03-Jan-2019 08:20 AM
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आगामी लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा और एनडीए गठबंधन के सामने चौतरफा चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। तीन राज्यों में सत्ता जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की साख कमजोर हुई है। माना जा रहा है कि देश में अब मोदी लहर कमजोर पडऩे लगी है। हालांकि भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि विपक्ष अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है कि वह 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कर सके।
मोदी लहर और मोदी-शाह द्वय की चुनावी मशीन पर पहले भी सवाल उठे हैं। बल्कि दिल्ली और बिहार चुनावों में हार के बाद तो मार्गदर्शक मंडल भी नेतृत्व को आंखें दिखाने लगा था। अभी तो भाजपा में आत्ममंथन और कांग्रेस में जश्न का माहौल बना हुआ है। भाजपा का आत्ममंथन उसके अपने कोर एजेंडे को लेकर है जो कर्नाटक से कैराना होते हुए एक बार फिर फेल हो गया है। न तो किसानों की जिन्ना बनाम गन्ने की लड़ाई में कोई दिलचस्पी है, न बाकियों को अली और बजरंगबली या फिर उनके एससी या एसटी कैटेगरी को लेकर। चुनावी हार का असर भाजपा के भीतर के मुकाबले बाहर ज्यादा लग रहा है - एनडीए में। विपक्ष की एकता मजबूत होती नजर आ रही है - और उसी वक्त एनडीए टूटने लगा है। उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए छोडऩे की घोषणा चुनाव नतीजे आने से एक दिन पहले ही कर दी थी।
2019 को देखते हुए भाजपा की चुनौतियां जरूर बढ़ रही हैं, लेकिन कई बातें पूरी तरह उसके पक्ष में भी हैं। तीनों राज्यों की चुनावी परिस्थितियां अलग रहीं। जरूरी नहीं कि 2019 तक माहौल ऐसा ही बना रहे। तब तक अगर कांग्रेस शासन खुद को स्थापित नहीं कर पाया तो भाजपा को पूरा फायदा मिल सकता है - लेकिन अगर उल्टा हो गया तो कहना मुश्किल है।
वैसे भी छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाये तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा ने सत्ता गंवाई जरूर है, लेकिन संघर्ष में कोई कमी नहीं मानी जा सकती है। मध्य प्रदेश में अगर आधा दर्जन वो सीटें हाथ से नहीं फिसली होतीं, जहां हार का अंतर मामूली रहा - तो तस्वीर कुछ और हो सकती थी। फिर तो मायावती के खातें में कुछ सीटें जाने से भाजपा को कोई फर्क भी नहीं पड़ता। निर्दलीय तो साथ आ ही जाते। वैसे मध्य प्रदेश में माना गया कि शिवराज सिंह चौहान को मोदी सरकार की सत्ता विरोधी लहर ले डूबी।
मोदी सरकार के सत्ता विरोधी फैक्टर की पहली कैजुअल्टी है मध्य प्रदेश की सत्ता का हाथ से निकल जाना। 2019 में तो पूरा देश ही सामने होगा। ऐसा हर इलाके में हो सकता है। नॉर्थ ईस्ट से भाजपा को चाहे जितनी भी उम्मीद हो, हिंदी पट्टी में तो ऐसा मिला-जुला असर तय माना जा रहा है - ज्यादातर निगेटिव भी है आगे और भी होगा, ऐसी ही संभावना लगती है।
मोदी ने यूपी में भाजपा की सरकार बनवा डाली, लेकिन योगी को सत्ता सौंपे जाने के बाद भाजपा को लोकसभा की तीन तीन सीटें गंवानी पड़ी - जिनमें खुद योगी और यूपी के डिप्टी सीएम केशव मौर्या की भी सीट शामिल है। कैराना तो विपक्ष का रोल मॉडल हो सकता है। सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आम चुनाव के दौरान क्या सीन होगा अभी से कयास लगाना ठीक नहीं होगा। बिहार में भाजपा को अब बात-बात पर नीतीश कुमार का मुंह देखना पड़ेगा। ये ठीक है कि सीटों पर 50-50 समझौता हो चुका है - लेकिन कौन-कौन और कहां-कहां, ये तो फैसला होना तो बाकी ही है।
