रिश्तों की अमरबेल
12-Feb-2019 09:16 AM 1234901
न खेलेंगे और न खेलने देंगे, सिर्फ खेल बिगाड़ेंगे का मुहावरा भारतीय राजनीति के लिए नया नहीं है। समय के साथ सियासी दल और नेता इसे निजी स्वार्थों के लिए आजमाते रहे हैं। प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के प्रमुख शिवपाल यादव भी इस ढर्रे पर बढ़ रहे हैं। शिवपाल सिंह यादव ने फिरोजाबाद लोकसभा सीट से चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है। गौरतलब है कि यहां से शिवपाल के चचेरे भाई और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव लोकसभा सदस्य हैं। वैसे तो शिवपाल यादव ने अपने फैसलों के पीछे जनभावना का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि फिरोजाबाद के लोग चाहते हैं कि मैं उनका प्रतिनिधित्व करूं, लेकिन राजनीति ककहरा की समझ रखने वाला कोई भी शख्स शिवपाल के इस पैतरे को सहज समझ सकता है। दसअसल शिवपाल अखिलेश से दो-दो हाथ करने में असफल होने के बाद उनकी शाख पर अमरबेल बन कर लिपटना चाहते हैं। सूत्र बताते हैं कि फिरोजाबाद से दावेदारी शिवपाल की चाल की झलक भर है। लोकसभा चुनाव के नजदीक आते-आते शिवपाल यादव कई और पत्ते चलेंगे। शिवपाल यादव के करीबियों की मानें तो यूपी की आधा दर्जन सीटों पर पारिवारिक सदस्यों और रिश्तेदारों को उम्मीदवार बनाने की तैयारी चल रही है। जिसमें मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव, शिवपाल की पत्नी सरला यादव और बेटे आदित्य अहम हो सकते हैं। इसके साथ ही कुछ समाजवादी पार्टी के पुराने दिग्गज भी हो सकते हैं जो खुद को पार्टी से अधिक मुलायम के लोग कहलाना पसंद करते हैं। अपर्णा यादव तो सार्वजनिक मंच पर भी शिवपाल यादव को अपना अगुवा बता चुकी हैं। वह इस बात को स्वीकार कर चुकी हैं कि लोकसभा चुनाव में शिवपाल यादव के अलग होने से पार्टी पर गंभीर असर पड़ेगा। अपर्णा के तेवर से यह बात खुद-बखुद साफ हो जाती है कि मुलायम परिवार की बहू ऐसा कुछ करने वाली हैं जो अखिलेश यादव को कहीं ना कहीं असमंजस में ला खड़ा करेगा। इटावा की इर्द-गिर्द की सीटों पर शिवपाल यादव के वर्चस्व से इनकार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक पंडित भी इस बात पर सहमत हैं कि समाजवादी पार्टी से शिवपाल यादव भले ही अलग हो गए हों। पर मौजूदा समाजवादी पार्टी की मशीनरी पर अब भी उनका गहरा प्रभाव है। बहुत ज्यादा न सही तो भी समाजवादी पार्टी में ऐसे बहुतेरे नेता हैं जिन पर शिवपाल यादव का पूरा प्रभाव और जुड़ाव अब भी बना हुआ है। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान खासकर टिकट बंटवारे के वक्त यह दिखा भी। शिवपाल यादव अलग-थलग पड़े और अपनी मौजूदा भूमिका से असंतुष्ट इन्हीं नेताओं पर नजर गड़ाए हुए हैं और समय के साथ बतौर मोहरा इन्हें अखिलेश पर आजमाएंगे भी। शिवपाल यादव की उन नेताओं पर भी नजर है जो फिलहाल तो अखिलेश के साथ हैं, लेकिन गठबंधन की वजह से उनकी सीट बीएसपी के पाले में चली गई है। पिछले दिनों पूर्वांचल के एसपी नेताओं का प्रतिनिधिमंडल अखिलेश से मिला भी था। जो अपनी लोकसभा सीट के बीएसपी के कोटे में जाने पर नाराजगी भी जताई थी। एक बड़ा तबका उन नेताओं का भी है जिनका अखिलेश ने पिछले विधानसभा चुनाव में टिकट काट दिया था। इसमें शादाब फातिमा, नारद राय, अरिदमन, संदीप शुक्ला समेत दर्जनों नेता हैं। अखिलेश के करीबी भी यह बात मानते हैं कि समाजवादी पार्टी में शिवपाल जैसी हैसियत वाला कोई दूसरा नेता नहीं था। जिसकी पार्टी संगठन पर मजबूत पकड़ हो। तकनीकी तौर पर संगठन की जिम्मेदारी भले ही नरेश उत्तम के हाथों में है, लेकिन भावनात्मक रूप से कार्यकर्ताओं का झुकाव शिवपाल के प्रति कमोबेश अब भी बना हुआ है। बाकी जगहों को छोड़ भी दें तो इटावा के आस-पास के इलाकों और पूर्वांचल में शिवपाल का कोई सानी नहीं है। गाहे-बगाहे मुलायम परिवार के छोटे-बड़े सभी राजनीतिक व्यक्ति घर का भेदी लंका ढाए वाली लोकोक्ति को दोहराते रहे हैं। रामगोपाल यादव का प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को बीजेपी की बी-टीम करार देना भी संभावित नुकसान को रोकने की दिशा में एक कदम ही है। फिलहाल शिवपाल की कोशिश है कि घरवालों और रिश्तेदारों को मैदान में उतारकर अखिलेश को चुनावी समर में किंकर्तव्यविमूढ़ की दशा में लाया जाए। -मधु आलोक निगम
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