21-May-2018 08:55 AM
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जिस तरह से राहुल गांधी ने अपनी इच्छा को सार्वजनिक तौर पर प्रकट किया है, उसमें कुछ भी चौंकाने वाला नहीं है, लेकिन उनकी इस स्वीकारोक्ति ने कुछ माकूल सवालों को जन्म दे दिया है जिस पर विचार करने की जरूरत है। मसलन-ये कि आखिर राहुल गांधी ने अपनी इच्छा को प्रकट करने के लिए इस समय को ही आखिर क्यों चुना? ये कोई लोकसभा चुनाव तो है नहीं और राहुल गांधी मुख्यमंत्री के दावेदार भी नहीं है, तब उन्होंने उस बात को क्यों दोहराया जो उन्होंने पिछले साल बर्कले में कहा था? माना जा रहा है कि राहुल ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा प्रकट कर कुल्हाड़ी पर पैर मार लिया है। क्योंकि भाजपा को 2019 में सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस के साथ अन्य पार्टियों का जो संभावित गठबंधन होना है उसमें प्रधानमंत्री के कई दावेदार हैं।
कांग्रेस के नेता की दावेदारी के बाद प्रधानमंत्री ने सीनियर नेताओं का मुद्दा उठा कर मामले को हवा दे दी है। विपक्ष में कई नेता प्रधानमंत्री बनने के लिए राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं। उनमें शरद पवार प्रमुख नेता हैं, जो सोनिया गांधी के विरोध में कांग्रेस से बाहर निकले थे, लेकिन बाद में यूपीए सरकार में शामिल भी हुए। ममता बनर्जी भी पुरानी कांग्रेस की नेता हैं, लेकिन ममता लगातार नया मोर्चा खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं। मुलायम-मायावती एक हो गए हैं। दोनों ही नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हैं। ये सब नहीं चाहेंगे कि वो राहुल गांधी की अगुवाई में काम करें। इसलिए पीएम ने बड़ा राजनीतिक पैगाम देने की कोशिश की है। हालांकि इन सब दलों की कमजोरी की वजह बीजेपी है, बीजेपी की लगातार जीत की वजह से सब दल एकजुट होने पर मजबूर हो रहे हैं। इसलिए सभी दलों के भविष्य का भी सवाल है। मजबूरी में ही सही राहुल गांधी को बतौर नेता मानना पड़ सकता है।
हालांकि, राहुल गांधी के इस इकबालिया बयान पर किसी को कुछ भी आश्चर्य करने जैसा नहीं लगा। जैसे कि- वे भी भारत के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य होने के नाते तो, वे ये मानकर चल रहे होंगे कि भारत का प्रधानमंत्री बनना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर हो भी क्यों न- आखिरकार, बड़ी संख्या में मौजूद कांग्रेस पार्टी का दरबारी मीडिया और पूरा का पूरा अनगिनत निष्ठावान और भक्त कार्यकर्ताओं का दल दिन-रात इसी कोशिश में ही तो लगा है कि वो नेहरू-गांधी परिवार के युवराज की इच्छा और विरासत में मिले इस अधिकार की पूर्ति हर हाल में कर सकें।
हो सकता है कि राहुल गांधी में कोई प्रशासनिक विशेषता न हो, उन्हें सार्वजनिक संस्थानों का भी अनुभव न हो, उन्होंने कांग्रेस पार्टी को एक के बाद एक कई चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करवाया हो और सबसे महत्वपूर्ण है उनका इस बात का रोना कि- भारत एक संसदीय लोकतंत्र है जहां उसके नेताओं को हर थोड़े समय के बाद फिर से जनता के पास जाने का आदेश दे दिया जाता है, लेकिन फिलहाल ये सारे मुद्दे महत्वहीन हैं।
राहुल गांधी का राज्याभिषेक करने के लिए कांग्रेस पार्टी हर संभव कोशिश कर रही है। उनके एक वरिष्ठ नेता जो फिलहाल पार्टी से निलंबित किए जा चुके हैं, वे पाकिस्तान के लोगों को ये समझाने की कोशिश में लगे हैं कि आखिर क्यों नरेंद्र मोदी एक भूल हैं और क्यों इस भूल को खत्म करने के लिए पूरे भारत के लोगों को एकजुट होने की जरूरत है। एक नजर में देखने पर ये जिज्ञासु रणनीति लग सकती है, लेकिन ईश्वर के दरबार और भारत की कांग्रेस पार्टी में कुछ भी हो जाना पूरी तरह से मुमकिन है।
