दलबदलुओं का दंश
19-Jul-2018 09:54 AM 1234796
दलबदलुओं के दंश से भारतीय राजनीति त्रस्त है। भाजपा और मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहा विपक्ष चाहता है कि उनकी पार्टियों के नेता दलबदल न करें। इसके लिए उन्होंने एंटी पोचिंग एग्रीमेंट फार्मूला तैयार किया है। इसका एकमात्र उद्देश्य है भाजपा को 2019 में हर हाल में मात देना। तारीख तो पक्की नहीं है, मगर, कवायद में कोई कसर बाकी नहीं है। अमित शाह से लेकर राहुल गांधी तक 2019 में अपने-अपने अच्छे दिन लाने के लिए जीतोड़ मशक्कत कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर नीतीश कुमार और ममता बनर्जी तक लगातार दौरे पर नजर आ रहे हैं। मोदी को 2019 में घेरने की एक से बढ़कर एक तरकीबें खोजी जा रही हैं। अच्छा है, मालूम नहीं कौन काम आ जाये क्या पता। कभी तीसरा मोर्चा, तो कभी मोर्चे का डबल बैरल मॉडल - एक गैर-बीजेपी तो दूसरा गैर-कांग्रेसी मोर्चा। बातें घूम फिर कर यूपी पहुंच जाती हैं। हो भी क्यों ना। आखिर दिल्ली की कुर्सी का रास्ता तो यूपी होकर ही जाता है - और ताजातरीन कैराना का नमूना भी तो यूपी से ही आया है। मौजूदा राजनीति में कैराना मॉडल तो बेमिसाल हो गया है। कई बार तो लगता है कि सत्ता पक्ष या विपक्ष की कोई भी रणनीति कैराना चौराहे से गुजरे बगैर मंजिल की ओर बढ़ ही नहीं पाती। दोनों पक्ष एक दूसरे को काउंटर करने की अपनी-अपनी रणनीति पर चल रहे हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कार्यकर्ताओं को यूपी से 51 फीसदी वोट जुटाने का टारगेट दिया है। विपक्ष में प्रधानमंत्री पद का चेहरा कौन होगा इस पर तो कोई आम राय नहीं बन पायी है, लेकिन एक अघोषित सहमति अस्तित्व में जरूर आ चुकी है। विरोधी दलों के सीनियर और असंतुष्ट नेताओं को बीजेपी खुशी-खुशी गले लगाती है। खास तौर ऐसी गतिविधियां चुनावों से पहले बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं। दरअसल, बीजेपी नेतृत्व की रणनीति का एक अहम हिस्सा है। ये पुरानी बीजेपी में देखने को नहीं मिलता था, लेकिन मोदी-शाह की बीजेपी में ये बातें आम हो चली हैं। बीजेपी चाहे कांग्रेस मुक्त भारत अभियान चलाये या फिर उसकी विपक्ष मुक्त भारत की स्ट्रैटेजी हो - कई बार तो वो खुद भी आधी कांग्रेसी लगने लगती है। जरूरी नहीं कि बीजेपी सिर्फ दूसरे दलों के बड़े और जनाधार वाले नेताओं पर ही डोरे डालती है। आइडिया तो बस ये होता है कि विरोधी दल के किसी नेता को साथ लेकर सामने वाले को कितना नुकसान पहुंचाया जा सकता है। 2015 में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की भूमिका याद कीजिए। चुनावों में मांझी कमाल नहीं दिखा पाये। बीजेपी ने पहले ही मांझी का पूरा इस्तेमाल कर लिया था। पश्चिम बंगाल बीजेपी की सूची सबसे ऊपर है। ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी को चलाने वाले मुकुल रॉय को साथ लेने के पीछे बीजेपी की यही रणनीति रही। तमिलनाडु में जब-जब बवाल मचता है बीजेपी ओ. पनीरसेल्वम की पीठ थपथपा देती है। 