02-Oct-2013 07:57 AM
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अब भारत के मतदाताओं को अपराधी, भ्रष्ट, कामचोर, अज्ञानी, नाकारा और मौकापरस्त राजनीतिज्ञों, नेताओं को अपने जनप्रतिनिधियों के रूप में शायद न झेलना

पड़े। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव सुधार की दिशा में बड़ा फैसला सुनाया है। वोटर सभी उम्मीदवारों को ना कह सकेंगे।
जब-जब होई धरम के हानि,
बाढ़हिं अधम असुर अमिभानी!
तब-तब प्रभु धर विविध शरीरा,
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा!!
की तजऱ् पर देश की सर्वोच्च अदालत ने राजनीति में बढ़ते अधर्म पर सुदर्शन चक्र चलाया है। यह भारतीय लोकतंत्र की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। यानी चुनाव में यदि कोई भी उममीदवार पसंद नहीं है तो मतदाता सभी को खारिज कर सकते हैं। इसके लिए वोटिंग मशीन में बाकायदा इनमें से कोई नहींÓ का बटन होगा। पहचान भी गुप्त रहेगी। भय, आतंक, अपराध के बल पर राजनीति करने वालों और राजनीति को गृह उद्योग बनाकर घर भरने वालों को जनता जनार्दन का एक वोट अब धराशायी कर सकता है। इससे शायद देश की बागडोर सँभालने वाले नेताओं को कुछ सदबुद्धि मिल सकेगी। यह मामला नौ साल पुराना था। फैसला चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनाया। कोर्ट ने चुनाव आयोग को इसके लिए जरूरी सुविधा मुहैया कराने का आदेश दिया है। साथ ही कहा कि आयोग इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के अंत में नन ऑफ द ऐबवÓ (ऊपर में से कोई नहीं) बटन की व्यवस्था करे। इसी तरह मतपत्रों में भी नकारात्मक वोटिंग के उपाय करे। आयोग चरणबद्ध तरीके से इसे अमल में लाए। कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस काम में आयोग की मदद करने को कहा है। शुरुआत में अमल सैंपल सीटों पर। बाद में सभी सीटों पर। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने 2004 में इस संबंध में जनहित याचिका दायर की थी। इसमें कहा था, संसद में किसी विधेयक पर मतदान के लिए हां और नहींÓ के अलावा मतदान से अलग रहने अर्थात एब्सटेनÓ का बटन भी है। मतदाताओं को भी ऐसा अधिकार मिलना चाहिए।Ó कोर्ट ने यह दलील मान ली। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने 2004 में इस संबंध में जनहित याचिका दायर की थी। इसमें कहा था, संसद में किसी विधेयक पर मतदान के लिए हां और नहींÓ के अलावा मतदान से अलग रहने अर्थात एब्सटेनÓ का बटन भी है। मतदाताओं को भी ऐसा अधिकार मिलना चाहिए।Ó कोर्ट ने यह दलील मान ली। इस फैसले के लागू होने से यह मांग तो पूरी हुई ही, अब यह बात भी सार्वजनिक होगी कि कितनों ने मतदान नकारात्मक किया है और उपलब्ध प्रत्याशियों को नकारते हुए इनमें से कोई नहींÓ का विकल्प चुनने वाले मतदाताओं की संख्या कितनी रहती है।
आगामी लोकसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है। वोटिंग मशीन में कोई नहींÓ का विकल्प होने के इस फैसले से देश के राजनीतिक परिदृश्य में भूचाल आ गया है। हालांकि सभी राजनीतिक दलों की प्रारंभिक टिप्पणियां इस फैसले के समर्थन में ही आई हंै, लेकिन उन पर विश्वास करना कठिन है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश के किसी भी कोर्ट में दोषी ठहराए गए दागी व अपराधियों के निर्वाचन को रद्द करने का फैसला सुनाया था। इस फैसले के खिलाफ़ लगभग सभी राजनीतिक दलों की सहमती थी। यूपीए सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए आनन फानन में अध्याधेश भी ले आई, जिसे समय में कोर्ट का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
