राहुल-काल
18-Jan-2019 06:54 AM 1234863
कथित तौर पर मंदिर मठ की राजनीति करने वाली भाजपा को राहुल गांधी ने उन्हीं के अस्त्र से चुनौती दी है। लखनऊ की एक रैली में योगी आदित्यनाथ को यह तक कहना पड़ा कि एक बात समझ लीजिए जब भी बनें मंदिर हम (भाजपा) ही बनवाएंगे। धर्म की सियासत का ठप्पा लगी पार्टी के कद्दावर नेताओं को लगने लगा है कि राहुल उनसे उनके इस तुरुप के इक्के को छीन सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय राजनीति के लिए राहु काल से कम नहीं होगा। नरेंद्र मोदी से भिड़ते-भिड़ते राहुल गांधी कब परिपक्व हो गए यह किसी को पता ही नहीं चला। पर लगता है अब राहुल गांधी का राहु काल खत्म हुआ। यह भी कहा जा सकता है कि उनका 14 सालों का वनवास भी खत्म हुआ। दरअसल राहुल गांधी पहली बार 2004 में सांसद बने। यूपीए वन और यूपीए टू में दस साल तक कांग्रेस की सरकार ही केंद्र में रही। नेहरू-गांधी परिवार के वारिस को चौदह साल लगे राजनीतिक दक्षता लाने में। 2018 में उनके सियासी सफर के करीब-करीब 14 साल पूरे हो गए और इसी के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आए नतीजों का श्रेय भी निसंदेह उन्हीं को मिला और मिलना भी चाहिए। 2017 में पहली बार राहुल गांधी को लोगों ने नोटिस किया। गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने जिस तरह भाषण दिए और पीएम नरेंद्र मोदी को चुनौती देते नजर आए वह काबिल-ए तारीफ है। चुनाव प्रचार के दौरान उनकी मंदिर दौड़ चर्चा का केंद्र बनी। दूसरी बार राहुल गांधी ने अपनी सुपर सियासी समझ का परिचय दिया कर्नाटक चुनाव में। अंतरकलह से जूझ रही कांग्रेस के आपसी मतभेद को मिटाकर एकजुट करने का श्रेय भी राहुल को ही जाता है। डी शिवकुमार और सिद्दारमैया के बीच समझौता करवाया। फिर चुनाव नतीजे आने के बाद बेहद सधे हुए ढंग से जनता दल (एस) को वे अपने पाले में ले आए। बड़ी बात यह थी कि भाजपा चुनाव में बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, पर बहुमत नहीं था। भाजपा की तरफ से जनता दल (एस) के मुखिया कुमारस्वामी को उपमुख्यमंत्री बनने का न्यौता दिया गया। लेकिन बिना देरी किए राहुल गांधी ने नहले पर दहला चल दिया और कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनने का न्यौता भेज दिया। भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। फिर आई बारी पांच राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम के विधानसभा चुनाव की। 2018 के नवंबर से सात दिसंबर तक चुनाव हुए और 11 दिसंबर को नतीजे निकले। नतीजों ने एक बार फिर कांग्रेस को खुश होने का मौका दिया। खासतौर पर उत्तर के तीनों राज्यों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की। यहां भी राहुल गांधी सियासी हीरो बनकर उभरे। हालांकि राहुल गांधी का भरी संसद में आंख मारना और फिर पनामा पेपर लीक मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के बेटे की जगह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के बेटे का नाम लेने पर उनके राजनीतिक विरोधियों को चटकारे लेने का मौका मिला। पर राहुल गांधी की इन गल्तियों पर जीएसटी को गब्बर टैक्स कहना, चौकीदार चोर है जैसे वाक्य भारी पड़े। इस तरह के वाक्य हैशटैग के साथ सोशल मीडिया में वायरल हुए। राहुल गांधी ने जनऊ से लेकर गोत्र तक की राजनीति करने से परहेज नहीं किया। राहुल के परिपक्व होने पर जहां एक ओर भारत की जनता के भीतर उम्मीद जागी तो दूसरी ओर कहीं न कहीं एक डर भी गहराया है। लोकतंत्र तभी सफल होता है जब जनता के सामने चुनने के लिए एक से ज्यादा विकल्प हों। पीएम मोदी की सुनामी को चुनौती मिलनी बेहद जरूरी थी। सो वंशवाद की राजनीति के इतर अगर देखें तो देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के वारिस का मजबूत होना शुभ संकेत है। लेकिन डर इस बात का है कि धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा को चुनौती देते-देते कहीं राहुल खुद भी तो धर्म की राजनीति नहीं करने लगे हैं? कई बार प्रतिद्वंदी को हराने के चक्कर में हम उसको उसी की चालों से परास्त करते हैं। परास्त करने तक तो ठीक है लेकिन अगर राहुल गांधी को धर्म की राजनीति की लत लग गई तो जनता के लिए सत्ता नहीं बल्कि केवल