30-Nov-2012 06:30 PM
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अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल महोदय को डिसऐंट्री जैसा छोटा सा रोग भी राजधानी भोपाल के कोई भी सरकारी अस्पताल में नहीं हो पाया।
उन्हें भी प्राइवेट अस्पताल की शरण में जाना पड़ा। मध्यप्रदेश में लगभग 5 हजार करोड़ के बजट वाला स्वास्थ्य महकमा एक ऐसा पारस का पत्थर है कि जो जिस भी अधिकारी या मंत्री को स्पर्श करता है वह तर जाता है। पिछले सालों का इतिहास देखें तो इस महकमें की तरावटÓ के आगे खनिज, पीडब्ल्यूडी और सिंचाई विभाग जैसे महकमें भी पानी भरते नजर आते हैं। हर साल बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने के बावजूद प्रदेश के वासियों का स्वास्थ्य कितना सुधरा यह बात दीगर है, लेकिन महकमें से जुड़े अफसरों, कर्मचारियों, नेताओं का स्वास्थ्य जिस तरह विकसितÓ हुआ है वह दुनिया के किसी भी विकास सूचकांकÓ को मात देता नजर आता है। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कब्र पर बीते सालों में स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले निजी अस्पताल जमकर फले-फूले हैं, स्वास्थ्य विभाग की इस असाध्य बीमारी ने सिर्फ निजी स्वास्थ्य सेवाओं को फलने-फूलने का मौका दिया है और गरीब आदमी इलाज के अभाव में दम तोडऩे को विवश है। आलम यह है कि प्रदेश के सरकारी अस्पताल में यदि कोई व्यक्ति सोनेग्राफी या अन्य टेस्ट कराने में कामयाब हो जाए तो यह लॉटरी खुलने के समान उपलब्धि है क्योंकि सरकारी अस्पतालों की मशीनें इस योग्य नहीं है कि वे किसी बीमार व्यक्ति की बीमारी का सही आकलन कर सके। यहां तक कि पैथालॉजी लैब से लेकर एक्सरे तक सारे इक्यूपमेंट दम तोड़ चुके हैं। बात यही तक होती तो ठीक थी, अमूमन हर सरकारी अस्पताल में निजी अस्पतालों और लैब संचालकों के इशारे पर पैथालॉजी, रेडियोलॉजी और दूसरी जांचों से जुड़े सिस्टम को, मशीनों को खराब करने के लिए बाकायदा एक पूरा रैकेट सक्रिय रहता है। इस खराबी के पीछे मेंटेनेंस के नाम पर करोड़ों के वारे न्यारे करने से जुड़ा अर्थशास्त्र भी एक अहम कारण है। राज्य के मुखिया शिवराज सिंह चौहान भले ही स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना दिल में पाले प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की दशा और दिशा सुधारने में लगे रहते हों, लेकिन उनकी यह मंशा अधिकारियों और मेडिकल माफिया के निजी स्वार्थों के चलते दम तोड़ जाती है।
मध्यप्रदेश की लगभग 7 करोड़ जनसंख्या में गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे रहने वालों की तादाद अच्छी खासी है। सरकार की नीति में गरीबों के लिए मुफ्त इलाज और अन्य सेवाएं सर्वोपरि है, लेकिन आज तक प्रदेश में सरकारी अस्पताल में किसी गरीब की मुफ्त बाइपास सर्जरी का उदाहरण देखने में नहीं आया। कारण साफ है कि लगभग 5 से 6 हजार करोड़ रुपए स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होने के बावजूद सरकारी अस्पतालों को व्यवस्थाओं का अजायब घर बनाकर रख दिया गया है। विडम्बना ही है कि सरकारी खजाने से इलाज के लिए करोड़ों की सहायता जारी करने वाले मध्यप्रदेश में एक भी सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल मौजूद नहीं है।
अधिकारी, नेताओं ने मोड़ा मुंह
