भाग्य और रत्न
04-Feb-2013 11:13 AM 1237419

रत्नों में चमत्कारी शक्ति है जो ग्रहों के विपरीत प्रभाव को कम करके ग्रह के बल को बढ़ते हंै। आइये जानें कि भाग्य को बलवान बनाने के लिए रत्न किस प्रकार धारण करना चाहिए। रत्नों की शक्ति
रत्नों में अद्भूत शक्ति होती है। रत्न अगर किसी के भाग्य को आसमन पर पहुंचा सकता है तो किसी को आसमान से ज़मीन पर लाने की क्षमता भी रखता है। रत्न के विपरीत प्रभाव से बचने के लिए सही प्रकर से जांच करवाकर ही रत्न धारण करना चाहिए। ग्रहों की स्थिति के अनुसार रत्न धारण करना चाहिए। रत्न धारण करते समय ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा का भी ख्याल रखना चाहिए। रत्न पहनते समय मात्रा का ख्याल रखना आवश्यक होता है। अगर मात्रा सही नहीं हो तो फल प्राप्ति में विलम्ब होता है।
लग्न और रत्न
लग्न स्थान को शरीर कहा गया है। कुण्डली में इस स्थान का अत्यधिक महत्व है। इसी भाव से सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विचार किया जाता है। लग्न स्थान और लग्नेश की स्थिति के अनुसार जीवन में सुख दु:ख एवं अन्य ग्रहों का प्रभाव भी देखा जाता है। कुण्डली में षष्टम, अष्टम और द्वादश भाव में लग्नेश का होना अशुभ प्रभाव देता है। इन भावों में लग्नेश की उपस्थिति होने से लग्न कमजोर होता है। लग्नेश के नीच प्रभाव को कम करने के लिए इसका रत्न धारण करना चाहिए।
भाग्य, भाव और रत्न
जीवन में भाग्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। भाग्य कमज़ोर होने पर जीवन में कदम कदम पर असफलताओं का मुंह देखना पड़ता है। भाग्य मंदा होने पर कर्म का फल भी संतोष जनक नहीं मिल पाता है। परेशानियां और कठिनाईयां सिर उठाए खड़ी रहती हंै। मुश्किल समय में अपने भी पराए हो जाते हैं। भाग्य का घर जन्मपत्री में नवम भाव होता है। भाग्य भाव और भाग्येश अशुभ स्थिति में होने पर नवमेश से सम्बन्धित रत्न धारण करना चाहिए। भाग्य को बलवान बनाने हेतु भाग्येश के साथ लग्नेश का रत्न धारण करना अत्यंत लाभप्रद होता है।
तृतीय भाव और रत्न
जन्म कुण्डली का तीसरा घर पराक्रम का घर कहा जाता है। जीवन में भाग्य का फल प्राप्त करने के लिए पराक्रम का होना आवश्यक होता है। अगर व्यक्ति में साहस और पराक्रम का अभाव हो तो उत्तम भाग्य होने पर भी व्यक्ति उसका लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाता है। आत्मविश्वास का अभाव और अपने अंदर साहस की कमी महसूस होने पर तृतीयेश से सम्बन्धित ग्रह का रत्न पहना लाभप्रद होता है।
साम्पत्तिक काल क्या है
सूर्य को ग्रहों का राजा माना जाता है जिसके चारों तरफ अन्य ग्रह परिक्रमा करते हैं। ज्योतिषशास्त्र इसे ग्रह मानता है लेकिन लेकिन खगोल विज्ञान की दृष्टि में यह तारा है। हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं वह पृथ्वी भी सूर्य की परिक्रमा करता है और इसी से दिन और रात एवं आयन में परिवर्तन होता है। साम्पत्तिक काल का रहस्य पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा में छुपा हुआ है। पृथ्वी अपने अक्ष पर 24 घंटे घूमता रहता है इसे परिक्रमण कहते हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर एक दिन में सूर्य की परिक्रमा करते हुए 360 डिग्री घूमती है। पृथ्वी द्वारा 360 डिग्री घूमने पर एक दिन पूरा होता है जिसे सौर दिवस कहते हैं। हलांकि आदर्श रूप में यह कह दिया जाता है कि 24 घंटे का एक परिक्रमण समय होता है जबकि यह अवधि 23 घंटे, 56 मिनट और 4.09 सेकेण्ड का होता है शेष बचा 3 मिनट 56 सेकेण्ड साम्पत्ति दिवस कहलाता है जो सौर दिवस का बचा हुआ भाग होता है। संक्षेप में साम्पत्तिक दिवस को परिभाषित करते हुए कह सकते हैं कि माध्यमिक बिन्दु से एक समय अंतराल से दसरे समय अंतराल तक पहुंचने में जो समय लगता है उसके बीच का बचा हुआ भाग साम्पत्तिक दिवस कहलाता है।
कर्म भाव और रत्न
कर्म से ही भाग्य चमकता है। कहा भी गया है जैसी करनी वैसी भरनी ज्योतिष की दष्टि से कहें तो जैसा कर्म हम करते हैं भाग्य फल भी हमें वैसा ही मिलता है। भाग्य को प्रबल बनाने में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भाग्य भाव उत्तम हो और कर्म भाव पीडि़त तो इस स्थिति भाग्य फल बाधित होता है। कुण्डली में दशम भाव कर्म भाव होता है। अगर कुण्डली में यह भाव पीडि़त हो अथवा इस भाव का स्वामी कमज़ोर हो तो सम्बन्धित भाव स्वामी एवं लग्नेश का रत्न पहनाना मंगलकारी होता है।
रत्न और सावधानी
रत्न धारण करते समय कुछ सावधानियों का ख्याल रखना आवश्यक होता है। जिस ग्रह की दशा अन्तर्दशा के समय अशुभ प्रभाव मिल रहा हो उस ग्रह से सम्बन्धित रत्न पहनना शुभ फलदायी नहीं होता है। इस स्थिति में इस ग्रह के मित्र ग्रह का रत्न एवं लग्नेश का रत्न धारण करना लाभप्रद होता है। रत्न की शुद्धता की जांच करवाकर ही धारण करना चाहिए धब्बेदार और दरारों वाले रत्न भी शुभफलदायी नहीं होते हैं।
द्यसंकलित

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