांग्रेस को उस नजरिए से खुद की ओवरहॉलिंग करनी चाहिए। मतदाता हर चुनाव में यह संकेत दे रहे हैं कि वे धार्मिक तुष्टीकरण, जातिवाद, परिवारवाद और पाखंड की राजनीति से आजिज आ चुके हैं। नई पीढ़ी व्यक्तिगत और सामूहिक विकास चाहती है। भाजपा इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ चुकी है। इसीलिए उसका नेतृत्व गंगा के प्रति आस्था में भी अर्थव्यवस्था के सूत्र पकड़ता है। सपा और बसपा नेतृत्व भी किसी हद तक इस सच्चाई का दामन थामने की कोशिश करते दिखते हैं। इसके परिणामस्वरूप हाल के ज्वंलत मुद्दों पर इन दलों के स्टैंड में संतुलन दिखा, पर कांग्रेस अपने पूर्वजों के 40-50 वर्ष पुराने सियासी नुस्खों का मोह नहीं त्याग पा रही। देश की सबसे पुरानी पार्टी का नया नेतृत्व भी यदि पुरानी लीक पर ही चलना चाहता है तो फिर क्या किया जा सकता है? सत्ता सरकार की हो या संगठन की, वह जिम्मेदारी और जवाबदेही की मांग करती है। राहुल गांधी पिछले सात साल में इसके लिए तैयार नहीं हो पाए हैं। जवाबदेही की मांग होने लगी तो डेढ़ साल में अध्यक्षी छोड़कर किनारे हो गए, पर सोनिया गांधी उन्हें 'जहर’ की और खुराक देने की तैयारी कर रही हैं। इस परिवार से जो भी राजनीति में आता है उसे तुरुप का पत्ता बताया जाता है। पहले राहुल गांधी को बताया गया और लोकसभा चुनाव से पहले प्रियंका गांधी को।

बहुत पुरानी कहावत है 'करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।’ राहुल गांधी इस कहावत को गलत साबित करने में पूरी सरह सफल रहे हैं। 16 साल में उनका राजनीतिक सफर जहां से शुरू हुआ था उससे ज्यादा आगे नहीं बढ़ा है। हर हार के बाद वह एक खीझे हुए व्यक्ति की तरह आचरण करते हैं। पार्टी और पार्टी से बाहर उनका माखौल उड़ाने वालों की तादाद कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया पर तो अब वह एक ट्रोल की तरह व्यवहार करने लगे हैं।

सवाल है कि पार्टी के दूसरे नेता यह सब बर्दाश्त क्यों कर रहे हैं? पार्टी में दो वर्ग और तीन गुट हैं। परिवार के तीनों सदस्यों के अपने-अपने गुट हैं। तीनों गुटों के सदस्य एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं। दिसंबर, 2018 में तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी तो तीनों गुट अति सक्रिय हो गए। सोनिया और प्रियंका गुट ने मिलकर राहुल गुट को किनारे लगा दिया। मुख्यमंत्री वे लोग बने जिन्हें राहुल विरोधी गुट चाहता था। नतीजा यह हुआ कि मोदी-शाह युग में तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने का श्रेय पार्टी अध्यक्ष को नहीं मिला। पार्टी अध्यक्ष के रूप में राहुल की नैतिक और सांगठनिक शक्ति उसी समय खत्म हो गई। पूरी पार्टी को पता चल गया कि पार्टी अध्यक्ष के ऊपर भी एक सत्ता केंद्र है और वही बड़े और निर्णायक फैसले करता है।

पार्टी के युवा नेताओं में जोखिम लेने का साहस नहीं

कांग्रेस के युवा नेताओं में जोखिम लेने का साहस नहीं है। ये सब एक संरक्षित वातावरण में पले बढ़े हैं। ज्यादातर को जो मिला है बिना ज्यादा संघर्ष के मिला है। इन्होंंने कोई आंदोलन किया नहीं, कोई लड़ाई लड़ी नहीं, कभी जेल गए नहीं और न ही पुलिस की लाठियां खाईं, जो तमाम गैर कांग्रेस दलों के नेताओं और पार्टियों ने किया। ये राजनीति के सुकुमार हैं। इन्हें अभी तक जो मिला वह माता-पिता से मिला या फिर गणेश परिक्रमा से। कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, वंशवाद और हकदारी (एनटाइटलमेंट) के कैंसर से ग्रस्त है। कांग्रेस ऐसा संगठन बन गई है जिसमें नेता अपने निजी हित से आगे देखने-सोचने को तैयार ही नहीं हैं। पार्टी की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी को देश की कभी चिंता थी, यह कहना कठिन है। अब उनकी चिंता का एक ही विषय है कि संगठन की सत्ता कैसे परिवार के हाथों में रहे।

पार्टी के बुजुर्ग नेता पदों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं

जहां तक दो वर्गों की बात है तो उसमें से एक है पार्टी के बुजुर्ग नेताओं का। वे पार्टी पदों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। इन्हें मालूम है कि इनका समय चला गया है, पर इन्हें अपने बेटे-बेटियों को पार्टी में एडजस्ट करना है। इस मुद्दे पर इनमें बड़ा एका है। जनार्दन द्विवेदी ने बुद्धिमत्तापूर्ण काम यह किया कि अपने बेटे के स्वतंत्र फैसला लेने में रोड़ा नहीं अटकाया। दूसरा वर्ग युवा नेताओं का है। जिन्हें भविष्य की राजनीति करनी है। सवाल है कि ये लोग इस पारिवारिक प्रहसन को क्यों बर्दाश्त कर रहे हैं? मां जाएगी तो बेटा आएगा। बेटा जाएगा तो मां आएगी। कभी अगर दोनों को हटना पड़े तो बेटी तैयार है। दामाद और दूसरे सदस्य प्रतीक्षा सूची में हैं।

- इन्द्र कुमार

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