स्वास्थ्य विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा अक्षम्य लापरवाहियों ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को इस हद तक घटिया बना दिया है कि मरीज अंतिम विकल्प के रूप में निजी अस्पतालों की तरफ मुड़ रहे हैं। केवल लाचार मरीज ही नहीं बल्कि प्रदेश के राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री, मंत्री और बड़े-बड़े अधिकारीगण निजी अस्पतालों में इलाज करवाने को प्राथमिकता देते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि हमारे प्रदेश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है। यदि सरकारी खजाने से निजी अस्पतालों में पांच सितारा स्वास्थ्य सुविधाएं भोगने का मौका हो तो फिर भला कौन सरकारी अस्पतालों की नारकीय व्यवस्था की ओर मुंह करेगा। छोटी-मोटी बीमारियों के लिए भी जब सजे धजे निजी अस्पतालों की ओर मुंह करने वाले नेता, अधिकारियों को सरकारी अस्पतालों में इलाज की बाध्यता हो तो निश्चित ही व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन हो सकता है। सरकार को चाहिए कि वह किसी भी ऐसे मेडिकल बिल का भुगतान न करे जिनके लिए कागजों में ही सही सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं मौजूद हैं।
भरी पड़ी हैं प्रतिभाएं
बात यह नहीं है कि सरकारी स्वास्थ्य अमले में कुशल डॉक्टरों का अभाव है या विशेषज्ञों की कमी है। सरकार द्वारा नियुक्त डॉक्टर कुशल होने के साथ-साथ विद्वान भी हैं और विशेषज्ञ भी है, लेकिन सरकारी सेवाओं की खासियत यह है कि वह इन डॉक्टरों की विशेषज्ञता का लाभ नहीं उठा पाती। व्यवस्था की मूल खामी यह है कि न तो उपलब्ध संसाधनों का उचित वितरण, व्यवस्थापन और काम के लिए उचित माहौल है और न ही कोई निगरानी सिस्टम। रही बात जवाबदेही की तो प्रदेश के दूसरे सरकारी विभागों की तरह स्वास्थ्य विभाग भी इससे अछूता नहीं है। निगरानी और जवाबदेही के अभाव के चलते आलम यह है कि ज्यादातर नामी-गिरामी चिकित्सक अध्ययन अवकाश आदि लेकर पांच सितारा अस्पतालों में काम करते हैं और साथ-साथ साम-दाम दंड भेद की नीति अपनाकर सरकारी खजाने से अपना हिस्सा लेने में भी कामयाब हो जाते हैं। सरकार से वेतन भत्ते और सुविधाएं लेकर डॉक्टर्स निजी अस्पतालों को रोशन किए हुए हैं। डॉक्टरों की इस कृपा तथा अधिकारियों की मिलीभगत से निजी अस्पताल स्वास्थ्य माफिया में तब्दील हो चुके हैं जो हर उस जन स्वास्थ्य से जुड़ी योजना को प्रभावित करते हैं जिसके चलते उनके हितों को चोट पहुंच सकती है।
मध्यप्रदेश सरकार प्रदेश में लगातार सुधरती स्वास्थ्य सेवाओं की दुहाई देती है और यह कहा जाता है कि स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के मामले में मध्यप्रदेश अव्वल है, लेकिन तथ्य इसके विपरीत है। प्रदेश का सारा स्वास्थ्य अमला निजी अस्पतालों को फलने-फूलने का मौका दे रहा है। सरकारी अस्पताल में जाने वाला व्यक्ति या तो गरीब है या फिर निम्न मध्यमवर्गीय। यहां पर कभी भी किसी अधिकारी, मंत्री या प्रभावशाली व्यक्ति को इलाज कराते नहीं देखा जा सकता। हाल ही में जब मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव बीमार पड़े तो उन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। इतना विशाल सरकारी बजट और विशेषज्ञ डॉक्टरों की लंबी फौज होने के बावजूद प्रदेश का राज्यपाल सामान्य बीमारी के लिए भी यदि किसी निजी अस्पताल की सेवाओं को तवज्जो देता है तो इससे प्रदेश के स्वास्थ्य सेवाओं की असलियत का पता स्वत: ही चल जाता है। केवल यही नहीं छोटे-मोटे सरकारी कर्मचारी से लेकर बड़े अधिकारी तक सब निजी अस्पतालों में ही क्यों भर्ती होते हैं यह एक यक्ष प्रश्न है। हर बड़े सरकारी अस्पताल में दलालों का एक ऐसा गिरोह सक्रिय रहता है जो मरीजों को रेफर करने से लेकर मेडिकल बिल बनवाने तक का काम ठेके पर लेता है।
