12-Feb-2019 08:59 AM
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गठबंधन की राजनीति के खिलाफ रहीं मायावती हर तरह के प्रयोग कर चुकी हैं। अब वो जड़ों की तरफ लौट रही हैं। मायावती जानती हैं कि जनाधार ही नेता को बड़ा बनाता है - और प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार ओडिशा का दौरा कर चुके हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की नजर ओडिशा पर तो है ही, मोदी की यात्रा को भगवान जगन्नाथ के दरबार में गंगा जैसी कृपा के रूप में देखा जाने लगा है - जिसकी परिणीति संसदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी तक भी हो सकती है। लगता है मोदी के हिंदी पट्टी से ज्यादा ध्यान दक्षिण की ओर देने को मायावती अपने लिए खुले मैदान के तौर पर लेने लगी है - और यही वजह है कि यूपी से ही पीएम वाले खांचे में मजबूती से फिट होने की कोशिश कर रही हैं।
कर्नाटक के बाद हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और यूपी के साथ-साथ मायावती का दायरा बिहार तक फैलता नजर आ रहा है। पटना से लखनऊ पहुंच कर तेजस्वी यादव का पैर छूना बड़े राजनीतिक संकेत दे रहा है। 2014 लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीत पाने वाली बसपा अचानक से उत्तर प्रदेश में मोदी-विरोधी राजनीति की धुरी बन गई है। यूपी विधानसभा के 2007 चुनाव में 206 सीट, 2012 में 80 सीट और 2017 में सिर्फ 19 सीट जीतने वाली मायावती के पास ऐसा क्या है, जिसके कारण वे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रही हैं?
महागठबंधन के अच्छे दिनों में नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को लेकर लालू प्रसाद से सवाल हुआ तो त्वरित टिप्पणी रही - कोई शक है का शब्द स्पष्ट थे, लेकिन सबको पता था लालू प्रसाद के मन की बात क्या है। ऐसा ही सवाल जब अखिलेश यादव से पूछा गया तो उनका जवाब लालू प्रसाद यादव जैसा स्पष्ट नहीं था, लेकिन मायावती भी शब्दों से ज्यादा शायद भावनाओं को समझ रही थीं।
पीएम तो यूपी से ही होगा... अखिलेश यादव की इस बात को मायावती ने गंभीरता से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। तेजस्वी यादव ने लखनऊ पहुंच कर मायावती को जो सपोर्ट किया है वो है तो एक्सचेंज ऑफर, लेकिन मायावती को तो यही चाहिये थे। जिस तरीके से वोट बैंक को साधने के लिए मायावती और अखिलेश यादव ने गठबंधन किया है, तेजस्वी यादव बिहार में उसी का एक्सटेंशन चाह रहे हैं। दरअसल, तेजस्वी यादव मायावती को साथ खड़ा कर बिहार के पांच फीसदी के करीब जाटव वोटों को साधना चाहते हैं। मायावती को भी गठबंधन में एक-दो सीट देकर तेजस्वी यादव एहसान का बदला लौटा सकते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में मायावती का सपोर्ट तो बोनस ही होगा। अगर ऐसा हुआ तो राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी की बातें खत्म समझ लेनी चाहिये। ऐसा होने के पीछे भी कांग्रेस के साथ गठबंधन की सीटों को लेकर तनातनी ही मानी जा रही है।
चर्चा है कि जेडीयू और बीजेपी के बीच बराबर सीटों पर समझौता होने के बाद कांग्रेस की ओर से भी डिमांड बढ़ा दी गयी है। कांग्रेस भी महागठबंधन में आरजेडी के बराबर सीटें चाहती है। आरजेडी ने कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा 10 सीटें ऑफर की है। कांग्रेस की ओर से कम से कम 15 सीटों की मांग रखी गयी है जो तेजस्वी यादव को कतई मंजूर नहीं है। वैसे भी महागठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, शरद यादव, अरुण कुमार और मुकेश साहनी की पार्टियों के साथ-साथ सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई-एमएल जैसे तमाम दावेदार दल भी हैं। अगर सबकी डिमांड पूरी होने लगी तो सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी को ही सीटों के लाले पड़ जाएंगे।
