12-Feb-2019 07:52 AM
1234821
भूरा बाल साफ करो... 1990 के दशक में बिहार के कोने-कोने में फैला यही वो नारा था जो राष्ट्रीय जनता दल की ताकत बनी और वह लगातार बिहार की सत्ता पर 15 वर्षों तक काबिज रही थी। भूरा बाल- यानि भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ), यानि सवर्णों के विरुद्ध यादवों, मुस्लिमों, पिछड़ों और दलितों को गोलबंद कर समाज में नफरत की आग लगाकर सत्ता का सुख भोगने का सबसे मारक समीकरण। हालांकि दौर बदला, परिस्थितियां बदलीं और राजनीतिक परिदृश्य भी बदल गए। इसी भूरा बाल के साथ नीतीश कुमार ने लव-कुश (कुर्मी और कोयरी जाति), दलितों और पसमांदा मुसलमानों का समीकरण बनाया और लालू और उनके कुनबे को सत्ता से उखाड़ फेंका।
बीतते वक्त के साथ ऐसा लगा कि लालू और उनके कुनबे ने भी बदली राजनीति को स्वीकार कर लिया और वह सर्वसमाज में अपना विश्वास हासिल करने की कोशिश कर रही है। लेकिन सवर्ण आरक्षण पर संसद में लाए गए बिल का जिस अंदाज में आरजेडी ने विरोध किया वह काबिले गौर है। जाहिर है इससे सवाल उठता है कि क्या फिर से आरजेडी सवर्ण विरोध की बुनियाद पर ही अपनी राजनीति आगे बढ़ाना चाह रही है।
दरअसल आरजेडी को लग रहा है कि वह सवर्णों का विरोध कर फिर से वही दौर वापस लाएगी जब मंडल कमीशन लागू होने के बाद जातीय गोलबंदी का फायदा उठाकर लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे पिछड़े समुदाय से आने वाले नेताओं ने अपनी राजनीतिक जमीन काफी मजबूत कर ली, जिसकी फसल आज तक काट रहे हैं। दूसरा यह कि अगर आरजेडी ने 2015 में जिस तरह आरक्षण पर मोहन भागवत के बयान को मुद्दा बनाया, और उसे भुनाकर दोबारा सत्ता पर काबिज हो गई, शायद वह यह सोच रही है कि वैसा ही फिर दोहरा सकती है। लेकिन आरजेडी को समझना होगा कि उस समय उसके साथ नीतीश कुमार जैसा विश्वसनीय चेहरा था और लालू यादव भी राजनीति में सक्रिय थे।
अब नये दौर में आरजेडी की कमान संभाल रहे तेजस्वी को इस बात को समझना होगा कि आरजेडी में जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, अखिलेश प्रसाद सिंह और राजन तिवारी जैसे नेताओं का काफी महत्व था और उनका अपनी-अपनी जातियों में जनाधार भी है। नए दौर में आरजेडी ने कई सवर्णों को अपने साथ लिया है और मनोज झा जैसे नेता को राज्यसभा में भेजकर यह संदेश दिया कि वह सर्वसमाज की पार्टी बनना चाह रही है।
शायद यही कारण रहा कि बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू की अहम सहयोगी थी। कांग्रेस के जो 27 विधायक चुनाव जीते थे उनमें 12 सवर्ण जातियों से थे। इतना ही नहीं कांग्रेस ने सवर्ण आरक्षण का समर्थन कर अपना स्टैंड भी क्लीयर कर दिया है। ऐसे में आरजेडी के सामने आने वाले समय में कांग्रेस से सामंजस्य बनाए रखाना और सवर्णों को विश्वास दिला पाना टेढ़ी खीर साबित होने वाली है।
सवर्ण आरक्षण में जिस तरह से गैर आरक्षित जातियों में मुस्लिमों के सवर्णों यानि-शेख, सैयद और पठानों को इसके दायरे में लाया गया है, इससे अगर आरजेडी विरोध करती है सवर्ण वोटरों के साथ आरक्षण के दायरे में आने वाले मुस्लिम समुदाय के वोटर भी खफा हो सकते हैं। क्योंकि माना जाता है कि मुसलमानों में शेख, सैयद और पठान लगभग 11 से 13 प्रतिशत के बीच हैं। तथ्य ये है कि कांग्रेस के साथ के कारण और लालू यादव के चेहरे की वजह से ये अब तक आरजेडी के साथ माने जाते रहे हैं। इसके साथ यह भी जाहिर है कि पसमांदा मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अब भी लालू यादव पर नहीं, नीतीश कुमार पर यकीन करते हैं। ऐसे में आरजेडी के लिए सवर्ण मुस्लिमों के जनाधार को संभालना भी एक बड़ा टास्क होगा।
- विनोद बक्सरी