04-Feb-2013 11:48 AM
1234865
जयपुर साहित्य उत्सव में फूहड़ता का दौर जारी है। आशीष नंदी तो इसकी कड़ी मात्र हैं। वहां जो कुछ बोला या अभिव्यक्त किया जा रहा है उसमें से बहुत सा ऐसा है जो सनसनीखेज है और उत्तेजक है। साहित्य के नाम पर इसी उत्तेजना का बाजारीकरण करते हुए लाभ कमाया जाता है। उत्तेजना का यह बाजार फिल्मों में भी है, इंटरनेट पर भी है, समाचारों के प्रस्तुतिकरण में भी है, मॉडलिंग जैसे पेशों में तो खैर है ही, लेकिन अब साहित्य में बहुत बोल्ड तरीके से है। उत्तेजनापूर्ण और सनसनीखेज बनाने की होड़ सी लगी हुई है और इस फूहड़ता का विरोध करने पर कहा जाता है कि क्या खजुराहो के मंदिरों को तोड़ दें? गीत गोविंद जैसी किताबों में आग लगा दें? कालीदास के साहित्य को जमींदोज कर दें? आदि आदि। यह कैसी तुलना है? इसी तुलना के बहाने से साहित्य को लगातार नष्ट किया जा रहा है और उसमें खुलेपन के नाम पर निर्लज्जता तथा अश्लीलता का समावेश अब आम बात हो चुकी है।

जहां तक आशीष नंदी का प्रश्न है आशीष नंदी को भारत की सामाजिक संरचना का जरा भी ज्ञान नहीं है। यदि उन्हें ज्ञान होता तो वे उस तरह का बेवकूफी भरा बयान न देते। भ्रष्टाचार सर्वव्यापी समस्या है हर वर्ग के बीच यह पाई जाती है उस वर्ग में कुछ ज्यादा ही है जिस वर्ग के पास ताकत है। इसलिए ऐसा कहना कि सबसे भ्रष्ट व्यक्ति ओबीसी, एससी और अब बड़े पैमाने पर एसटी से आ रहे हैं-सर्वथा गलत है। नंदी ने इस संबंध में बंगाल का उदाहरण दिया और यह कहा कि बंगाल में सत्ता के नजदीक सवर्ण है इस कारण वहां सबसे कम भ्रष्टाचार हुआ है। नंदी का यह आंकलन घटिया दर्जे का होने के साथ-साथ उनकी औसत मानसिकता को भी दर्शा रहा है। महज अंग्रेजी पढ़ लेने से कोई बुद्धिजीवी नहीं होता। एक बुद्धिजीवी को समाज के तल में उतरकर गहराई से परीक्षण करना होता है। उसे उन तथ्यों को सही तरीके से समझना पड़ता है जो समाज की विसंगतियों का कारण हैं। किंतु लगता है नंदी अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर ही नहीं निकले। उनका शिक्षण और पालन-पोषण संभवत: उस परिवेश में हुआ होगा जहां सब कुछ हरा-हरा दिखता है। यथार्थ को उन्होंने करीब से देखा होता और उसे भोगा होता तो शायद वे उस पीड़ा से भी रूबरू होते जो उन लोगों के मन में पनपती है जिन्हें भ्रष्टाचार के कारण अन्याय पूर्वक बुनियादी और संवैधानिक हक से वंचित रखा गया जिनका लगातार कई-कई वर्षों तक शोषण किया गया। यदि पश्चिम बंगाल में पिछले 100 साल से सवर्णों के हाथ में सत्ता है और ओबीसी, एसटी, एससी वर्ग के लोग सत्ता के निकट नहीं पहुंचे हैं तो यह एक बदनुमा दाग है। इसे उपलब्धि नहीं कहा जा सकता। वैसे नंदी ने यह आंकलन किन आंकड़ों पर किया है इसे भी समझने की आवश्यकता है क्योंकि हमारे संविधान ने आरक्षण की जो व्यवस्था बनाई है। उसके चलते किसी भी वर्ग के लिए सत्ता के दरवाजे न तो बंद हो सकते हैं और न ही उन्हें सत्ता में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी से रोका जा सकता है। नंदी कह रहे हैं कि उनके तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया। शायद यह सच भी हो, लेकिन कुछ जिम्मेदार किस्म के समाचार पत्रों में उनका जो बयान छपा है उसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता। जो कुछ उन्होंने बोला वह तथ्यहीन, आधारहीन होने के साथ-साथ भावनाहीन भी था। यदि नंदी के पास थोड़ा भी हृदय होता तो वे एक गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत करते। किंतु उन्हें शायद प्रसिद्धि पाना था। इसीलिए एक सनसनीखेज बयान दे दिया। यह बयान ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली नौटंकी की याद दिला रहा है। जहां किसी गंभीर चरित्र को प्रस्तुत करने से पहले स्टेज पर नचनियां को बुलाया जाता है ताकी भीड़ इकट्ठा हो। शायद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के कर्णधारों ने ऐसे बड़बोले शब्दवीरों को नचनियां की तरह प्रस्तुत किया है। ताकि विवाद बढ़े और लिटरेचर फेस्टिवल चर्चित हो जाए। चर्चित, विवादित आयोजनों की टीआरपी स्वत: ही बढ़ जाती है। उसके लिए आयोजकों को कोई खास प्रयास नहीं करने पड़ते लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में तो टीआरपी बढ़ाने के सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। कुछ एक लेखकों को छोड़ दें तो ज्यादातर लेखक सनसनीखेज हैं और इसी कारण चर्चित भी हैं।
सनसनीखेज बनने का यह सिलसिला कला की सारी अभिव्यक्तियों में देखने को मिल रहा है जो दुखद भी है। इसके चलते बहुत से नामी कलाकार और नामी लेखक गुमनामी के अंधेरे में खोते जा रहे हैं पर जीत थायिल जैसे लेखक ख्याति प्राप्त कर जाते हैं। जिन्हें साहित्यक भाषा में गाली देना बखूबी आता है। पिछली बार भी सलमान रूश्दी को लेकर विवाद खड़ा हुआ था उसके बाद उन्होंने इस साहित्य सम्मेलन में आने से मना कर दिया था। इस बार भी वही लालच देखा गया-विवाद के बहाने टीआरपी बढ़ाने का लालच। प्रश्न यह नहीं है कि साहित्य उत्सव आयोजित होने चाहिए अथवा नहीं। साहित्य उत्सव बहुत जरूरी हैं। साहित्य हमारे समाज का दर्पण है। समाज को रास्ता साहित्यकार ही दिखाता है। दुनिया के सारे बड़े परिवर्तन साहित्य में पहले घटे उसके बाद जनमानस में घटे। फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद वाल्तेयर को उनकी गुमनाम कब्र से खोदकर ससम्मान दफनाने के पीछे यही भावना थी, कि साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक है। इसीलिए साहित्य से जुड़ी हर गतिविधि प्रशंसनीय है, लेकिन जिस तरह से इसे विवादास्पद बनाया जा रहा है और हर लेखक विवाद की सीढ़ी पर चढ़कर ऊंचाई तक पहुंचाना चाहता है वह गलत है।
-कुमार सुबोध