05-Jun-2019 08:36 AM
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संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने 3 मई को आखिरकार जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को एक वैश्विक आतंकवादी घोषित कर दिया जिसके लिए कई हफ्तों से भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बीच राजनयिक स्तर पर वार्ता चल रही थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत बताने में वक्त नहीं गंवाया और इसे पाकिस्तान पर सितंबर 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और उसके बाद इस साल फरवरी में बालाकोट हवाई हमले के बाद, तीसरी सफल सर्जिकल स्ट्राइक करार दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने 3 मई को राजस्थान में एक चुनावी रैली में कहा, यह आतंकवादी अब पाकिस्तान सरकार की मेहमान नवाजी का आनंद नहीं ले सकेगा। यह हमारी ओर से तीसरी स्ट्राइक है।
पाकिस्तान का घमंड चूर-चूर हो गया है। अजहर को आतंकियों की सूची में शामिल कराना निश्चित रूप से मोदी सरकार के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत है। फिर भी जिसका नाम पहले प्रयास में आतंकवादियों की फेहरिस्त में शामिल हो जाना चाहिए था, उसके लिए चार बार प्रयास करना पड़ा और नौ साल तक चीन के साथ कठिन सौदेबाजी करनी पड़ी और अंतत: अमेरिकी दबाव और संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रयासों से निर्मित एक अभूतपूर्व राजनयिक गठबंधन से ऐसा संभव हो सका।
भाजपा को सुरक्षा परिषद में मिली इस सफलता का फायदा लोकसभा चुनाव में भी मिला। अब देश में भाजपा की दोबारा सरकार बनने के बाद कोशिश यह होनी चाहिए कि वह चीन से चौकन्ना रहे। हालांकि, अजहर को आतंकवादियों की सूची में शामिल कराकर मिली सफलता के बीच हमें इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोडऩा चाहिए कि लगातार आक्रामक हो रहे चीन से निपटना पिछले एक दशक के मुकाबले अब कहीं ज्यादा मुश्किल हो गया है। अजहर को आतंकवादी घोषित कराने के लिए चला लंबा संघर्ष हमसे पांच गुना बड़ी आर्थिक ताकत से निपटने की हमारी नवीनतम चुनौतियों की ओर इशारा करता है। ये चुनौतियां खासतौर से तब बड़ी नजर आती हैं जब हम पाते हैं कि भारत चीन के आर्थिक शिकंजे में तेजी से फंसता जा रहा है।
बीजिंग के भारत के रास्ते में अड़चन खड़ी करने के बाद हमें क्रोध आता है फिर कुछ सौदेबाजी होती है, फिर अवसाद और अंतत: हम स्वीकार कर लेते हैं कि हिमालय के उस पार खड़ा हमारा पड़ोसी हमेशा ऐसा ही रहेगा। राजनीतिक बहस दूसरे और तीसरे चरणों में सबसे अधिक गर्म हो जाती है जब बहस का रुख इस ओर मुड़ता है कि भारत ड्रैगन के खिलाफ क्या रुख अख्तियार कर सकता है।
मार्च में जब चीन ने चौथी बार मसूद के मामले में तकनीकी आधार पर अड़ंगा लगाया था तब सबसे लोकप्रिय और त्वरित प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर चीनी सामान के बहिष्कार की अपील के रूप में दिखी जब ट्विटर पर प्तड्ढश4ष्शह्लह्लष्टद्धद्बठ्ठद्गह्यद्गद्दशशस्रह्य हैशटैग ट्रेंड करने लगा। यह अलग बात है कि जिन स्मार्टफोन का प्रयोग करके बहिष्कार के अभियान छेड़े जाते हैं और जिसकी खबर अगले दिन सभी अखबारों की सुर्खियों बनती है, उनमें से अधिकांश स्मार्टफोन चीनी, अमेरिकी अथवा कोरियाई कंपनियों के या तो चीन में ही निर्मित हुए होंगे या फिर असेंबल किए गए होंगे।
चीनी सामान के बहिष्कार का यह अभियान कभी सफल नहीं होने वाला और इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जैसा कि नवंबर 2016 में भी इसी तरह का प्रयास हुआ था, जब भारतीय व्यापार संघों ने दिवाली के दौरान एक राष्ट्रव्यापी बहिष्कार का आह्वान किया था। दिल्ली के सदर बाजार में चीनी सामान की होली जलाने की बात अब एक तरह से सालाना रस्म हो गई है। इस साल भी इसका कोई खास असर नहीं हुआ। महंगे टेलीकॉम, बिजली और बिजली के उपकरणों का वार्षिक आयात 75 अरब डॉलर (5 लाख करोड़ रु. से अधिक) तक पहुंच चुका है जो कि अधिकांश भारतीय आपूर्ति शृंखलाओं का प्रमुख घटक बन गया है। प्लास्टिक के सस्ते चीनी खिलौने जलाना एक बात है, इस आयात पर रोक लगाना अलग बात।
- अक्स ब्यूरो