घाटे में क्यों है किसान?
22-Dec-2018 07:15 AM 1234777
केंद्र सरकार द्वारा गठित 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की रणनीति संबंधी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, किसानों को लाभ होने की तो छोड़ो, लंबे समय तक तो वह अपने निवेश की वसूली भी नहीं कर पा रहे थे। वर्ष 1981-82 के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश वर्ष खाद्य पदार्थों का डब्ल्यूपीआई (थोक मूल्य सूचकांक) कृषि सामग्री से कम था जो यह दर्शाता है कि किसानों को उस कीमत से भी कम मूल्य मिल रहा था जो उन्होंने खेती के लिए सामान खरीदने के लिए खर्च की थी। यह मुख्य रूप से सिंचाई, बिजली और कीटनाशक तथा उर्वरकों जैसे सामान की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण हुई है। इसी दौरान 2008-09 से खाद्य पदार्थों की कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि उपभोक्ता के तौर पर हम ज्यादा भुगतान कर रहे हैं लेकिन संभवत: इसका लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है। समिति की रिपोर्ट के अनुसार, इससे पता चलता है कि वर्तमान मूल्य पर किसान परिवार की अखिल भारतीय आय 2002-03 में 25,622 रुपए से बढ़कर 2012-13 में 77,977 रुपए हो गई जिसमें वर्तमान मूल्य पर वार्षिक वृद्धि दर 11.8 प्रतिशत और स्थिर मूल्य पर केवल 3.6 प्रतिशत है। ध्यान देने वाली बात है कि यह वास्तविक कृषि जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से काफी कम है। यह भारत में किसानों की कम आय को दर्शाता है। सरकारी अनुमानों के अनुसार, 2015-16 में एक किसान परिवार की वार्षिक आय 96,703 रुपए थी। एक परिवार में पांच लोग थे। लेकिन पांच सदस्यों वाले एक छोटे और सीमांत खेतीहर परिवार (2 हेक्टेयर या उससे कम भूमि पर खेती करने वाले) की एक वर्ष की आमदनी केवल 79,779 रुपए अथवा 221 रुपए प्रतिदिन थी। भारत की कुल खेती योग्य जमीन में से 82 हिस्सा ऐसे ही परिवारों का है। लेकिन इस कुल आमदनी में से खेती से होने वाली औसत आय केवल 41 प्रतिशत होगी। छोटे किसान परिवारों और बड़े किसान परिवारों (कम से कम 10 हेक्टेयर भूमि के मालिक) की आय में बहुत बड़ा अंतर है। सामान्यत: एक बड़ा किसान परिवार एक वर्ष में 6,05,393 रुपए कमाता है जो छोटे किसान परिवार की आय से आठ गुना ज्यादा है। अत: खेती से एक दिन में होने वाली आय लगभग 90 रुपए है। साफ तौर पर, किसानों को अपने उत्पाद से कोई लाभ नहीं मिल रहा है। वर्ष 2004-2014 के दौरान 23 फसलों के निवेश और आय के संबंध में किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि केवल कुछ फसलों को छोड़कर अन्य फसलों से किसानों को कोई आमदनी नहीं हो रही है। धान जैसी प्रमुख फसल की बात करें तो केवल सात राज्यों के किसानों की शुद्ध आय में बढ़ोतरी हुई है जबकि मप्र, बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे गरीब राज्यों सहित छ: राज्यों के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। इसी प्रकार देशभर में गेहूं की फसल से होने वाले लाभ में भी कमी आई है जिसमें झारंखड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में किसानों के घाटे में रहने की खबर है। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों में सरकार द्वारा निश्चित खरीद के कारण किसानों की लागत वसूल हो रही है। ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम की सदस्य राधिका मेनन का कहना है कि यहां आए देशभर के किसानों की मांग एक जैसी ही है। उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलने के कारण वे अपने परिवार का ठीक से भरण-पोषण नहीं कर पा रहे हैं। यह हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि देश को खिलाने वाले बस आंकड़ों के जाल में फंस गए हैं। जब सरकार यहां आए लोगों की बात नहीं सुन रही है तो इसका मतलब है कि सरकार को इनकी समस्या से कोई सरोकार नहीं है। देशभर में किसानों की समस्या एक जैसी किसानों की समस्या कन्याकुमारी से लेकर जम्मू तक एक ही तरह की है। किसान की कोई जाति नहीं होती है। वह अन्न पैदा करता है तो यह नहीं सोचता है कि उसका अनाज कौन खाएगा और कौन नहीं। इसी तरह से सरकार को भी सभी वर्गों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने सवाल उठाया कि देश के प्रधानमंत्री सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति बना कर अपनी पीठ ठोंकते नजर आते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि उस सरदार सरोवर बांध ने दस लाख लोगों को उनकी अपनी पीढिय़ों से चली आ रही जमीन से बेदखल कर दिया है। वे कहती हैं कि नर्मदा के किनारे बसे लाखों आदिवासियों की आजीविका इस बांध ने उजाड़ दी। जिसे वास्तव में पानी चाहिए था वे अब भी प्यासे हैं। क्योंकि पानी तो गुजरात के तमाम उद्योगपतियों के कारखानों में पहुंच रहा है। - ए. राजेन्द्र
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