सरकारी पैसे से पल रहे निजी अस्पताल
प्रदेश और केंद्र सरकार के भारी भरकम बजट के साथ-साथ मुख्यमंत्री सहायता कोष का अधिकांश पैसा इलाज के नाम पर निजी अस्पतालों की जेब में ही जाता है। सरकारी अस्पतालों में इलाज काफी सस्ता, यहां तक कि मुफ्त में भी उपलब्ध है, लेकिन इसके बाद भी निजी अस्पताल में इलाज करवाकर सरकार को मेडिकल बिल थमाना सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, मंत्रियों का गौरखधंधा बन चुका है। विडम्बना तो यह है कि जिन निजी अस्पतालों को बेहतर मानते हुए हमारे सरकारी रहनुमा वहां इलाज का लाभ उठाते हैं उन्हें चलाने वाले भी सरकारी डॉक्टर ही हैं। जो निजी प्रैक्टिस के नाम पर अपना ज्यादातर समय निजी अस्पतालों में मरीजों को देखने में बिताते हैं। मजे की बात यह है कि सरकारी अस्पतालों में लोकल पर्चेसÓ की व्यवस्था भी इन्हीं प्रभावशाली लोगों की मदद तक सिमट कर रह गई है। मतलब सरकारी खजाने को दोहरी मार पड़ रही है एक ओर तो निजी अस्पतालों को भुगतान होता है दूसरी और जरूरतमंद गरीबों के लिए की गई दवाओं की लोकल पर्चेस की व्यवस्था का फायदा भी इन्हीं को मिलता है।
सिर्फ मशीन खरीदी से मतलब
लगभग 5 से 6 हजार करोड़ रुपए के स्वास्थ्य बजट का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं संबंधी यंत्रों, मशीनों की खरीद पर भी खर्च किया जाता है, जिनका रखरखाव भी अत्यंत महंगा है, लेकिन कई सरकारी अस्पतालों में ये महंगी मशीनें या तो धूल खाती नजर आती हैं या फिर उन पर आउट ऑफ आर्डर का बोर्ड टंगा रहता है। सालों तक केलिब्रेशन नहीं होने से इनके रिजल्ट भी सही नहीं आते। मजे की बात यह है कि मशीनें काम करें या न करें इनका मेंटेनेंस और जरूरी उपकरणों तथा पैथॉलाजी जांच के लिए लगने वाले रीएजेंट, केमिकल आदि की खरीदी का काम कागजों पर बदस्तूर चलता रहता है। अधिकांशत: राजधानी भोपाल के अस्पतालों में सोनोग्राफी, एक्सरे, मशीनें अक्सर खराब होने की बात सामने आती रहती है। यह मशीन वर्षों तक खराब पड़ी रही इस दौरान उक्त मशीनों की जब जांच पड़ताल की तो पता चला कि मशीन में खराबी के दौरान भी मेंटेनेंस का खर्च दर्ज किया जा रहा है। जब मशीन खराब है तो मेंटेनेंस कैसा और यदि मेंटेनेंस हो रहा है तो भी खराबी क्यों, लेकिन यह एक अस्पताल की बात नहीं है प्रदेश के हर बड़े सरकारी अस्पताल की यही कहानी है। जहां लाखों रुपए का बजट केवल मेंटेनेंस पर खर्च होता है, बदहाली के पीछे एक कारण यह भी है कि इन मशीनों को चलाने वाले तकनीशियनों की भर्ती प्रशिक्षण आदि का कोई मैकेनिजम मौजूद नहीं है। आज भी प्रदेश के कई जिले ऐसे हैं। जहां डायलिसिस, वेंटिलेटर, एक्सरे, सोनोग्राफी से लेकर अन्य उन्नत चिकित्सा उपकरण धूल खा रहे हैं या फिर जंग लगकर खराब हो चुके हैं कई बार मशीनें सरकारी कर्मचारियों द्वारा जानबूझकर मिसहेंडलिंग की जाती है ताकि मशीन अनुपयोगी हो जाए और डॉक्टर खराब मशीन का हवाला देकर अपने मनपसंद सेंटर्स पर मरीज को रेफर कर मोटा कमीशन ले सके।
करोड़ों रुपए का चिकित्सा प्रतिपूर्ति बजट प्राइवेट अस्पतालों की सेहत दुरुस्त करने के काम आ रहा है। जबकि गरीब इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। वे जांच के लिए भटकते हैं, छोटे-छोटे टेस्ट के लिए हफ्तों इंतजार करते हैं। दवा की लाइनों में लगे रहते हैं तो झिड़ककर यह कहते हुए भगा दिया जाता है कि अमुक दवा उपलब्ध नहीं है। उसे बाहर से जाकर खरीद लो। वहीं सरकार यह ढिंडोरा पीटती है कि उसने दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना के तहत इतने गरीबों का मुफ्त इलाज कर दिया या इतने करोड़ की दवाएं मुफ्त वितरित की। दवाएं वितरित हो रही हैं, लेकिन गरीबों तक नहीं पहुंचती। बीच में ही गोल हो जाती हैं और दवा की दुकानों पर बिकती है। स्वास्थ्य विभाग में आए दिन घोटाले उजागर होते रहते हैं। स्वास्थ्य महकमा ठीक से काम नहीं करता, चिकित्सक अक्षम्य लापरवाहियां बरतते हैं और चिकित्सा के नाम पर मिलने वाली करोड़ रुपए के बजट राशि को डकार लिया जाता है, लेकिन इसके बाद भी इस महत्वपूर्ण सेवा को सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। नित्य प्रतिदिन स्वास्थ्य विभाग प्रयोगशाला बना हुआ है।
अव्यवस्था का इलाज जरूरी
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश को स्वर्णिम बनाने का दिवास्वप्न देख रहे हैं, लेकिन उनके इन सपनों को ध्वस्त करने में स्वास्थ्य विभाग का व्यापक योगदान है। प्रदेश के छह मेडिकल कॉलेज से कई अस्पताल संबद्ध हैं, लेकिन वहां डॉक्टरों का अता-पता नहीं है। जिन अस्पतालों में कुशल डॉक्टर हैं वहां वे घुटन भरे वातावरण में खुलकर काम ही नहीं कर पाते। कुछ समय पूर्व इंदौर के कैंसर हास्पिटल मेें एक छोटी सी तकनीकी खराबी के कारण कीमोथेरेपी मशीन लंबे समय तक बीमार पड़ी रही और डॉक्टर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे। सरकार मशीनें खरीद लेती है, लेकिन तकनीशियन नियुक्त नहीं करती। मशीन खरीदने के बाद मशीन को सुधारने के लिए आउटसोर्सिंग की जाती है। जितने पैसे आउटसोर्सिंग में खर्च होते हैं उससे आधे पैसे में प्रदेश के हर अस्पताल में एक तकनीशियन की नियुक्ति की जा सकती है, लेकिन यह करना सरकार के कुछ खास लोग मुनासिब नहीं समझते क्योंकि ऐसा करने से उनके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंच सकता है।
निजीकरण को बढ़ावा
प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। लगातार बीमार होते जा रहे सरकारी अस्पताल नरक में तब्दील हो चुके हैं जहां न तो स्वच्छता है न ही तत्परता है और न ही सेवा भावना है। केवल लाभ कमाने तथा अपना काम टालने की दृष्टि से यह अस्पताल मरीजों को सेवाएं प्रदान कर रहे हैं जिनकी गुणवत्ता निम्न स्तरीय है यदि यही हाल रहा तो स्वस्थ्य प्रदेश का लक्ष्य मिलना असंभव हो जाएगा। वैसे भी स्वास्थ्य के सूचकांक पर मध्यप्रदेश का नंबर भारत में नीचे के तीन-चार राज्यों में गिना जाता है। जहां स्वास्थ्य सेवाएं सदैव बीमार रहती हैं। मातृत्व योजना के तहत सरकारी पैसा खर्च करने के बावजूद जच्चा-बच्चा मृत्युदर और कुपोषण में सुधार होता नजर नहीं आ रहा। मलेरिया उन्मूलन पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन मलेरिया से होने वाली मौतों का आंकड़ा वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है। डेंगू से लेकर छोटी-बड़ी बीमारियां प्रदेश के हर अंचल में फैल रही हैं। यदि फैलाव नहीं रोका जा सकता तो कम से कम उचित उपचार तो दिया जा सकता है, लेकिन वह भी नहीं मिलता। क्योंकि उपचार उपलब्ध करवाने वाली मशीनरी जर्जर हो चुकी है।
जरुरत है भागीरथी प्रयास की
ऐसा नहीं है कि व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हो अभी भी सरकारी सिस्टम में न तो प्रतिभाओं की कमी है और न ही सेवा भावना रखने वाले लोगों की कमी... अभी भी समय हैं कि एक सुदृढ़ मानीटरिंग सिस्टम विकसित कर सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के अमूलचूल परिवर्तन के भागीरथी प्रयास किए जाएं... इस निराशा भरे माहौल में आशा की किरण अभी भी लुप्त नहीं हुई है क्योंकि प्रदेश के पास शिवराज सिंह जैसा काबिल मुखिया है... जरूरत है सिर्फ एक भागीरथी प्रयास की...