नकारात्मक मतदान के अधिकार से राजनीतिक दलों में अच्छे, साफ़ छवि वाले प्रत्याशियों को उतारने का दबाब होगा! वहीं दूसरी ओर, जनता के पास सही विकल्प न होने पर नापसंदगी का अधिकार! भारत के चुनावी राजनीति में पारदर्शिता और जनता के प्रति जनप्रतिनिधियों की जबाबदेही को बढ़ावा मिलेगा, इस फैसले के लागू होने से अपराधियों, भ्रष्टाचारीयों, वंशवादी अयोग्य नेतृत्व को बढ़ावा देनेवाली व सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़कर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले दलों को भी करारा झटका लगेगा।
कुल मिलाकर ईवीएम मशीन में इनमे से कोई नहींÓ विकल्प रहने से जनता के हाथों में एक ऐसा आधिकार आ गया है, जिससे सही मायनों में जनता सशक्त हुई है। लेकिन इस फैसले को लागू करने में कई चुनौतियां भी सामने आने वाली हैं। साथ ही कई सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन, इस फैसले को लागू करने से अगर किसी क्षेत्र में मतदान इनमें से कोई नहींÓ के पक्ष में होता है तो दूसरी बार मतदान होगा या नहीं? अगर दूसरी बार मतदान होगा तो इसके खर्च का भार कौन उठाएगा? दूसरी बार के मतदान में भी दलों ने अपने सामान प्रत्याशी उतारे और परिणाम पहले जैसा ही आए तो क्या फिर तीसरी बार मतदान होगी? क्या पहली बार हुए मतदान में अस्वीकार कर दिए प्रत्याशी चुनाव लडऩे को अयोग्य होंगे या नहीं? यह फैसला कब से लागू होगा? क्या यह फैसला आनेवाले दिनों में होने वाले विधान सभा चुनावों में भी लागू होगा?
इस फैसले से कई चिंताएं भी उभरी हंै। सबसे बड़ी यह चिंता है कि इस विकल्प का इस्तेमाल कोई एक लंबी लाइन में घंटों खड़े होकर क्यों करना चाहेगा, जब वह जानता है कि हमारा मतदान अवैध हो जाएगा? वहीं दूसरी ओर, इस फैसले के लागू होने पर ही संदेह उठ रहे हैं। थोड़े दिनों पहले दागी व अपराधियों के निर्वाचन को अयोग्य ठहराने के फैसले को जिस तरह से सभी दलों ने विरोध किया और तुरंत इसे रद्द करने के लिए अध्याधेश ले आया गया, वैसे में कहीं इस फैसले के साथ भी राजनीतिक दलों द्वारा समान व्यवहार तो नही किया जाएगा? इस फैसले के लागू होने के बाद अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करनेवाला मतदाता अपने घरों से बाहर निकलकर मतदान करेगा या नहीं? किस-किस पर इसकी गाज गिरेगी?
कई लोगों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कोर्ट से अनिवार्य मतदान की भी व्यवस्था करने की अपेक्षा की है। गुजरात सरकार ने कई बार इसकी कोशिश भी की, लेकिन राज्यपाल द्वारा राजनीतिक वजहों से इसे नकार दिया गया। आखिर चुनाव में जब तक सभी मतदाता भाग नही लेंगे, हम कैसे एक आदर्श लोकतंत्र की बात करने की सोचेंगे! चुनाव में इनमें से कोई नहींÓ विकल्प के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट व सरकार से लोकतंत्र की मजबूती की आकांक्षा रखने वाली आम जनता सभी भारतीयों से इनमे से कोई नहीं मतदान करने से छुटाÓ का भी अनिवार्य विकल्प चाहती है। चुनावी सुधार की बयार सिर्फ राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और जबाबदेही तक सीमित न होकर, शत-प्रतिशत मतदान करने की जन जबाबदेही तक बहनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की भी है कि राइट टू रिजेक्ट को आरटीआई की तरह प्रभावी बनाया जाए ताकि ईवीएम में लगी वह बटन केवल औपचारिकता न रहे। बल्कि लोग उसका प्रयोग करें और जनप्रतिनिधि डरें कि कोई उन्हें खारिज कर सकता है। जवाबदेही बढ़ाने में जो योगदान आरटीआई ने दिया वही योगदान राइट टू रिजेक्ट भी देगा तभी बात बनेगी, लेकिन राइट टू रिजेक्ट का दुरुपयोग आरटीआई की तरह न हो इस बात का ख्याल रखा जाना चाहा।