चेहरा बदलेगा क्योंकि विचार सत्ता पर जस का तस काबिज रहेगा। राहुल ने इस बीच भाजपा को कई बार उनके अचूक अस्त्र धर्म से ही परास्त किया। मठ-मंदिर, गोत्र, जनेऊ सबकुछ का इस्तेमाल किया। राहुल गांधी को बुल्ले शाह की ये लाइनें जरूर पढऩी चाहिए और सावधानी पूर्वक विचार भी करना चाहिए। रांझा-रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई। रांझा मैं विच्च मैं रांझे विच्च, होर ख्याल ना कोई। यानी रांझा-रांझा करते-करते हीर खुद रांझा हो गई। हीर और रांझे में कोई अंतर नहीं रहा। सकारात्मक विचारों का एक-दूसरे में घुल जाना ठीक है। लेकिन भाजपा-भाजपा करते हुए खुद राहुल का भाजपा हो जाना देश की सेहत के लिए खतरनाक है। साल 2019 का लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के लिए हर तरीके से बेहद खास है। अगर पीएम मोदी का मैजिक बरकरार रहता है और बीजेपी दूसरी बार केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब होती है तो पीएम मोदी ऐसा करने वाले बीजेपी के पहले पीएम होंगे। ये जीत पार्टी की अंतर्राष्ट्रीय छवि के लिहाज से भी बहुत मायने रखेगी। यही वजह है कि इस बार भी पीएम मोदी पर उम्मीदों का भार बहुत ज्यादा है। लेकिन इस बार पीएम मोदी के सामने चुनौतियां भी कम और आसान नहीं है। साल 2014 में जब वो पीएम पद के उम्मीदवार बने थे तब उनके सामने दस साल से सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की यूपीए सरकार थी। यूपीए सरकार के कई मंत्रियों पर घोटालों के आरोप थे। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मामले में यूपीए सरकार कटघरे में थी। उस वक्त देशभर में सत्ता विरोधी लहर थी और पीएम मोदी में जनता ने महानायक देखा। पीएम मोदी अब पांच साल के कामकाज के साथ जनता के बीच जाएंगे और उनकी सरकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक बड़ी बात ये है कि भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा। सबका साथ-सबका विकास अब बीजेपी के घोषणा-पत्र की टैग लाइन नहीं बल्कि मोदी सरकार का सक्सेस फॉर्मूला बन चुका है जिसमें सेकुलरिज्म भी है तो विकास भी। जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बीजेपी के कांग्रेस-मुक्त अभियान को तीन राज्यों की सत्ता में वापसी कर तगड़ा झटका दे चुके हैं। राहुल ये जानते हैं कि जिस ईमानदारी की वजह से पीएम मोदी छप्पन इंच के सीने की बात करते हैं तो उस सीने पर चोट करने के लिए भ्रष्टाचार के आरोपों के तीरों का सहारा लेना पड़ेगा। तभी राहुल अपने आरोपों से जनता के बीच मोदी सरकार के खिलाफ एक धारणा बनाने में जुटे हुए हैं लेकिन उन्हें इसे मुद्दा बनाकर बड़ी कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है। राहुल ये भूल रहे हैं कि बोफोर्स कांड और राफेल डील में बहुत फर्क है। लेकिन अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील के मामले में बिचौलिए क्रिश्चियन मिशेल की गिरफ्तारी से कांग्रेस के पास आक्रामक रहने के अलावा दूसरा विकल्प भी नहीं है। महागठबंधन पर अभी भी संशय के बादल देश की सियासत में तीसरा मोर्चा भी खुद को विकल्प के रूप में देखता है। तीसरे मोर्चे की कवायद में कभी तेलंगाना के सीएम केसीआर एक्टिव-मोडÓ में दिखाई देते हैं तो कभी महागठबंधन की परिकल्पना को साकार करने में जुटे आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडु दिखाई देते हैं। सबके अपने-अपने हित और अपने-अपने लक्ष्य हैं। साल 2019 का लोकसभा चुनाव इनके राजनीतिक भविष्य का भी आकलन करेगा। इसी महागठबंधन को लेकर बहुजन समाज पार्टी बेहद साइलेंट-मोड में दिखाई दे रही है। खास बात ये है कि बीएसपी के पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं है। इसके बावजूद मायावती में पीएम मैटेरियल देखा जा रहा है। तभी कांग्रेस के साथ महागठबंधन पर संशय के बादल घुमड़ रहे हैं क्योंकि बड़ा सवाल ये है कि ममता बनर्जी और मायावती जैसे नेता क्या राहुल के नेतृत्व में गठबंधन का हिस्सा बनेंगे? मिर्जा गालिब का शेर था कि, इक बरहमन (ब्राह्मण) ने कहा है कि ये साल अच्छा है। देखना होगा कि ये साल किसके लिए अच्छा होगा तो किसके लिए अच्छे दिन लाएगा? - इन्द्र कुमार
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