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मुख्यमंत्री की जिद भी काम न आई
निजी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने वाला मेडिकल माफिया और अधिकारियों के गठजोड़ का एक बड़ा उदाहरण इंदौर में ओपन हार्ट सर्जरी शुरू करने का है। आधारभूत संरचना को आकार लिए साल पर साल बीतते जा रहे हैं परंतु ओपन हार्ट सर्जरी से जुड़ी सुविधाओं का अर्थशास्त्र इतना बड़ा है कि ओपन हार्ट सर्जरी की सुविधाएं दे रहे अस्पताल मुख्यमंत्री की इस मंशा को येन-केन-प्रकारेण साकार नहीं होने दे रहे।
कछुआ चाल से काम
स्वास्थ्य विभाग में हर काम कछुआ चाल से होता है जो भी योजनाएं प्रारंभ की जाती हैं वे वर्षों ठंडे बस्ते में पड़ी रहती है। जब उन पर काम शुरू होता है तो उनकी लागत में भी काफी इजाफा हो जाता है। कुछ योजनाएं तो ऐसी हैं जो सिर्फ दिखावे की हैं, जिनका कोई आधार नहीं है, लेकिन उनके क्रियान्वयन में भी अच्छी खासी देरी हो रही है, मिसाल के तौर पर आशा कार्यकर्ताओं को 75 हजार सिम बांटे जाने हैं। पहला सवाल तो यह कि स्वास्थ्य विभाग की आपसी समन्वय के लिए यह सिम बांटे जा रहे हैं। मगर क्या इन सिम के द्वारा बातचीत की जाएगी इसकी गारंटी कौन देगा। ब-मुश्किल पांच हजार सिम भी पूरी तरह उपयोग में लाए जा सकेंगे इस बात में भी संदेह ही है। बहरहाल सिम खरीदी की यह योजना तात्कालीन स्वास्थ्य प्रमुख सचिव सामंतरे के द्वारा 18 माह पूर्व प्रस्तावित की गई थी यह भी तय हो गया था कि उक्त सिम किस कंपनी से खरीदी जाए। यह सिम खरीदे जाने थे फिर भी आज तक आशाओं को निशारा ही हाथ लगी। यही हाल उन 350 एंबुलेंस का है जो महीनों से आकर धूल खा रही हैं किंतु जिन्हें अभी तक वितरित नहीं किया गया है। बताया जाता है कि प्रत्येक एंबुलेंस पर एक दिन का डेमरेज सौ रुपए है। इस प्रकार 35 हजार रुपए प्रति दिन का डेमरेज विभाग को पिछले छह माह का देना पड़ेगा। जबकि दूसरी तरफ 108 एंबुलेस सेवा में सुधार के लिए 150 नई एंबुलेंस खरीदने का मामला भी पिछले 24 माह से झूल रहा है।
प्रीफेब्रिकेटेड स्ट्रक्चर के निर्माण का निर्णय लेने में महीने लग गए थे, तीन महीने में निर्माण कार्य संपूर्ण होना था, क्योंकि यही इस स्ट्रक्चर की डेढ़ गुना अधिक लागत का आधार था, लेकिन 9 माह बीत जाने के बाद भी साढ़े सत्रह लाख रुपए की लागत से बनने वाले इन प्रीफेब्रिकेटेड स्ट्रक्चर का निर्माण नहीं हो पाया है। इसे देखते हुए आगे दो हजार स्ट्रक्चर निर्माण का मामला खटाई में पड़ गया है। प्रदेश में वल्लभ भाई पटेल दवा खरीदी योजना के तहत निर्धारित दर पर दवा खरीदने का प्रस्ताव था, किंतु दवाएं खरीदने के लिए रेट ही निर्धारित नहीं हो सके। बारह माह बीतने के बाद अब दवा खरीदने के लिए फ्रीहेंड दे दिया गया है क्योंकि विभाग के उच्च अधिकारियों ने कहा है कि दवाओं की कमी नहीं आनी चाहिए। विभागीय प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण आए दिन बैठकों में यह निर्देश देते हैं। दवाई खरीदी का आलम यह है कि पूरे प्रदेश में लगभग एक हजार प्रकार की दवाइयां होती है, लेकिन कोई भी अस्पताल यह दावा नहीं कर सकता कि उसके पास 150 प्रकार की दवाएं हैं। नाक, कान, आंख से संबंधित रोगों बेहोसी, कैंसर तथा त्वचा