दागियों पर राहुल का वीटो
लोकसभा चुनाव में सत्ता बचाने के लिए बेताब यूपीए ने दागी सांसदों और विधायकों को बचाने के लिए जो अध्यादेश लाने का विचार किया है उस पर बहस छिड़ गई है। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी सरकार के इस कदम का पहले ही विरोध कर रही है, लेकिन अब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को फाड़कर कूड़ेदान में डालने का कहकर मनमोहन एन्ड पार्टी में कड़ा संदेश दे दिया है। कांग्रेस नेता और संचार राज्यमंत्री मिलिंद देवड़ा ने भी स्पष्ट किया है कि यदि सरकार यह कदम उठाती है तो इससे लोकतंत्र में लोगों का विश्वास और कम होगा। मिलिंद देवड़ा से पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी इस अध्यादेश पर नाखुशी जता चुके हैं और उन्होंने कहा है कि इस मसले पर जनता की आम राय बना ली जाती तो बेहतर होता। उधर भारतीय जनता पार्टी इस अध्यादेश का पहले ही विरोध कर चुकी है। पार्टी के नेताओं ने राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति से मुलाकात करके उनसे अनुरोध किया कि वे इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर न करें।
सवाल यह है कि सरकार जल्दबाजी में यह अध्यादेश क्यों लाना चाहती थी। दरअसल आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए जो चुनावी बिसात बिछने वाली है उसमें कई ऐसे दल जो यूपीए के सहयोगी हैं या हो सकते हैं, इस अध्यादेश का समर्थन कर रहे हैं। उनका मानना है कि यदि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को जारी रखा गया तो कई नेता चुनाव लडऩे से वंचित हो जाएंगे। जिनमें लालू यादव का नाम सबसे ऊपर है। वैसे यह लिस्ट काफी लंबी हो सकती है क्योंकि इसमें आगे चलकर जगन मोहन रेड्डी से लेकर जयललिता तक और मायावती से लेकर येदियुरप्पा तक कई नेता शामिल हो सकते हैं। देखा जाए तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से नुकसान है क्योंकि दोनों दलों में ऐसे नेता हैं जो दागी हैं और सहयोगी दलों में भी इस तरह के नेताओं की भरमार है, लेकिन भाजपा की मजबूरी यह है कि वह आगामी चुनाव में भ्रष्टाचार और सुशासन को बड़ा मुद्दा बनाना चाहती है। ऐसे में यदि वह भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के समर्थन में जाकर खड़ी होगी तो इसका नुकसान देखने को मिलेगा। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी भी यही चाहते हैं कि चुनाव से पहले भाजपा किसी ऐसे पचड़े में न पड़े जिसमें उसकी छवि नष्ट हो। शायद इसीलिए येदियुरप्पा को पार्टी में वापस लेने की बजाए उनकी पार्टी से गठबंधन की बात चल रही है। लेकिन बहस इतनी ही नहीं है। स्वयं राष्ट्रपति इस अध्यादेश से असहमत हैं। उन्होंने केंद्र सरकार के तीन मंत्रियों- गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, कानून मंत्री कपिल सिब्बल और संसदीय मामलों के मंत्री कमलनाथ से बातचीत करके यह सवाल पूछा है कि आखिर दागियों को बचाने के लिए अध्यादेश की क्या जरूरत पड़ गई। अब राहुल गांधी ने नाराजगी दिखाकर अपना रुख साफ कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि दो साल की सजा पाने वाले सांसद या विधायक दोषी करार दिए जाने की तिथि से ही अयोग्य माने जाएंगे। इससे पहले 10 जुलाई को भी यही स्थिति बनी थी उसके बाद सरकार ने संसद के मानसून सत्र में जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कराने की असफल कोशिश भी की थी। हालांकि इसी सत्र में सरकार हिरासत में चुनाव लडऩे पर रोक संबंधी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को पलट चुकी थी। सूत्र बताते हैं कि अध्यादेश आनन-फानन में इसलिए लाया गया क्योंकि इसका असर राज्यसभा सांसद रशीद मसूद और लालू यादव पर तत्काल पड़ेगा। इस अध्यादेश का समर्थन कर रहे राजनीतिज्ञों का कहना है कि जब जेल में बंद लोगों को चुनाव लडऩे का अधिकार मिला हुआ है तो फिर दागियों को वंचित करने से क्या फायदा होगा। 