30-Nov-2012 06:30 PM
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अमेरिका हमेश से सैन्य सरकारों से परहेज़ करता रहा है यह बात अलग है कि चिली के तानाशाह पिनोशे से लेकर लीबिया के कर्नल गद्दाफी तक सभी अमेरिका के कृपापात्र रहे और जनरल मुशर्रफ को अमेरिका ने अपनी गोद में खिलाया।
इसी कारण लोकतंत्र का सन्देश लेकर जब ओबामा म्यांमार पहुंचे तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य था तो केवल इस यात्रा के समय पर। ज्यदा दिन नहीं बीते जब म्यांमार में मुस्लिमों के विरुद्ध भड़की हिंसा में बहुत से मुस्लिम मरे गए थे और लाखों घर छोडऩे पर विवश कर दिए गए थे। किन्तु चुनाव के ठीक बाद पुनर्निर्वाचन के उपरांत ओबामा का पहली विदेश यात्रा के रूप में म्यांमार पहुंचना कई सवालों को जन्म दे रहा है। म्यांमार के सैनिक शासन का ज्यादतियों का लंबा इतिहास रहा है। अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने से लेकर मानवाधिकारों के उल्लंघन और लोकतंत्र का गला घोंटने तक म्यांमार का इतिहास रक्तरंजित है लेकिन इसके बाद भी म्यांमार पहुंचे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का जोरदार स्वागत हुआ। वह म्यांमार की यात्रा पर आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं। उनकी झलक पाने के लिए हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उमड़ आए। वह हाथों में बैनर लिए हुए थे।
यूनिवर्सिटी ऑफ यंगून में अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि वह दोस्ती का हाथ बढ़ाने आए हैं। यह यादगार यात्रा अभी शुरू हुई है। इसे काफी आगे तक जाना है। साथ ही चेतावनी भी दी कि नई असैन्य सरकार को लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए अन्यथा अमेरिका से मिलने वाला समर्थन वापस ले लिया जाएगा। यह यूनिवर्सिटी 1988 में लोकतंत्र समर्थक छात्रों का प्रदर्शन स्थल रही है। यहा व्यापक जन प्रदर्शन हुआ था, जिसे सेना ने कुचल दिया था। दरअसल म्यांमार में एक समय माओवादी शासन की भी आशंका भी जताई जाने लगी थी। यदि ऐसा हो गया होता तो यह चीन के लिए फायदेमंद हो सकता था और चीन को नेपाल के अतिरिक्त एक और देश भारत की घेराबंदी के लिए मिल जाता। किन्तु आंग सांग सू ची सहित कई नेताओं ने लोकतंत्र के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी। सू ची दशकों तक जेल में रहीं। उन्हें शांति का नोबल पुरुस्कार भी मिला और अब नयी असैन्य सरकार ने देश में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया पुन: प्रारंभ करने का आश्वासन दिया है। ओबामा की यात्रा से यह प्रक्रिया तीव्र हो सकती है। म्यांमार की यात्रा के कई फायदे हैं। भविष्य में अमेरिका म्यांमार को अपना सहयोगी बनाकर चीन पर दबाब भी बना सकता है। इसी कारण ओबामा की यात्रा का व्यापक असर चीन में देखा गया, हालाँकि चीन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी किन्तु चीन इस यात्रा का विश्लेषण करने में जुट गया है। जहाँ तक भारत का प्रश्न है भारत को म्यांमार की सैन्य सरकार ने हमेशा एक ऐसे देश के रूप में देखा जिसे वहां की राजनैतिक हालत से कोई सरोकार नहीं था। इसी कारण सू ची ने हाल ही में अपने भारत दौरे में कहा भी था कि जब भारत की सख्त जरूरत थी तब भारत ने समर्थन का हाथ नहीं बढ़ाया। दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज में पढ़ी सू ची का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे भी भारत चाहता तो म्यांमार पर लोकतंत्र के दबाब बना सकता था क्योंकि म्यांमार की आतंरिक हालत भारत को हमेशा से प्रभावित करती रही है, चाहे वह शरणार्थियों की समस्या हो या हाल में म्यांमार के मुस्लिमों के विरुद्ध हिंसा के बाद भारत में मुस्लिमों के बीच हुयी हिंसक प्रतिक्रिया हो। भारत म्यांमार की समस्याओं से ज्यादा दिनों तक निरपेक्ष नहीं रह सकता भारत को म्यांमार पर एक सशक्त विदेश नीति पर काम करना पड़ेगा ठीक वैसे ही जिस प्रकार अमेरिका ने म्यांमार में प्रतिबंधों में ढील देकर रिश्तों को गर्माने की कोशिश की है। हालाँकि अमेरिका ने प्रतिबंधों में यह ढील राष्ट्रपति थेन सीन सरकार द्वारा शुरू किए गए लोकतात्रिक सुधारों की प्रतिक्रिया में दी गई है। सीन ने पिछले साल मार्च में पदभार संभाला था। ओबामा के इस दौरे में अमेरिकी नीति में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह देखने को मिला कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने मेजबान देश को बर्मा के बजाय म्यांमार कहकर संबोधित किया। 23 साल पहले जुंटा शासन ने देश का नाम बदलकर म्यांमार रख दिया था। लोकतंत्र समर्थक और अमेरिका आधिकारिक रूप से उसे अभी भी बर्मा ही संबोधित करते हैं। ओबामा ने म्यांमार में विपक्ष की नेता आंग सान सू से उनके घर पर जाकर मुलाकात की, जहां उन्हें करीब दो दशक तक नजरबंदी में रखा गया था। ओबामा ने कहा कि सू ची दुनियाभर के लिए प्रेरणा की स्रोत हैं। म्यांमार ने 44 राजनीतिक कैदियों समेत 66 लोगों को क्षमादान देते हुए रिहा करके सकारात्मक संकेत दिया है।
म्यांमार की यात्रा करने का ओबामा का फैसला देश की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सांग सू ची से हुई बातचीत से प्रेरित है। सू ची ने इसी साल सितंबर में ह्वाइट हाउस आकर प्रेसिडेंट ओबामा से मुलाकात की थी। वे भारत के नेताओं से भी लगातार संपर्क में रहती हैं। सू ची के माता-पिता, दोनों ही भारत में बर्मा के राजदूत रहे, जो अब म्यांमार के नाम से जाना जाता है। इस तरह सू ची के जीवन का एक लंबा और महत्वपूर्ण हिस्सा भारत में गुजरा। इसलिए भारत के प्रति उनके लगाव को समझ पाना मुश्किल नहीं होना चाहिए, पर यह लगाव सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। सू ची ने कहा भी, वह खुद को महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के बहुत करीब पाती हैं। अगर सू ची खुद को इन दोनों महान शख्सियतों के सर्वाधिक करीब पाती हैं तो यह भी स्वाभाविक ही है कि वह भारत के भी बेहद करीब हैं। दरअसल भारत से ऐसी अपेक्षा स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए संघर्षरत किसी भी देश की हो सकती है, फिर सू ची के पिता तो जवाहर लाल नेहरू के मित्र भी थे। इसलिए उनकी अपेक्षा अपनी जगह स्वाभाविक थी, जिस पर शुरू में भारत खरा भी उतरा, लेकिन 1991 से बही आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की बयार में सिर्फ आर्थिक नीतियां ही नहीं बदलीं, विदेश नीतियां भी उलटपुलट हो गयीं।
द्यराजेश बोरकर