जानकारों का मानना है कि राहुल गांधी गलत टाईम पर बोल गए हैं। हालांकि, अपने इस बयान से कांग्रेस अध्यक्ष ने, ‘प्लग द परसेप्शन गैप’ वाली बात को चरितार्थ किया है। यानी- जनता से जुडऩे के क्रम में वो समझ ही नहीं पाए कि उन्हें कब क्या कहना चाहिए। उनके इस बयान से हो सकता है कि उनके राजनीतिक मंसूबों पर पानी फिर जाए और उन्हें परेशानियों या विरोध का सामना करना पड़ जाए। बीजेपी को 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की कांग्रेस की उम्मीद या इच्छा तभी पूरी हो सकती है जब वो सहयोगी और दूसरे क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन स्थापित कर पाए। इसमें क्षेत्रीय दल और उनके नेताओं का अहम रोल होना तय है। ऐसा करके हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी अपने मुख्य एजेंडा यानी बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की मंशा में कामयाब भी हो जाए लेकिन उससे राहुल गांधी और प्रधानमंत्री की कुर्सी के बीच की खाई किसी भी तरह से कम होती नजर नहीं आती है।
ऐसे कई क्षेत्रीय दल और उनके नेता होंगे जो कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाने को तैयार हों, ताकि वे मोदी के असर को कम कर सकें, लेकिन ऐसा होने से उन पार्टियों के बीच सिर्फ एक चुनावी समझौता भर ही हो पाएगा- उससे ज्यादा कुछ नहीं। जब गठबंधन के नेतृत्व का सवाल पैदा होगा तब इन क्षेत्रीय नेताओं की महत्वकांक्षाएं आड़े आ जाएगी क्योंकि ये सब नेता अपने-अपने राज्य की जनता के बीच काफी बड़ी साख रखते हैं। मसलन- तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव जैसे नेता, जिन्होंने ये तय कर लिया है कि वे एक ऐसे तीसरे फ्रंट का ही हिस्सा बनेंगे जिसमें न बीजेपी का वर्चस्व हो न ही कांग्रेस पार्टी का। केसीआर ने तो कांग्रेस पार्टी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन ही मान लिया है। ममता बनर्जी भी गठबंधन या किसी ग्रैंड-अलाएंस की सूरत में कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व स्वीकारने को तैयार नहीं है। ममता के सोनिया गांधी से काफी अच्छे संबंध होने के बावजूद उन्होंने ये साफ कर दिया है कि वे राहुल के नीचे काम नहीं करेंगी। ममता बनर्जी के अलावा जो इकलौता नेता 2019 के विपक्षी दलों के गठबंधन का नेतृत्व करने के लायक है वो सिर्फ ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हैं और स्वभाव से काफी लो-प्रोफाईल रहने वाले इंसान हैं।
उधर, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार ने यह बयान देकर कि-जब बाजार में तुअर दाल बिकने आती है तो हर दाना कहता है हम तुमसे भारी हैं, लेकिन कीमत का पता तो बिकने पर ही चलता है-जाहिर कर दिया है कि राहुल के इस बयान को वे गंभीरता से नहीं लेते हैं। उन्होंने संकेत में ही सही, राहुल के पीएम पद की दावेदारी को भी खत्म कर दिया है। उन्होंने साफ कहा है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस का उनके साथ गठबंधन है। ऐसे ही कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों की ताकत है, जैसे बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, ओडिशा में बीजू जनता दल इन सबको समझना होगा, तभी कोई बात बन सकती है। 