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी थी उसमें कहा गया था कि दोषी करार जनप्रतिनिधि यदि तीन माह के अंदर निचली अदालत के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दे देता है तो उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी। हालांकि अदालत ने यह व्यवस्था देने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 4 को ही फैसले में निरस्त कर दिया था। अब यह नया टकराव सरकार को दुविधा में डाल रहा है। कांग्रेस में कुछ लोगों को सहयोगियों की फिक्र हैं तो राहुल को जनता की फिक्र है। जनता के बीच क्या मुंह लेकर जाएंगे। इसीलिए इस अध्यादेश पर कांग्रेस के भीतर और बाहर घमासान जारी है।
2001 में भेजा था प्रस्ताव
चुनाव आयोग ने नकारात्मक मतदान की प्रक्रिया को गोपनीय और सुविधाजनक बनाने के लिए 2001 में सरकार को प्रस्ताव भेजा था। इसमें इनमें से कोई नहींÓ का विकल्प देने का सुझाव था। लेकिन उसे सकारात्मक जवाब नहीं मिला। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अधिकतर दलों ने स्वागत किया है। लेकिन केंद्रीय कृषि मंत्री की बेटी एवं राकांपा सांसद सुप्रिया सुले की राय अलग है। उन्होंने कहा, राइट टु रिजेक्ट के तहत उम्मीदवार को नकारना वोट को बर्बाद करने जैसा होगा। बेहतर तो चुनना ही होगा।
कोर्ट का कथन
द्य राइट टु रिजेक्ट मतदाता का मौलिक अधिकार। अगर इसका विकल्प नहीं दिया जाएगा तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मकसद ही विफल हो जाता है।
द्य इस अधिकार का इस्तेमाल करने वाले मतदाता की पहचान गोपनीय रहनी चाहिए। मौजूदा नियम (49-ओ) में गुप्त मतदान के अधिकार का उल्लंघन होता है।
द्य मतदाता जितना अधिक यह विकल्प चुनेंगे, राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में उतनी ही सतर्कता बरतेंगे।
द्य असंतुष्ट मतदाता भी वोटिंग के लिए सामने आएंगे। ज्यादा मतदाताओं के सामने आने से लोकतंत्र में जीवंतता आएगी।
द्य लोकतंत्र तभी बचा रहेगा जब सही ढंग से शासन के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों को जनता का प्रतिनिधि चुना जाए।
अभी भर सकते हैं फॉर्म 49-ओ
मौजूदा स्थिति में यदि कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहे तो पीठासीन अधिकारी उनसे फॉर्म 49-ओ भरने को कहते हैं। आयोग इस बार इस विकल्प का प्रचार भी कर रहा है। प्रचार की कमी के कारण बहुत कम मतदाता ही इस विकल्प का उपयोग करते हैं। करीब दो माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में राइट टू रिजेक्ट का विकल्प मिल सकता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर यदि चुनाव आयोग निर्देश देता है तो मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी कार्यालय यह विकल्प देने के लिए तैयार है। मौजूदा स्थिति में हर विधानसभा क्षेत्र में अंतिम उम्मीदवार के बटन के बाद वाले बटन में उपरोक्त में से कोई नहींÓ का
विकल्प दिया जा सकता है। इसमें कोई तकनीकी या व्यावहारिक दिक्कत नहीं है। दरअसल, चुनाव आयोग 10 दिसंबर 2001 को इस संबंध में एक प्रस्ताव भी केंद्र सरकार को भेज चुका है।