18-Nov-2019 07:49 AM
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महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के करीब एक पखवाड़े तक सरकार बनाने को लेकर दावेदार राजनीतिक पार्टियों के बीच चली उठापटक के बाद आखिरकार राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। हालांकि राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने पहले शिवसेना और फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने के लिए अपना दावा पेश करने के लिए समय दिया था, लेकिन उसके पहले ही उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। इसके बाद सिफारिश को मंत्रिमंडल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगा।
दरअसल, महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिल गया था, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर रार इस कदर बढ़ी कि गठबंधन टूट गया। उसके बाद शिवसेना को उम्मीद थी कि एनसीपी और कांग्रेस उसे सरकार बनाने के लिए समर्थन देंगे, लेकिन वहां भी बात नहीं बन पाई। वहीं कांग्रेस सरकार बनाने को लेकर असमंजस में फंसी रही। इसका परिणाम यह हुआ कि न शिवसेना और न ही एनसीपी की सरकार बन सकी। जबकि भाजपा ने पहले ही सरकार बनाने से मना कर दिया था।
भाजपा के लिए यह परिणाम बहुत सुकून देने वाला नहीं है। उसे इस चुनाव में मात्र 105 सीट पर विजय मिली जो पिछली विधानसभा चुनाव में प्राप्त 122 सीट से 17 कम थीं। प्रमुख घटक शिवसेना भी मात्र 56 विधानसभा क्षेत्रों में सफल हुई, जो 2014 में उनके विधायकों की संख्या से सात कम रही। यही नहीं, उनकी गठबंधन सरकार के आठ मंत्रियों, जिसमें भाजपा की पंकजा मुंडे शामिल हैं, को हार का मुंह देखना पड़ा। चुनाव के दौरान भाजपा-शिवसेना महायुति, यानी गठबंधन को 288 सीट वाले विधानसभा में कम से कम 200 क्षेत्रों में अपनी विजय पताका लहराने की उम्मीद थी। बहस का मुद्दा सिर्फ यह था कि यह गठबंधन 200 से अधिक कितनी सीटें जीतेगा। भाजपा के कुछ बड़े नेता इस कदर आश्वस्त थे कि उन्हें लगता था कि उनकी पार्टी अपने बलबूते ही सरकार बना लेने में सक्षम रहेगी।
ऐसी सोच बेवजह नहीं थी। मात्र पांच महीने पहले आम चुनाव में इसी गठबंधन ने महाराष्ट्र की 48 लोकसभा क्षेत्रों में से 41 में जीत हासिल की थी। उसके बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 और तीन तलाक’ सरीखे ऐतिहासिक फैसले किए। एक अन्य कारण किसी मजबूत विपक्ष का न होना भी माना जा रहा था। हालांकि चुनाव-पूर्व ही कांग्रेस ने शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के साथ गठबंधन कर लिया था, लेकिन दोनों दलों में सामंजस्य का अभाव झलक रहा था। उनके कई वरिष्ठ नेता और विधायक उनका दामन छोड़कर भाजपा-शिवसेना में शामिल हो चुके थे।
परिणाम शिवसेना के लिए भी अच्छे नहीं थे, लेकिन बालासाहेब ठाकरे द्वारा स्थापित पार्टी ने अपने लिए इस परिस्थिति को एक सुअवसर में बदलने में समय नहीं गंवाया। चुनाव-पूर्व हुए तालमेल के बाद शिवसेना के खाते में मात्र 124 सीटें आई थीं, जबकि भाजपा ने शेष 164 सीटें अन्य छोटे घटक दलों के साथ लडऩे का फैसला किया था। इस फैसले से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे खुश नहीं थे। वे चुनाव भाजपा के साथ 50:50 के फार्मूला पर लडऩा चाहते थे लेकिन लंबे समय तक चली बातचीत के बाद भी उनकी नहीं चली।
चुनाव परिणाम के बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा को पिछली बार से कम सीटें प्राप्त हुई हैं तो उद्धव ने अपना पासा फेंका। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि भाजपा नेतृत्व इस बार उनके बीच हुए 50:50 के फॉर्मूले के अनुसार सरकार गठन करेगी। भाजपा इसके लिए तैयार न थी, विवाद बढ़ता देखकर फडणवीस ने इससे इनकार किया कि दोनों पार्टियों के बीच ऐसा कोई समझौता हुआ था। जानकारों का अनुमान था कि भाजपा और शिवसेना के बीच का तनाव महज राजनैतिक पैंतरेबाजी है। शिवसेना अपने लिए उप-मुख्यमंत्री के पद के अलावा गृह जैसे महत्वपूर्ण विभाग चाहती है। लेकिन बाद में पता चला कि मामला 50:50 का था।
महाराष्ट्र के राज्यपाल के मुताबिक राज्य में सरकार गठन की तमाम कवायदों के बाद भी राजनीतिक गतिरोध बरकरार रहा और दावे के बावजूद शिवसेना समर्थन का पत्र नहीं दे सकी। इसके अलावा, राकांपा और कांग्रेस पार्टी के बीच भी ऊहापोह की स्थिति बनी रही और विधायकों की खरीद-बिक्री के आरोप सामने आने लगे। दरअसल, सरकार बनाने में भाजपा की नाकामी के बाद भी एक तरह से अस्पष्ट स्थिति बनी हुई थी और शिवसेना को राकांपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर से मिलने वाले समर्थन पर भी कोई साफ राय सामने नहीं आ रही थी। इसलिए राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।
पवार का मास्टरस्ट्रोक
महाराष्ट्र में चुनाव और सरकार गठन की कवायद के दौरान शरद पवार सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बनकर सामने आए हैं। पवार ने अपने मास्टरस्ट्रोक से न सिर्फ लोगों, खासकर मराठा समर्थकों, की सहानुभूति अर्जित कर ली, बल्कि अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार भी किया। उम्र के इस पड़ाव पर भी उन्होंने मौसम की परवाह न करते हुए हर रोज लगभग 200 किलोमीटर की यात्रा कर तकरीबन 80 रैलियों को संबोधित किया। इन सबका नतीजा यह हुआ कि उनकी पार्टी को 54 सीटें मिलीं जो पिछले चुनाव से 13 अधिक थीं। इसका फायदा कांग्रेस को भी हुआ जिसके 44 उम्मीदवार विजयी हुए। विश्लेषकों का मानना है कि अगर चुनाव में शरद पवार को कांग्रेस नेतृत्व से अपेक्षित सहयोग मिला होता तो उनके गठबंधन को और फायदा होता।
- बिन्दु माथुर