2019 के चुनावी मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पछाडऩे की जैसी कोशिश एनडीए ज्वाइन करने से पहले नीतीश कुमार और उनके बाद ममता बनर्जी, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू और कुछ दिनों से के चंद्रशेखर राव करते रहे हैं - मायावती भी इन दिनों उसी राह पर चल रही हैं। बाकियों में और मायावती के प्रयासों में बुनियादी फर्क है। विपक्षी खेमे के दूसरे नेता इस आधार पर आम राय बनाने की कोशिश करते हैं कि मोदी को सत्ता में दोबारा आने से रोकने के लिए आपसी मतभेद भुलाकर लगना होगा। मायावती बिलकुल उल्टा और राजनीतिक जमीन पर काम कर रही है।
ममता बनर्जी तो एक वक्त गठबंधन का नेता बन कर राहुल गांधी को ही साथ आने की सलाह देने लगी थीं - बहरहाल कांग्रेस नेताओं ने सीधे-सीधे खारिज कर दिया। तब राहुल गांधी का सपोर्ट करने वालों में तेजस्वी यादव भी हुआ करते थे - लेकिन बाद में उनका मन बदलने लगा। अब तो वो मायावती से आशीर्वाद भी ले चुके हैं। केसीआर के बेटे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जगनमोहन रेड्डी के साथ मिलकर लड़ाई आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इस गुट में मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी की भी दिलचस्पी देखी गयी है। वैसे भी तेलंगाना की सत्ता में जबरदस्त वापसी करके केसीआर ने टीआरएस की मजबूती तो साबित कर ही दी है।
2018 के आखिरी विधानसभा चुनावों से पहले तो एक बार राहुल गांधी का वो बयान भी सुर्खियों में रहा जिसमें वो मायावती और ममता बनर्जी के प्रधानमंत्री बनने को लेकर हरी झंडी दिखा रहे थे। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद राहुल गांधी को अब इस तरह के सवालों से नहीं जूझना पड़ रहा है। जिस अंदाज में मायावती कदम बढ़ा रही हैं, विपक्षी खेमे के कई नेताओं की मुश्किल बढऩे वाली है। अगर ऐसा होता है तो मान कर चलना चाहिये कि राहुल गांधी भी उससे अछूते नहीं रहने वाले हैं। जिस तरह कभी ममता बनर्जी विपक्ष में अरविंद केजरीवाल को शामिल करने की पैरवी करती रहीं, एनसीपी नेता शरद पवार भी अब मायावती को उसी मजबूती के साथ समर्थन में खड़े देखे जा रहे हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद ही लालू प्रसाद ने 2019 में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मात देने का फॉर्मूला सुझाया था। लालू प्रसाद की दलील वोट शेयर को लेकर रही। असल में 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 39.7 फीसदी वोट मिले थे जबकि बीएसपी को 22.2 फीसदी और समाजवादी पार्टी को 22.0 फीसदी। दोनों को मिलाकर ये वोट 44.2 फीसदी होता है जो बीजेपी से कहीं ज्यादा है। 2014 के आम चुनाव में भी बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरे स्थान पर बीएसपी ही रही। तब बीजेपी को 31.3 फीसदी, कांग्रेस को 19.5 फीसदी और बीएसपी को 4.2 फीसदी वोट मिले थे लेकिन उसे एक भी सीट नहीं मिली। वैसे सीटों का वोट शेयर से सीधा संबंध भी नहीं है। ऐसा होता तो बीएसपी से कम 3.9 फीसदी वोट पाकर टीएमसी 34 सीटें और 3.3 फीसदी वोट लेकर एआईएडीएमके को 37 सीटें नहीं मिलतीं। यहां तक कि 2.1 फीसदी वोट पाकर आप ने भी चार सीटें बटोर ली थीं।
देश में एससी-एसटी आबादी 28.2 फीसदी है जिसमें राजनीति की सबसे बड़ी दावेदार फिलहाल मायावती ही हैं। ये सही है कि फिलहाल लोक सभा में मायावती की जीरो सीटें हैं, लेकिन सात राज्यों की विधानसभाओं में बीएसपी के विधायक हैं। यूपी में 19, राजस्थान में 6, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 2-2 और कर्नाटक, झारखंड और हरियाणा में बीएसपी के 1-1 विधायक ही सही मायावती को मजबूत तो बनाते ही हैं।
- दिल्ली से रेणु आगाल