राफेल अभी शांत नहीं होने वाला। किसान कर्जमाफी के पैमाने पर पार्टियों को तौलने लगे हैं, दूसरी सुविधाएं उन्हें शायद बेदम नजर आती हैं। नौजवान रोजगार के लिए आस लगाये हुए हैं - कारोबारी और मध्य वर्ग की अपनी ख्वाहिशें और मुश्किलें हैं।
बाद में जो भी हो - अभी तो ऐसा लग रहा है कि मंदिर मुद्दा और योगी आदित्यनाथ की धार धीमी पडऩे लगी है। अगर राष्ट्रवाद का एजेंडा आगे बढ़ाने और राफेल पर सुप्रीम कोर्ट और मिशेल के बावजूद विपक्ष की बोलती बंद करने में भाजपा नाकाम रही तो क्या करेगी? मोदी के जादू की ताकत इन्हीं सबसे बढ़ती और घटती है।
2019 का एनडीए कैसा होगा यह भी चिंता का विषय है। चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी के बाद एनडीए छोडऩे वाले दूसरे नेता हैं - उपेंद्र कुशवाहा। चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा न मिलने के विरोध में एनडीए छोड़ा तो, उपेंद्र कुशवाहा ने 2019 के लिए सम्मानजनक सीटें न मिलने का बहाना बनाया। वैसे उपेंद्र कुशवाहा तो निकलने की तैयारी तभी से करने लगे थे जब से नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़ कर घर वापसी कर लिये थे।
उपेंद्र कुशवाहा तो चले गये, अब रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी अंगड़ाई लेने लगी है। सीटों को लेकर चिराग पासवान बागी तेवर दिखाने लगे हैं। हालांकि फिलहाल बात बन गई है। शिवसेना ने तो अयोध्या कांड पर पहले से नई इबारत लिखनी शुरू कर दी है। वैसे 2019 में अकेले चुनाव लडऩे की बात तो शिवसेना पहले से ही कर रही है। शिवसेना की एनडीए छोडऩे की धमकी भी उतनी ही जोरदार लगती है जितनी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर केंद्र की मोदी सरकार को चेतावनी।
जेडीयू खेमे से भी अलख निरंजन उद्घोष सुने जा सकते हैं। राम मंदिर पर कानून जैसी कवायद नहीं चलेगी - जेडीयू नेता भाजपा को आगाह करने लगे हैं। तीन राज्यों में सत्ता गंवाने और दो में सियासी घुसपैठ में नाकाम भाजपा की निर्भरता नीतीश कुमार पर ज्यादा लगने लगी है। प्रशांत किशोर तो नये पेंच फंसाने की तैयारी में लगे ही हैं। खुद को साबित करने के लिए ही सही, पटना यूनिवर्सिटी का चुनाव जेडीयू को जिता कर संकेत भी दे दिया है। एबीवीपी के नेता को युवा जेडीयू में लाकर प्रशांत किशोर ये भी बता चुके हैं कि वो किस हद तक जा सकते हैं - और जेडीयू की जीत के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। भाजपा भले छात्र संघ चुनाव के पहले यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से मुलाकात और मुलाकात में चुनाव अधिकारी की मौजूदगी पर शोर मचाती रहे। पीके को ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता।
मौजूदा सहयोगियों की अहमियत बढऩे के साथ ही एनडीए को कुछ नये साथियों की भी तलाश होगी। हालांकि, भाजपा के हाथ वे ही लग पाएंगे जो पूरी तरह गैर-भाजपा मूड बना चुके हों। नवीन पटनायक जैसे नेता भी हैं जिन्हें दोनों खेमों से परहेज है।
-ऋतेन्द्र माथुर