2017 के यूपी चुनाव याद कीजिए - बीएसपी के स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक और कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी को बीजेपी ने न सिर्फ पार्टी में लिया, बल्कि टिकट भी दिया और मंत्री भी बनाया। ऐसा भी नहीं कि बीजेपी ये सब बहुत आसानी से कर लेती है। कार्यकर्ताओं का विरोध तेज होने पर नेतृत्व को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है। वैसे भी बीजेपी में बाहर से आये नेताओं के साथ तकरीबन वैसा ही ट्रीटमेंट होता है जैसे पाकिस्तान में मुहाजिरों के साथ। उसकी खास वजह है वो संघ की विचारधारा में बाकायदा प्रशिक्षित नहीं हुआ होता। असल में बंटवारे के वक्त भारतीय छोर से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को वहां के स्थानीय मुस्लिम ऐसे ही संबोधित करते हैं। ज्यादा जानकारी देने में गूगल काम न आये तो फिल्म सरफरोश में नसीरुद्दीन शाह का डायलॉग यूट्यूब पर सुन सकते हैं। हो सकता है विपक्षी दलों को लगता हो कि जो नेता पार्टी पर भार होंगे वे ही छोडऩे की सोचेंगे। बीजेपी भी उन्हीं नेताओं को लेगी जिनका अपना जनाधार हो या फिर कोई और पक्ष मजबूत हो जैसे मुकुल रॉय का जनाधार तो नहीं है, लेकिन संगठन के माहिर माने जाते हैं। वैसे अब मुकुल रॉय बीजेपी में अपना कोई कमाल तो दिखा नहीं पाये हैं। विपक्षी दलों को मालूम होना चाहिये कि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होने के दावे के बाद भी विस्तार में ही यकीन रखती है। अगर किसी दूसरी पार्टी से आये नेता से दिक्कत पैदा होती है तो वो केस टू केस डील करती है। किरण बेदी किसी पार्टी से तो नहीं आयी थीं, लेकिन कार्यकर्ता नाराज हुए थे। बाद में मोदी सरकार ने किरण बेदी को पुड्डुचेरी का उप राज्यपाल बना दिया है। मुमकिन है बाहरी नेता किसी दौर में बीजेपी को बोझ मालूम पडऩे लगें। अगर ऐसे नेताओं के लिए यूज एंड थ्रो नहीं संभव हुआ तो यूज एंड डंप तो कर ही सकती है। नुकसान तो विरोधी खेमे का ही होगा। वे अपने नेताओं को गंवा चुके होंगे। जब बीजेपी को पता चलेगा कि उनकी घरवापसी में नो एंट्री का बोर्ड लग चुका है तो वो पुराने नेताओं को डंप कर नये नेताओं की तलाश में जुटेगी - पुराने नेता मार्केट में बने रहने के लिए कुछ न कुछ कोशिश तो करेंगे ही - और ऐसी हर कोशिश पैतृक पार्टी को नुकसान पहुंचाने के अलावा हो भी क्या सकती हैं? क्यों फेल हो जाएगा ये फॉर्मूला विपक्षी दलों को ये फॉर्मूला ऐसा लगता है जैसे कोई दुश्मन को डैमेज करने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाये। दुश्मन की एक आंख फोडऩे के लिए अपनी दोनों ही आंखें दांव पर लगा दे। बातचीत में विपक्षी नेता ये तो मानते हैं कि बागी नेताओं के लिए शरणस्थली सिर्फ बीजेपी ही बचेगी। बाकी जगह चाह कर भी वो इधर-उधर नहीं हो सकेंगे। दलील ये है कि इससे बीजेपी में कलह बढ़ेगी। लंबे अरसे से काम कर रहे नेता नाराज होंगे। एक बार जो बाहर से बीजेपी में घुस गया उसकी वापसी का भी रास्ता बंद हो जाएगा। वो अपनी पुरानी पार्टी में वापसी नहीं कर पाएगा। साथ ही विपक्षी खेमे के किसी और दल में भी मौका नहीं मिल पाएगा। विपक्षी नेताओं की ये दलील बेदम नहीं है। यूपी के कुछ नेताओं की बयानबाजी और हरकतें इशारा जरूर करती हैं कि अंदर छटपटाहट शुरू हो चुकी है। स्वामी प्रसाद मौर्या इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। दूसरा वाकया दिल्ली से याद किया जा सकता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त बीजेपी ने किरण बेदी को पैराशूट एंट्री दी थी। कार्यकर्ताओं के खफा होने का खामियाजा क्या होता है चुनाव नतीजों ने हमेशा के लिए आंखें खोल दीं। -दिल्ली से रेणु आगाल
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