झुठलावा
20-Jun-2014 05:10 AM 1234783

इस पीपल ने दी हैं अनेक सान्त्वनाएँ मुझे
दु:ख में, सुख में
और हरी घास के मैदान ने दी हैं सुविधाएँ
हर मौसम में,
पर जब अंदर थरथराता मौन
बैठता ही चला जाता है
कोई नहीं दे सकता किसी को झुठलावा,
सारे अधखुले दृश्य खुलते चले जाते हैं।
मुझे अपने अकेलेपन पर
पछतावा नहीं होता।
ऊँची-ऊँची इमारतें,भागती हुई दुनिया,
एक क्षण के लिए
सब और तेज़ी से दौडऩे लगते हैं।
उनकी निरर्थकता का बोध
मुझे और जड़ बना देता है।
पत्थर
और पत्थरों से बनी हुई
खजुराहो की मूर्तियाँ ही सच हैं
जहाँ साँझ
उतरती धूप असहनीय पीड़ा घोल
बिखर जाती है सब पर।
स्नेहमयी चौधरी

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