18-Jan-2020 07:57 AM
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एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भारत की मौजूदा विकास दर 4.5 फीसदी है जो छह साल में सबसे निचले स्तर पर है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था का जैसा हाल है उससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। वहीं अर्थव्यवस्था में सुस्ती को देखते हुए सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पांच फीसदी तक बढऩे का अनुमान जताया है। पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी विकास दर 6.8 फीसदी थी। इससे पहले आरबीआई ने भी देश की विकास दर के अपने अनुमान को घटाकर पांच फीसदी कर दिया था। विश्व बैंक ने इस पर मुहर लगा दिया है कि भारत की जीडीपी की विकास दर 5 फीसदी ही रहेगी।
उधर, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने 7 जनवरी को चालू वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी का पहला अग्रिम अनुमान जारी किया। बीते कई महीनों से अर्थव्यवस्था में जारी सुस्ती के चलते यह विकास दर पांच फीसदी तक पहुंचने को लेकर भी विशेषज्ञ बहुत सहमत नहीं हैं। अर्थव्यवस्था के विकास की दर लगातार नीचे गिर रही है। खाने-पीने की चीजें महंगी हो रही हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी बढ़ी हैं और इसकी खपत कम हो रही है। बीते साल में महंगाई बेतहाशा बढ़ी है। लेकिन सरकार इसे नियंत्रित नहीं कर पा रही है। सरकार का कहना है कि चीजों की खपत कम हो रही है, लेकिन खपत कम होने की वजह क्या है और अगर यही हाल रहा तो क्या सरकार विकास दर के पांच फीसदी के अनुमानित आंकड़े को छू पाएगी?
भारत के लिए फिलहाल सुस्त अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और बड़ा वित्तीय घाटा चिंता के विषय हैं। जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण साल 2020 में बजट पेश करेंगी तो उन्हें नई नीतियां बनाने या पुरानी नीतियों को वापस लाने में इन चीजों का ख्याल भी रखना होगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह साल काफी चुनौती भरा रहा और इसका गहरा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर भी दिखा। इस तिमाही में विकास दर 4.5 फीसदी तक गिर गई। ये गिरावट लगातार छठी तिमाही में और बाजार की उम्मीदों के उलट है। भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर छह साल में सबसे निचले स्तर पर है। निजी खपत और निर्यात के साथ निवेश पर भी बुरा असर पड़ा है। घरेलू खपत भी चिंता का विषय रही जिसका भारत की जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी है।
साल 2019 में सेंट्रल बैंक और आरबीआई ने पांच बार ब्याज दरें कम की, लेकिन इस असर का दिखना अब भी बाकी है। हालांकि सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाए हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि ये पर्याप्त नहीं हैं। सुस्त अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने में सरकार कई प्रयोगों के बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं कर पाई है। महंगाई उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा है। जाहिर है जब क्रय शक्ति घटती है तो खपत भी घटती है और इसका नकारात्मक असर जीडीपी पर पड़ता है। महंगाई को तार्किक स्तर पर बनाए रखना और बीते छह साल के मुकाबले निम्न स्तर पर पहुंच चुकी 4.5 फीसदी जीडीपी को 7 या 8 फीसद के इर्द-गिर्द लाना साल 2020 में सरकार के लिए पहली चुनौती रहेगी।
गौरतलब है कि 5 टिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए 8 प्रतिशत जीडीपी की आवश्यकता है। सरकार ने अर्थव्यवस्था का जो भारी-भरकम स्वरूप बनाने का मन बनाया है मौजूदा जीडीपी को देखते हुए कह सकते हैं कि यह आसान राह नहीं है। अगर भारत को बदलाव की चुनौती का मुकाबला करना है तो केवल सामान्य विकास से काम नहीं चलेगा। इसके लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत पड़ेगी जिसकी पहली आवश्यकता जीडीपी में बढ़ोतरी ही है। साल 2024 तक 5 डॉलर की अर्थव्यवस्था करने का इरादा कहीं कागजों तक न रह जाए इसके लिए कृषि, विनिर्माण, पूंजी, निवेश आदि को लेकर लंबी छलांग लगानी होगी। बीते समय में देशभर में छोटी कंपनियां कुछ अधिक ही प्रभावित हुई हैं और बड़ी कंपनियों में भी नौकरी के अवसर घटे हैं। इतना ही नहीं सरकारी नौकरियां भी समय के साथ सिमट रही हैं। बीते वर्ष बेरोजगारी दर 6.1 फीसद पर चली गई थी जो 45 साल में सबसे ज्यादा थी। नए वर्ष में इस आरोप से मुक्त होने के लिए सरकार को एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। गौरतलब है कि साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम-बल वाला देश हो जाएगा और इसकी खपत के लिए बड़े नियोजन की दरकार होगी।
राजकोषीय घाटा भी लक्ष्मण रेखा लांघ रहा
अर्थव्यवस्था में सुस्ती की वजह से कर संग्रह घटा है और चालू वित्त वर्ष में इसको सकल घरेलू उत्पाद के 3.4 प्रतिशत तक रखने का लक्ष्य है। राजकोषीय घाटा भी लक्ष्मण रेखा लांघ रहा है। हालांकि आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह लक्ष्य भी किसी चुनौती से कम नहीं। गौरतलब है कि बढ़ता राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करता है जिसके चलते ब्याज दरों के साथ महंगाई भी बढ़ती है। यही कारण है कि पिछली 5 समीक्षाओं में रिजर्व बैंक ने 5 बार रेपो रेट में कमी करते हुए बीते फरवरी से अब तक 1.35 फीसदी की कटौती कर चुका है। जिसके चलते बैंकों पर ब्याज दर कम करने का दबाव बना। इतना ही नहीं अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कटौती की और भी संभावना है जो कहीं न कहीं इसका निचला स्तर होगा। आरबीआई की यह चिंता रही है कि आर्थिक सुशासन को कैसे पटरी पर दौड़ाया जाए। इसी के चलते वह लगातार रेपो दर में कटौती करता रहा।
- ऋतेन्द्र माथुर