17-Aug-2013 06:26 AM
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उत्तराखंड में पिछले दिनों लगातार चार भुकंप आए। एक भूकंप तो कश्मीर में भी महसूस किया गया। भूकंपों की यह श्रृंखला एक बड़े खतरे को आमंत्रित कर रही है। उत्तराखंड में टिहरी बांध की उम्र मात्र

चालीस वर्ष बताई गई है जिसमें से एक दशक से ऊपर का समय बीत चुका है और जो तीन दशक बचे हैं उनमें तबाही नहीं होगी इस बात की गांरटी नहीं है। टिहरी बांध में गंगा के आस-पास रहने वाली सारी जनसंख्या को बहा ले जाने वाली ताकत के बराबर पानी एकत्रत है और यदि इसमें किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न होता है तो लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना लगभग असम्भव हो जाएगा।
उत्तराखंड की जमीन का खोखलापन अब सभी की चिंता का विषय है। दिल्ली जैसे शहरों को बिजली देने के लिए जो पनबिजली योजनाएं उत्तराखंड में बनाई जा रही है उन्हें देखकर लग रहा है कि मानवता की कब्र पर राजभोगी और मेट्रों शहरों को पोषित किया जा रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उत्तराखंड के पानी से पैदा होने वाली बिजली ज्यादातर बड़े शहरों को ही मिल रही है। यानि जो सुरक्षित है उनके आराम की खातिर करोड़ों जाने असुरक्षित हैं। यही हाल रहा तो पर्यावरण के दुष्प्रभावों को केवल गरीब लोग भुगतेंगे और अमीर लोग या शहरों में रहने वाले सुरक्षित बने रहेगें। बार-बार कहा जा रहा है कि भूकंप और बड़े बांधों में गहरा सम्बन्ध है। लेकिन टिहरी में जो हो रहा है उससे सारे देश को भी नुकसान हो सकता है क्योंकि उत्तराखंड सारे देश के पर्यावरण को कहीं न कहीं प्रभावित करता है। यह प्रभाव सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी।
हिमालय क्षेत्र में बन रहा टिहरी बाँध शुरू से ही विवादों के घेरे में रहा हैं। योजना आयोग द्वारा 1972 में टिहरी बाँध परियोजना को मंजूरी दी गई। जैसे ही योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दी, टिहरी और आस-पास के इलाके में बाँध का व्यापक विरोध शुरू हो गया। कई शिकायतें इस संबंध में केंद्र सरकार तक पहुंची। संसद की ओर से इन शिकायतों की जांच करने के लिए 1977 में पिटीशन कमेटी निर्धारित की गई। 1980 में इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बाँध से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों की जांच करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बनाई। इस समिति ने बाँध के विकल्प के रूप में बहती हुई नदी पर छोटे-छोटे बाँध बनाने की सिफारिश की। पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद अक्टूबर, 1986 में बाँध परियोजना को एकदम छोड़ देने का फैसला किया। अचानक नवंबर, 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ सरकार ने टिहरी बाँध निर्माण में आर्थिक मदद करने की घोषणा की। इसके बाद फिर से बाँध निर्माण कार्य की सरगर्मी बढऩे लगी। फिर बाँध से जुड़े मुद्दों पर मंत्रालय की ओर से समिति का गठन हुआ। इस समिति ने बाँध स्थल का दौरा करने के बाद फरवरी, 1990 में रिपोर्ट दी कि टिहरी बाँध परियोजना पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से बिलकुल अनुचित है। मार्च, 1990 में एक उच्च स्तरीय समिति ने बांध की सुरक्षा से जुड़े हुए मुद्दों का अध्ययन किया। जुलाई, 1990 में मंत्रालय ने बांध के निर्माण कार्य को शुरू करने से पूर्व सात शर्तों को पूरा करने के लिए कहा। इन सात शर्तों को पूरा करने के लिए समय सीमा निर्धारित की गयी। लेकिन इस समय सीमा के बीत जाने के बावजूद आज तक एक भी शर्त पूरी नहीं की गई। अब बांध का निर्माण कार्य बिना शर्त पूरा किए शुरू कर दिया गया है। बांध का निर्माण कार्य करने वाली एजेंसियों को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कई बार याद दिलाया गया, लेकिन बांध निर्माण से जुड़ी हुई कोई भी शर्त नहीं मनी गयी।
अगस्त, 1991 में इसी बात को लोकसभा में चेतावनी के रूप में उठाया गया, जिस पर काफी बहस हुई। कई सांसदों ने बांध क्षेत्र में भूकम्प की संभावनाओं पर चिंता व्यक्त की। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया, जिससे जान-माल की काफी हानि हुई। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि बांध क्षेत्र में भूकम्प की आशंकाए निरधार नहीं हैं। टिहरी बांध के निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार आंखे खोल देने वाला हैं।
1993 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गये एक नोट में कहा गया है कि यदि यह बांध टूट जाता हैं तो यह विशाल जलाशय 22 मिनट में खाली हो जाएगा, 63 मिनट में ऋषिकेश 260 मीटर पानी में डूब जाएगा। अगले बीस मिनट में हरिद्वार 232 मीटर पानी के नीचे होगा। बाढ़ का यह पानी विनाश करते हुए बिजनौर, मेरठ, हापुड़ और बुलंदशहर को 12 घंटो में 8.5 मीटर गहरे पानी में डुबो देगा। करोड़ो लोगों के जान-माल का जो नुकसान होगा, वह बांध की लागत से कई गुना अधिक होगा।
खतरा यह है कि यह बांध चीन की सीमा से लगभग 100 मील की दूरी पर हैं। चीन के साथ किसी संघर्ष में यदि इस बांध को दुश्मनों द्वारा तोड़ दिया जाए तो भी विनाश का यही दृश्य उपस्थित हो सकता है जो भूकम्प के आने पर होगा। जल प्रलय की यह भयावह आशंका रूह को कंपा देती है।
ज्योत्सना अनूप यादव