19-Feb-2014 10:25 AM
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फिल्म च्गुंडेज् बॉलीवुड में 70 और 80 के दशक में बिकाऊ मसालों से भरपूर है। फिल्म का जोरदार एक्शन ऐसी फिल्मों को देखने वालों को काफी पसंद आयेगा। लेकिन फिल्म कहानी के मोर्चे पर निराश करती है। यशराज बैनर की फिल्म
होने के बावजूद कहानी में कोई नयापन नहीं है लेकिन उसे भव्यता देने की पूरी कोशिश की गई है। निर्देशक दो दोस्तों की इस कहानी को ठीक से आगे नहीं ले जा पाये। दोस्ती गहरी होने को तो वह ठीक से दर्शा पाये लेकिन दोस्ती में दरार पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाये। फिल्म इंटरवेल से पहले कुछ खिंचती हुई लगी। क्लाइमेक्स भी कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। कहानी की शुरुआती होती है लंबे गृहयुद्ध के बाद एक नये देश बांग्लादेश के जन्म के साथ। इसी दौरान जन्मे बाला (अर्जुन कपूर) और विक्रम (रणवीर सिंह) इस गृहयुद्ध के दौरान अनाथ हो जाते हैं। इन दोनों ने गृहयुद्ध के दौरान खून-खराबे और हिंसा के तांडव को बहुत नजदीक से देखा है जोकि इनके बाल मन पर काफी असर डालता है। कुछ बड़े होने पर वह दोनों कोलकाता आ जाते हैं और वहां पर कोयला चोरी कर अपना जीवन चलाते हैं। हालात ऐसे हो जाते हैं जिनमें दोनों एक दूसरे के इतने गहरे दोस्त बन जाते हैं कि इनके बारे में कहा जाता है कि यह एक जान दो जिस्म हैं। विक्रम उम्र में बाला से बड़ा है और हर काम सोच समझकर हाथ में लेता है ताकि मुंह की ना खानी पड़े जबकि बाला स्वभाव से काफी गुस्सैल है लेकिन वह विक्रम की हर बात मानता है। कुछ समय में ही यह दोनों शहर के नामी गुंडे बन जाते हैं। कोलकाता में एक नाइट क्लब की शुरुआत के समय कैबरे डांसर नंदिता (प्रियंका चोपड़ा) को जब यह दोनों देखते हैं तो उसकी खूबसूरती पर मर मिटते हैं। अब इन दोनों के जीवन में जैसे खुशियों की बहार आ जाती है। कहानी में नया मोड़ तब आता है जब नंदिता इन दोनों में से किसी एक के साथ जिदंगी गुजारने का फैसला करती है। दूसरी ओर एसीपी सत्यजीत सरकार (इरफान खान) है जो कानून तोडऩे वालों को कानून का सबक सिखाना अच्छी तरह जानता है। वह इन दोनों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए एक योजना बनाता है। इस योजना में उसके पास कई ऐसे मोहरे हैं जोकि विक्रम और बाला के करीब हैं। अभिनय के मामले में इरफान खान का जवाब नहीं। अर्जुन कपूर एक्शन दृश्यों में जमे लेकिन संवाद अदायगी पक्ष उनका काफी कमजोर है। रणवीर सिंह इससे पहले भी इस तरह के रोल कर चुके हैं उनके काम में कुछ नयापन नहीं दिखा। प्रियंका चोपड़ा की भूमिका एक टीचर की तरह रही लेकिन उनका काम दर्शकों को पसंद आयेगा। अन्य सभी कलाकारों का काम भी ठीकठाक रहा। फिल्म का गीत संगीत कहानी के मिजाज के मुताबिक है। निर्देशक अली अब्बास जफर यदि शोले जैसी फिल्म बनाने चले थे तो उन्हें इससे पहले काफी होमवर्क करना चाहिए था। वह फिलहाल एक टाइमपास फिल्म बनाने में कामयाब रहे हैं।