संबंधी रोगी की दवाएं नहीं मिलती हैं। राजधानी के ही जयप्रकाश अस्पताल के पेशेंट्स को दवाओं के अभाव में हमीदिया रेफर कर दिया जाता है। सवाल यह है कि जिलों के रोगियों को कहां रेफर किया जाए। क्या उन्हें भी हमीदिया रेफर किया जाए। मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में 75 हजार कर्मचारी है। जो 50 जिला अस्पताल, 65 सिविल अस्पताल, 333 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1152 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा 8859 उपस्वास्थ्य केंद्रों सहित अन्य जगह पदस्थ हैं। शहरी क्षेत्र में इसके अतिरिक्त 80 डिस्पेंसरियां भी हैं, लेकिन सवाल वही है कि प्रदेश में पांच हजार करोड़ रुपए का दवाओं का व्यापार होता है जबकि सरकार का स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा विभाग दोनों मिलकर 200 करोड़ रुपए ही दवाओं की खरीद पर खर्च करते हैं ताकि दवाएं मुफ्त बांटी जा सकें। क्या इसी आधार पर सरकार दावा कर रही है कि वह दवा की दुकानें बंद करवा देगी।
निजी अस्पतालों के लिए हैं बजट
सरकार द्वारा जितने भी अनुदान बीमारों के इलाज के लिए दिए जाते हैं उनका ज्यादातर हिस्सा निजी अस्पतालों को चला जाता है। राज्य बीमारी सहायता कोष में 75 करोड़ रुपए की निधि है जो चिन्हित गंभीर बीमारियों के लिए दी जाती है। एक से दो लाख रुपए का नि:शुल्क उपचार मान्यता प्राप्त अस्पतालों में होता है। पैसा सरकार भरती है, किंतु इसकी कोई भी प्रभावी मॉनीटरिंग नहीं है। मामूली बीमारियों के उपचार के लिए भी निजी अस्पतालों द्वारा कई गुना राशि हड़प ली जाती है और यह धांधली पिछले 15 सालों से चल रही है। जब तात्कालीन आयुक्त एवं मिशन संचालक डॉ. मनोहर अगनानी ने अपने कार्यकाल के समय बीमारियों के इलाज की दर कम करवाते हुए कुछ अनुबंध किया था, लेकिन ज्यादातर बीमारियों में अभी भी बेहिसाब पैसा लिया जा रहा है। यही हाल मुख्यमंत्री बाल हृदय उपचार योजना का है जिसका बजट 5 करोड़ रुपए है।
निजी अस्पतालों की चांदी
वर्ष 2008-09 में चिकित्सा प्रतिपूर्ति व्यय 40 करोड़ 35 लाख रुपए हुआ था। इसी प्रकार वर्ष 2009-10 में 40 करोड़ 33 लाख रुपए तथा वर्ष 2010-11 में 43 करोड़ 11 लाख रुपए का चिकित्सा प्रतिपूर्ति व्यय खर्च किया गया है। कुल मिलाकर तीन वर्षों की राशि 124 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है उसके अलावा मुख्यमंत्री स्वेच्छा अनुदान योजना में वर्ष 2009-10 में 18 करोड़ रुपए खर्च किए गए। वर्ष 2010-11 में 37 करोड़ रुपए खर्च किए गए। जिसमें से 80 प्रतिशत उपचार में खर्च हुए इसी प्रकार वर्ष 2011-12 में अब तक 40 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। जिसमें से 27 करोड़ रुपए तो केवल उपचार में खर्च हुए। इस राशि का अधिकांश भाग भी निजी अस्पतालों के खाते में गया। पिछले पांच वर्षों के दौरान निजी अस्पतालों का कुकुरमुत्तो की तरह बढऩा और जो अस्पताल कभी जर्जर तथा घटिया हुआ करते थे उनका फलना-फूलना कई सवाल खड़े करता है। जाहिर है इसका ज्यादातर हिस्सा निजी अस्पतालों को गया है।
स्वास्थ्य विभाग बना प्रयोगशाला
