उन वादों का क्या?
17-Apr-2019 10:15 AM 1234836
देश में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कमर कस ली है। लेकिन भाजपा के खिलाफ डबल एंटी इन्कम्बेंसीÓ का माहौल बना हुआ है। इसकी वजह है 2014 में मोदी द्वारा किए गए वादों का पूरा न होना और मोदी के मैजिक पर चुनाव जीत कर आये नेताओं ने विकास का कोई काम नहीं किया। इस कारण 2014 में विकास से शुरू हुआ नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक सफर धर्म और राष्ट्रवाद पर आकर टिक गया। 2014 में विकास, कालाधन, बेरोजगारी, चुनाव सुधार और अपराध के खिलाफ जंग लडऩे की बातें बेमानी हो गई। 2019 के चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी पाकिस्तान और राष्ट्रवाद की बहस से जीत हासिल करना चाहते है। इसके लिये व्यापक रूप से प्रचार माध्यमों का प्रयोग किया जा रहा है। प्रचार की इस जद्दोजहद में जनता के अपने मुद्दे दूर हो गये है। लोकसभा चुनाव में मुद्दों को दरकिनार करके जुमलों को उछला जा रहा है। गौरतलब है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी 2014 में वे उम्मीदें जगा कर जीते थे। पांच साल बाद वे पाकिस्तान से आतंकवादी खतरों का डर दिखाकर दोबारा सत्ता में आने के लिए वोट मांग रहे हैं। तो उनका विरोध जो भी करेगा, खासकर कांग्रेस, उसे पाकिस्तान से मिलीभगत करने वाला माना जाएगा। इसीलिए मोदी कहते हैं कि केवल आतंकवादी और पाकिस्तानी ही उनकी हार चाहते हैं। इसी रौ में वे विपक्ष पर भी आरोप लगाते हैं कि वह आतंकवादियों के प्रति नरम रुख रखता है और उनसे सीमा पार के सर्जिकल स्ट्राइकों के सबूत मांग रहा है तथा सेना की तौहीन कर रहा है। मोदी-शाह की भाजपा जिस चीज में विश्वास करती है उसे टोटल पॉलिटिक्सÓ कहा जा सकता है। इसमें राजनीति ही चौबीसों घंटे का उद्यम, मनोरंजन, जुनून और नशा बन जाती है और जीत के लिए उस भरोसे को जरूरी नहीं माना जाता जो किसी सार्वजनिक पद के लिए आम तौर पर एक शर्त होती है। आज, आप इस पद के लिए कोई भी तिकड़म लगाने से नहीं चूकते और माना जाता है कि पद हासिल होने के बाद देख लेंगे कि इसका क्या करना है। इसलिए, अगर आप एक तरह की दहशत पैदा कर देते हैं तो यह चतुर, काम की पॉलिटिक्स है। दूसरी ओर, अपने पांच साल के रिकॉर्ड के बूते दोबारा सत्ता में आने के लिए चुनाव लडऩा खतरे से खाली नहीं माना जाता। क्योंकि तब लोग आपके दावों की जांच आजÓ की वास्तविकता के संदर्भ में करने लगते हैं। आप रोजगार के तमाम आंकड़ों को छुपा सकते हैं, जीडीपी के आंकड़ों में खेल कर सकते हैं। लेकिन जैसे ही आप लोगों से यह पूछेंगे कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं, तो वे तुरंत हकीकत की जांच करने लगेंगे। आपकी योजनाओं, आपके शौचालयों, मुद्रा ऋणों, उज्ज्वला गैस कनेक्शनों, किसानों के खातों में पैसे डालने, बिजली पहुंचाने आदि के कार्यक्रमों से चाहे जितने भी लोगों को लाभ पहुंचा हो, इन सबसे वंचित रहे लोगों की तादाद फिर भी बड़ी ही होगी। क्या आप जानना चाहते हैं कि यह कितना खतरनाक है? जरा लालकृष्ण आडवाणी से 2004 की इंडिया शाइनिंगÓ मुहिम के हश्र के बारे में पूछ लीजिए। मोदी के शुरुआती भाषणों ने संकेत दे दिया था कि वे इन्हीं मुद्दों को उठाने जा रहे हैं- पाकिस्तान, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विपक्ष और उनके आलोचकों में राष्ट्रवादी भावना की कमी और मोदी इन मुद्दों को शायद ही उठाएंगे- रोजगार, विकास, कृषि संकट आदि। इसका सीधा मतलब यह है कि वे ऐसा चुनाव लडऩा चाहते हैं जिसमें उन्हें विपक्ष के आरोपों के जवाब न देने पड़ें। उलटे, वे विपक्ष पर हमले करते रहें। आतंकवाद और इसके साथ पाकिस्तान को जोड़ दें तब जो मुद्दा बनता है वह है मुसलमान। मोदी और शाह ने 2014 में मुसलमान को दरकिनारÓ करके चुनाव जीता था। उन्होंने सत्ता तंत्र, मंत्रिमंडल से लेकर शीर्ष संवैधानिक तथा प्रशासनिक पदों से मुसलमानों को इस कदर किनारे कर दिया कि वे निर्णय के अधिकार से वंचित-से हो गए। देश की आबादी में 14 फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले मुसलमानों में से महज सात को उन्होंने लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और बहुमत हासिल कर लिया। इसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जहां की आबादी में मुसलमानों का अनुपात 20 फीसदी है, उन्होंने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया और भारी बहुमत से सत्ता में आ गए। यह रणनीति इतनी कारगर रही कि अब