नेता पुत्रों का भविष्य
03-May-2019 09:41 AM 1234809
संसदीय जनतंत्र में वंशवादी पार्टियों और नेताओं की राजनीतिक वय उनकी भावी पीढ़ी की क्षमता, योग्यता, लोकप्रियता और पुरानी पीढ़ी की विरासत को संभालकर रखने की काबिलियत से तय होती है। इस लोकसभा चुनाव में कौन सत्ता में आएगा और कौन नहीं, इससे इतर कई नेताओं और पार्टियों का राजनीतिक अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, चौटाला परिवार की पार्टी, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम जैसी पार्टियों के राजनीतिक हाशिए पर जाने की आशंका गहरा रही है। वहीं एमके स्टालिन, तेजस्वी यादव और जगनमोहन रेड्डी के सामने भी यह साबित करने की चुनौती है कि लोगों ने उन्हें उनके पिता के राजनीतिक वारिस के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस चुनाव के नतीजे से भविष्य के राजनीतिक ध्रुवीकरण का रास्ता भी खुलेगा। चुनाव में हार-जीत राजनीतिक दलों के लिए आम बात है। कोई हमेशा जीत नहीं सकता। 2019 का चुनाव कांग्रेस और भाजपा के लिए भी एक अलग तरह की चुनौती है। भाजपा को साबित करना है कि वह केंद्र में अपने पांच साल के काम के बूते सत्ता में लौट सकती है तो राहुल गांधी के लिए यह राजनीतिक रूप से करो या मरो का चुनाव है। इस चुनाव में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो राहुल गांधी के नेतृत्व पर पार्टी के अंदर से सवाल उठने लगेंगे। प्रियंका गांधी वाड्रा को महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाना गेम चेंजर बताया जा रहा था। राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अब फ्रंट फुट पर खेलेगी। कांग्रेस तो छोडि़ए, खुद राहुल गांधी ही बैकफुट पर चले गए हैं। हाल यह है कि प्रिंयका के आने के बावजूद राहुल गांधी अमेठी में अपने को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। सुरक्षित सीट की तलाश में वह केरल के वायनाड लोकसभा क्षेत्र पहुंच गए हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और गांधी परिवार ही नहीं, दूसरे दो राजनीतिक दलों के सामने भी संकट और चुनौती है। राज्य में बहुजन समाज पार्टी की गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही। मायावती के सामने अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की चुनौती है। वह 2002 के बाद से लोकसभा या विधानसभा चुनाव नहीं लड़ी हैं। इस बार भी वह चुनाव प्रचार में व्यस्तता का बहाना बनाकर चुनाव मैदान से बाहर हो गई हैं। बसपा जिन 38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है वहां उसके उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी के यादव मतदाता वोट देंगे, यह कहना कठिन है। बहुजन से सर्वजन बनते-बनते वह अब केवल जाटवों की नेता रह गई हैं। मुसलमानों के मन में उन्हें लेकर आशंका है कि चुनाव के बाद कहीं वह भाजपा के साथ न चली जाएं। साल 2007 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद से बसपा को हार का ही सामना करना पड़ा है। सपा से गठबंधन उन्होंने इस उम्मीद से किया है कि हार का यह सिलसिला शायद रुक जाए। इस चुनाव में डर इस बात का है कि जाटव वोटों में भी भाजपा सेंध न लगा दे। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश की सत्ता 2012 में पिता मुलायम सिंह यादव ने तश्तरी में रखकर दी थी। उसके बाद से एक लोकसभा और एक विधानसभा का चुनाव हो चुका है। दोनों में समाजवादी पार्टी के इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन रहा। अखिलेश यादव को देखकर उनके सहयोगी अजित सिंह का अतीत याद आता है। उनके पिता चौधरी चरण सिंह का जनाधार उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश में भी था। आज अजित सिंह, प्रदेश तो छोडि़ए, बागपत कमिश्नरी के भी नेता नहीं रह गए हैं। अखिलेश यादव उसी दिशा में बढ़ेंगे या पार्टी के जनाधार में क्षरण को रोक पाएंगे, यह लोकसभा चुनाव का नतीजा तय करेगा। इन दोनों राजनीतिक दलों का वर्तमान उत्तर प्रदेश की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा। बिहार में लालू प्रसाद यादव का कुनबा आपसी संघर्ष में उलझा हुआ है। लालू प्रसाद जेल में हैं, राबड़ी देवी अघोषित राजनीतिक वनवास में और बेटे-बेटियों में खुला युद्ध हो रहा है। तेजस्वी यादव अपने राजनीतिक विरोधियों से तो तब लड़ेंगे जब अपने भाई-बहन से पार पाएंगे। पिता ने उन्हें अपना राजनीतिक वारिस तो बना दिया है, लेकिन अब उन्हें यह भी साबित करना है कि उनमें वोट दिलाने की क्षमता है। संसदीय जनतंत्र में नेता वही होता है जो वोट दिला सके। पारिवारिक विरासत से पार्टी में संगठन का पद तो मिल सकता है, पर वोट नहीं मिलता। बिहार के दूसरे नेता पुत्र चिराग पासवान का जिक्र इसलिए नहीं किया, क्योंकि वह अभी पिता की छाया से निकलकर अपनी कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं बना पाए हैं। हरियाणा में चौटाला परिवार का हश्र पुराने जनता दल जैसा हो गया है। दिल का कोई टुकड़ा यहां गिरा, कोई वहां गिरा। यहां भी परिवार के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला जेल में हैं। इंडियन नेशनल लोकदल के दोनों धड़ों के सामने परिवार की राजनीतिक विरासत तो छोडि़ए, अपना अस्तित्व बचाने का संकट है। आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू अपने जीवन का सबसे कठिन चुनाव लड़ रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ गए, एनडीए हारा तो अलग हो गए। साल 2014 में मोदी की हवा दिखी तो साथ आ गए। चार साल सत्ता में रहने के बाद तेलंगाना विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता किया और औंधे मुंह गिरे। वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी अपने पिता की राजनीतिक जमीन हासिल करने के लिए तैयार हैं। ऐसा लगता है कि पिता से हारने के बाद अब उन्हें बेटे के सामने भी हार का मुंह देखना पड़ेगा। तमिलनाडु में लंबे समय तक पिता एम करुणानिधि की छाया में रहने के बाद एमके स्टालिन को पहली बार अपनी क्षमता दिखाने का मौका मिला है। उनके लिए अच्छी बात यह है कि विरोध में अन्नाद्रमुक की ओर से जयललिता नहीं हैं, फिर भी मुकाबला आसान नहीं है। उनके सामने अपनी पार्टी और परिवार, दोनों को साथ लेकर चलने की चुनौती है। इस चुनाव का नतीजा द्रविड़ राजनीति का भविष्य भी तय करेगा। इन सबके बीच हैं ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक। बीजू पटनायक के पुत्र होने के बावजूद उन पर बाकी लोगों की तरह कभी वंशवादी होने का आरोप नहीं लगा। प्रदेश की सत्ता में उनके बीस साल पूरे हो रहे हैं। विधानसभा चुनाव में उन्हें ज्यादा खतरा लगता नहीं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनका किला दरकता नजर आ रहा है। लोकसभा का यह चुनाव वंशवादी पार्टियों और एक नेता वाली कई पार्टियों का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। देश का जनतंत्र परिपक्व हो रहा है। आज का मतदाता, परिवार की पृष्ठभूमि के आधार पर नहीं, योग्यता के आधार पर मौका देना चाहता है। इसलिए नेता पुत्रों के लिए इस चुनाव के नतीजे एक चेतावनी की तरह हो सकते हैं। मतदाता चाहता है कि नेता खानदान के अतीत कीबजाय अपनी योग्यता की बात करें। जो योग्य है वह आगे बढ़ेगा। अब जन्म और विवाह के प्रमाण पत्र के आधार पर चुनावी कामयाबी नहीं मिलेगी। -ऋतेन्द्र माथुर
FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^