मध्यप्रदेश का स्वास्थ्य विभाग प्रयोगशाला में तब्दील हो गया है। यहां नित नए प्रयोग किए जाते हैं। इससे पहले विभागीय प्रमुख सचिव सामंतरे, मोहंती आदि ने कुछ प्रयोग किए अब प्रवीर कृष्ण भी बहुत प्रयोगधर्मी सिद्ध हो रहे हैं। हाल ही में जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विभागीय समीक्षा की तो उसमें उन्होंने एनआरएचएम में भारत सरकार के सामने नीचा देखने की बात उठाते हुए कहा कि इसमें ठीक काम नहीं हो रहा है। वहीं मंत्री नरोत्तम मित्रा ने भी असंतोष जाहिर किया कि विभाग में अच्छे अधिकारियों की कमी है। तो प्रमुख सचिव ने एक ऐसा सुझाव दिया जिससे सब दंग रह गए। उन्होंने कहा कि सर एक योग्य अफसर पिछले पांच सालों से बैठा हुआ है। यह योग्य अफसर कौन है। बताने की आवश्यकता नहीं है। अकेला प्रयोगधर्मिता का यही उदाहरण नहीं है। स्वास्थ्य विभाग घोटाले का सरताज है। पिछले पांच वर्षों में जितने घोटाले यहां हुए किसी अन्य विभाग में नहीं हुए। हर माह डॉक्टर, नर्सों और कर्मचारियों की हड़तालें, कर्मचारियों की असंगत मांगे और घटिया कार्यशैली से आम जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है, लेकिन एफिसिऐंशी की बात कोई नहीं करता। वर्तमान प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण ने कहा था कि वे एफिसिऐंशी बढ़ाने के लिए प्रदेश के दूरस्थ गांव से अपना दौरा शुरू करेंगे, लेकिन अभी तक वह दिन नहीं आया है। बल्कि हाल ही में जब प्रदेश के प्रशासनिक मुखिया एक जिले में समग्र स्वास्थ्य केंद्र का निरीक्षण करने गए तो प्रमुख सचिव ने उस जिले के कलेक्टर पर दबाव बनाया कि वह वही स्वास्थ्य केंद्र दिखाए जो पूरी तरह निर्मित हो चुके हैं। दौरे के समय मुख्य सचिव ने इमारतों को देखकर पूछा कि इन पर कब रंगरोगन हुआ है तो उन्हें बताया गया कि एक-दो दिन पूर्व ही रंगाई हुई है। इसी प्रकार दवाओं के बारे में पूछने पर भी यही जवाब मिला कि दवाएं दो दिन पूर्व ही आई है। प्रदेश के 75 हजार गांवों में 52 हजार समग्र स्वास्थ्य केंद्र बनने थे, लेकिन सच्चाई यह है कि 52 भी नहीं बने हैं और विभाग के आला अफसर नए प्रयोग करने पर आमादा हैं।
स्वास्थ्य विभाग में 2004 से घपले-घोटालों का सिलसिला जारी है। इसके चलते हुए तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री, कमिश्नर एवं वहां के संचालकों के घरों और ठिकानों पर इनकम टैक्स की छापे की कार्यवाही में करोड़ों की संपत्ति का पता चला है जिसकी छानबीन इनकम टैक्स द्वारा की जा रही है वर्तमान में अधिकारियों को स्वास्थ्य विभाग का स्वास्थ्य खराब करने की सजा निलंबित करने तक सीमित कर दी गई है। जबकि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में स्वास्थ्य विभाग के घोटाले किसी से छिपे हुए नहीं है। इसी कारण स्वास्थ्य विभाग के कर्ताधर्ता प्रयोग भर करते हैं। यह विभाग आयकर, लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू की बलि चढ़ चुका है यहां पर संचालक स्तर के अधिकारियों पर 20 से अधिक मामले आईटी, लोकायुक्त एवं आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो में लंबित है कुछ मामलों में विभागीय जांच आयुक्त द्वारा जांच की जा रही है। विभागीय जांच आयुक्त द्वारा जिन मामलों में जांच की गई है उनमें गवाहों के अभाव में मजबूरन फैसला अभियुक्तों के पक्ष