सेहरा बांध लिया विपक्ष ने
04-Jun-2018 07:22 AM 1234923
जरात विधानसभा चुनाव के समय से ही शायद आपने देखा होगा कि विपक्षी दलों को चुनावी फायदा मिला है। लेकिन जहां तक वोट शेयर का सवाल है तो राष्ट्रीय दलों की तुलना में क्षेत्रीय दलों के पास ज्यादा है। कर्नाटक में जेडीएस के कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में विपक्ष के सभी बड़े नेता एकजुट हुए। एक-दूसरे से गर्मजोशी से गले मिलते, चेहरे पर लंबी मुस्कुराहट लिए, कानों में फुसफुसाते हुए और पुराने समय को याद करते ये नेता अच्छे लग रहे थे। वास्तव में ये सिर्फ राज्य में सरकार के गठन की नहीं बल्कि उससे कहीं आगे की शुरुआत थी। कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण में विपक्ष ने अपनी एकता का पुरजोर प्रदर्शन किया। लेकिन उनके धर्मनिरपेक्ष होने के दावे और एक ही विरोधी, बीजेपी, के अलावा उनके बीच समानता के नाम पर बहुत कुछ नहीं है। सोनिया गांधी ने जिस तरीके से मायावती को गले लगाया और केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने पश्चिम बंगाल की अपनी समकक्ष ममता बनर्जी से बात नहीं की। ये घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि दूरियां दिखाने के लिए मिटी हैं जमीनी हकीकत शायद अलग नहीं है। कर्नाटक का फैसले लगभग साफ ही था। अगर आप यह निष्कर्ष निकालना चाहते हैं कि कर्नाटक की जनता ने भाजपा विरोधी फैसला दिया था तो ऐसा आप कह सकते हैं और अगर आप ये मानते हैं कि यह कांग्रेस-जेडी(एस) के समर्थन में फैसला था तो आप ऐसा मानने के लिए भी स्वतंत्र हैं। लेकिन अगर आप हाल के दिनों में आए चुनाव परिणामों को देखते हैं तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट है। गुजरात विधानसभा चुनाव के समय से ही शायद आपने देखा होगा कि विपक्षी दलों को चुनावी फायदा मिला है। विपक्षी दलों में तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, टीआरएस, टीडीपी, वाईएसआरसीपी, आम आदमी पार्टी और कुछ अन्य राष्ट्रीय दलों सहित वामपंथी दलों समेत मजबूत क्षेत्रीय दल शामिल हैं। लेकिन जहां तक वोट शेयर का सवाल है तो राष्ट्रीय दलों की तुलना में क्षेत्रीय दलों के पास ज्यादा है। कांग्रेस ने गुजरात में अच्छा प्रदर्शन किया जो भाजपा को झटके देने के लिए पर्याप्त था। लेकिन फिर भी इस बात पर ध्यान देना होगा कि सत्ता विरोधी जैसे कारकों का कितना योगदान रहा। चुनाव में इन सभी मुद्दों का बहुत बड़ा योगदान होता है क्योंकि मतदाता इन्हें ध्यान में रखकर वोट करता है। फरवरी में राजस्थान में हुए तीन उप-चुनावों में कांग्रेस ने बीजेपी को मात दी थी। फिल्म पद्मावत के रिलीज के साथ-साथ कुछ अल्पकालिक मुद्दे भी थे। हालांकि अगर पूरी तस्वीर देखें तो मौजूदा सरकार द्वारा निर्वाचन क्षेत्रों में विकास लाने में विफलता इस हार के लिए ज्यादा जिम्मेदार थी। अगर कोई भी सरकार अपने वादे को पूरा करती है और अपने एजेंडे पर कायम रहती है तो कोई भी मुद्दा उनकी जीत रोक नहीं सकती। शिवसेना और बीजेपी के बीच टकराव की स्थिति चल रही है। वहीं शपथ ग्रहण के दौरान मंच पर दिखे विपक्षी दलों में से कोई भी शिवसेना से गठबंधन करने के लिए तैयार नहीं होगा। ज्यादा से ज्यादा ये लोग शिवसेना से बाहर से समर्थन लेने के लिए तैयार हो जाऐंगे। टीडीपी और टीआरएस की अपनी लड़ाई है। मुख्य रूप से वाईएसआरसीपी के साथ। एक तरफ जहां जगनमोहन रेड्डी भाजपा के नए सहयोगी बनने में कामयाब रहे हैं, वहीं एन चंद्रबाबू नायडू को एनडीए छोडऩे के बाद से क्षेत्रीय दलों के गठबंधन को बनाने की कोशिश में देखा जा रहा है। इसके अलावा जगनमोहन एनडीए के साथ जाएंगे या नहीं, इसका फैसला तिलंगाना और आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनावों में वाईएसआरसीपी के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। पहचान बचाने की कोशिश बैंगलोर में शपथ ग्रहण के साथ ये बदला कि कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपनी भूमिका को उलट दिया है। हालांकि ये कोई पहली बार नहीं है। इसका उदाहरण हम बिहार में भी देख चुके हैं। लेकिन कर्नाटक में अलग ये था कि यहां कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। अपने गठबंधन के सहयोगी की तुलना में उसने पर्याप्त संख्या में सीटें भी जीती थी, लेकिन फिर भी सत्ता में उसे दूसरे पायदान पर रहना पड़ा। अगर ये फैसला कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने लिया है तब तो ये एक स्वागत योग्य संकेत है। ये इस बात का संकेत है कि कांग्रेस ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि अपनी राष्ट्रीय स्थिति को बनाए रखने के लिए, इसे अपने क्षेत्रीय भागीदारों के साथ दूसरे पायदान पर रहना भी मंजूर करना होगा। यह राजनीतिक प्रतिष्ठा का विषय नहीं है बल्कि यह तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य में अपनी स्थिति को बनाए रखने की जद्दोजहद है। बीजेपी और उसके सहयोगी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के किलों पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहेंगे। जबकि विपक्षी इन राज्यों में भी अपनी संभावनाएं तलाशेंगे। -इन्द्र कुमार
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