कांग्रेस खुद पर मुस्लिम पार्टीÓ का ठप्पा लगने के डर से इस मामले में भाजपा को चुनौती देने से भी कतरा रही है। यहां एक वैचारिक खाई उभरती देखकर आश्चर्य नहीं कि मोदी इसे और चौड़ी करने की कोशिश करेंगे। इस नजरिए से उनका तर्क यह है कि पाकिस्तानी और आतंकवादी उन्हें पराजित देखना चाहते हैं और विपक्ष भी यही चाहता है और उसका सबसे मजबूत वोट बैंक मुसलमानों के सिवा क्या है? इसलिए, बार-बार यह दोहराना कि मैं न रहा तो फिर आतंकवादियों, पाकिस्तान और मुसलमानों का ही बोलबाला रहेगा और यह भी कि मुसलमान मुझे वोट नहीं देते तो भी उनका भला। हिन्दू उनके खिलाफ एकजुट हो जाएंगे। यह रणनीति तब कारगर नहीं होगी अगर मैं यह मुहिम सीधे भारतीय मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करूंगा। इसलिए खतरा बाहर के मुसलमान से बताना होगा— केंद्र तथा पश्चिम में पाकिस्तानियों से और पाकिस्तान समर्थक कश्मीरियों से, तो पूरब में बांग्लादेशियों से। इस तरह की रणनीति अपनाने वाले केवल मोदी ही नहीं हैं। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में आज डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर तमाम नेता केवल अपने समर्थकों से बात करना, बाकी लोगों को डराना और हाशिये पर डालना सीख रहे हैं। ट्रम्प से लेकर एर्डोगन, नेतान्याहू और मोदी तक, सारे नेता बहुसंख्यकों में दहशत पैदा करने के लिए एक ही तरह के कारणों के घालमेल का इस्तेमाल कर रहे हैं, मानो वे अपने देश में बहुसंख्यक नहीं अल्पसंख्यक हों। जरा ट्रम्प और मोदी पर गौर कीजिए उनके लिए एक दुश्मन है जो देश के बाहर है (ट्रम्प के लिए वह अवैध प्रवासियों के रूप में है); और देश के भीतर कहीं बड़ा दुश्मन है वामपंथी उदारवादियों, अल्पसंख्यकों, विपक्ष और स्वतंत्र मीडिया, हर बात का विरोध करने वालोंÓ के रूप में; और इन सुविधाभोगी, ताकतवर जमातों को चुनौती देने के लिए मैं नीचे से उभरकर आया। ट्रम्प के लिए जो वाशिंगटन बेल्टवे है, वही मोदी के लिए लुटिएन्स की दिल्ली है। आपने मुझे चुन कर पहली बार वाकई एक स्मार्ट फैसला किया, मुझसे पहले जो थे वे तो सारे के सारे मूर्ख ही थे। इतिहास तो मुझसे ही शुरू होता है। लेकिन अभी आपने देखा ही क्या है! मुझे बस एक और बार चुन कर तो भेजिए! आप इस सब पर बेशक हंस लीजिए, मगर इससे मोदी को आप हरा नहीं सकते, उनका जो जनाधार है वह इन सबको पसंद करता है। ऐसे में विपक्ष का क्या होगा? मोदी ने अगर अपना आधार एकजुट रखा और बाकी सब टुकड़ों में बंटते गए तो उनकी जीत तो आसान ही होगी। चुभ रहे सैकड़ों मुद्दे देश में सैकड़ों मुद्दे ऐसे हैं जो कांटे की तरह चुभ रहे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कामचोरी, राजनीति में वंशवाद, महंगी शिक्षा और चिकित्सा, खाली होते गांव, घटता भूजल, मुस्लिम आतंकवाद, माओवादी और नक्सली हिंसा, बंाग्लादेशियों की घुसपैठ, हाथ से निकलता कश्मीर, जनसंख्या के बदलते समीकरण, किसानों द्वारा आत्महत्या, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई आदि तो राष्ट्रीय मुद्दे हैं ही, इनसे कहीं अधिक स्थानीय मुद्दे होंगे, जिन्हें आंख और कान खुले रखने पर पहचान सकते हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियां इस ओर से ध्यान बंटाने की कोशिश में लगी रहती हैं। 2014 में भाजपा ने आस लगाई थी कि वह इन मुद्दों पर काम करेगी। लेकिन उसका पूरा समय वोट का गणित साधने में लगा रहा। अब 2019 के लोकसभा चुनाव में वह अपने पुराने वादों को दरकिनार कर देश को राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाने में लगी हुई है। अभी नहीं तो कभी नहीं इस बार की लड़ाई कई दलों के लिए आर-पार की है। अभी नहीं तो कभी नहीं। ये चुनाव दिल्ली के सिंहासन का भाग्य निश्चित करेंगे। इसी बात को लेकर सभी आर-पार की लड़ाई लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें केवल चुनाव की चिन्ता है, अगली पीढ़ी की नहीं। मतदाताओं के पवित्र मत को पाने के लिए पवित्र प्रयास की सीमा लांघ रहे हैं। यह त्रासदी बुरे लोगों की चीत्कार नहीं है, भले लोगों की चुप्पी है जिसका नतीजा राष्ट्र भुगत रहा है। कई विपक्षी दलों का ऐसा मानना है और भाजपा के भी कुछ नेताओं को भी इस बात की आशंका है कि 2019 के लोकसभा चुनावी नतीजे 2004 की तरह झटके वाले हो सकते हैं। 2004 के आम चुनाव के वक्त अटल बिहारी वाजपेय काफी लोकप्रिय थे, लेकिन परिणाम पक्ष में नहीं रहा। -ऋतेन्द्र माथुर
FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^