में देना पड़ा। इक्के-दुक्के मामले को अगर छोड़ दे तो क्या विभाग को यह नहीं पता कि यहां पर करोड़ों के घोटाले कागजों में दिखाई दे रहे है। उसके बाद भी सिर्फ विभागीय जांच करने का क्या मतलब है। स्वास्थ्य विभाग के कुछ आला अफसरों ने तो अपने पेट गले-गले तक भर लिए हैं इसी के कारण पाक्षिक अक्स की पहल पर 2007 से मध्यप्रदेश में आयकर विभाग के छापों की बयार आ गई और सबसे पहले स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों एवं उनके पार्टनरों के ठिकानों पर पड़े उन छापों ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और यहां के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों की नींद हराम कर दी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से भविष्य में भी यह नहीं सोचा था कि स्वास्थ्य विभाग में इतने ज्यादा घपले घोटाले हैं। वहीं हाल ही में विभागीय समीक्षा में मुख्यमंत्री स्वास्थ्य विभाग की सारी योजनाओं में असंतोष जाहिर किया। इसी को देखते हुए विभागीय मंत्री नरोत्तम मिश्रा एवं मुख्य सचिव ने अलग अलग प्रमुख सचिव की क्लास ले डाली।
आमतौर पर मंत्री और उच्चाधिकारी सरकारी चिकित्सालयों में ही इलाज कराते हैं जब कोई गंभीर बात हो तभी बाहर जाते हैं। जहां तक स्वास्थ्य सेवाओं का प्रश्न है तो इनकी स्थिति भी प्रदेश की अन्य सेवाओं जैसी ही है, लेकिन इसके बावजूद सरकारी डॉक्टरों में लोगों का निजी डॉक्टरों की अपेक्षा अधिक विश्वास है। कुछ कमियां जरूर हैं, लेकिन लोकतंत्र में कोई भी परिवर्तन धीरे-धीरे ही आता है।
- अवनि वैश्य, पूर्व मुख्य सचिव
निजीकरण हर जगह हो रहा है और लोग निजी सेवाओं की तरफ मुड रहे हैं क्योंकि सरकारी सेवाएं उतनी दुरुस्त और उपयोगी नहीं रहीं। सरकारी स्कूलों को ही देख लें आज गांवों में भी ज्यादातर बच्चे निजी स्कूलों में जाने लगे हैं यही हाल अस्पतालों का है। जिसके पास बिलकुल पैसा नहीं है या जो निम्न मध्यमवर्गीय है वही सरकारी अस्पतालों में जाता है अन्यथा सब प्राइवेट अस्पतालों का मुंह देखते हैं। मेरे विचार से सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को सरकारी अस्पतालों में ही इलाज करवाना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे सरकारी अस्पतालों की एफिसिऐंसी बढ़ेगी।
निर्मला बुच, रिटायर्ड पूर्व मुख्य सचिव
स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र है जहां निजीकरण पूरी तरह सफल नहीं हो सकता। क्योंकि यह सेवा से जुड़ा हुआ क्षेत्र है। इसलिए आवश्यक है कि सरकार जो सुविधाएं दे रही है उनमें इजाफा हो और सरकारी संस्थाओं की कार्यशैली में सुधार हो। अभी स्वास्थ्य विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार तथा लापरवाही का बोल-बाला है इसी कारण स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति दिनों-दिन बिगड़ रही है। वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर छोटी कर्मचारियों तक सभी का रवैया नकारात्मक है जिसका प्रभाव प्रदेश के स्वास्थ्य पर पड़़ा है। गरीबों के लिए उचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। इस स्थिति को तभी सुधारा जा सकता है जब सरकारी नजरिया बदला जाए।
केएस शर्मा, पूर्व मुख्य सचिव