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी में महागठबंधन को लेकर मुलायम सिंह यादव ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वह कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर नहीं देखते हैं और राहुल गांधी को अपना नेता किसी भी तरह से नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक कांग्रेस की हैसियत सिर्फ दो सीटों की है। मुलायम सिंह यादव ने दो टूक शब्दों में कहा है कि सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को नहीं शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस की हैसियत सिर्फ दो सीटों की है। जाहिर है राहुल गांधी के मन में प्रधानमंत्री बनने के सपने पल रहे हैं। जाहिर है यह लोकतंत्र को ठेंगा दिखाने वाला बयान है। यह वरिष्ठों को अपना पिछलग्गू समझने की मानसिकता है और अपने सहयोगी दलों को हिकारत की भरी नजरों से देखने का नजरिया है। दरअसल यह वह अहंकार है जो लोकतंत्र को धता बताते हुए वंशवाद की अमरबेल के सहारे सत्ता के शीर्ष को पाना चाहता है। यह वह घमंड है जो लोकतकांत्रिक मर्यादाओं को कलंकित कर उस पर कालिख भी पोतने का काम करता है। यह वह गुमान है जो योग्यता को दरकिनार कर उच्च घराने में जन्म होने के आसरे उच्च आसन पाने की ही आकांक्षा पाले रहता है।
मोदी के सामने खड़े होना चाहते हैं राहुल
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अपनी इस वाकपटुता और चतुराई से भरे जवाब (जिसे मीडिया खूब उछालेगी) से राहुल की पूरी कोशिश है कि वो खुद को मोदी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दें। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि उनके रणनीतिकारों ने ये भांप लिया था कि पार्टी में ऐसा कोई भी नेता नहीं है जो पीएम मोदी के सामने खड़ा हो पाने का माद्दा रखता हो। राहुल गांधी को लगता है कि अगर वे इस तरह के शोर से अगर खुद को पीएम मोदी के समकक्ष खड़ा करने में सफल होते हैं तो राजनीतिक परिदृश्य में उनकी स्वीकार्यता न सिर्फ बढ़ेगी बल्कि पीएम पद के लिए उनकी दावेदारी को भी एक तरह से वैधता मिल जाएगी। राहुल गांधी की नीयत को अच्छी तरह से समझने के लिए जरूरी है।
राहुल लीडरशिप में ममता नहीं
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लडऩा चाहतीं। ममता बनर्जी ने कहा है कि वे राहुल गांधी को नेता तब मानेंगी, जब जनता उनको नेता मानेगी। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनके संघीय मोर्चे में कांग्रेस का स्वागत है, लेकिन यह तभी होगा जब कांग्रेस संघीय मोर्चे की ओर से हर सीट पर एक उम्मीदवार देने के नियम को स्वीकार करेगी। तृणमूल कांग्रेस की भी कई शर्तें हैं- ‘जैसे अगर कोई गठबंधन बनता है तो उसके नेता में कुछ गुण होना चाहिए- जैसे वो एक निर्विवाद नेता हो, अपनी पार्टी का प्रमुख हो, उसका किसी राज्य का मुख्यमंत्री के तौर पर अनुभव होना जरूरी है, वर्तमान में भी किसी राज्य का मुख्यमंत्री होना चाहिए, केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी काम करने का अनुभव होना चाहिए और संसद सदस्य के रूप में कम से कम एक या दो दशक का अनुभव होना अनिवार्य है।’ ममता बनर्जी की इन शर्तों को सुनने और पढऩे के बाद ये तय करना किसी के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए कि वे पीएम के पद के लिए किसके नाम या किसकी उम्मीदवारी को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगी हैं। इन हालातों में, जिस तरह से राहुल गांधी अपनी महत्वकांक्षाओं का खुला प्रदर्शन कर रहे हैं (हालांकि, उन्होंने बड़ी चतुराई से उसमें एक योग्यता को भी शामिल कर लिया था) उससे मुमकिन है कि नरेंद्र मोदी को सत्ता से दूर रखने की जो उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है वो या तो गड़बड़ा जाए या उसमें उलझन पैदा हो जाए।
- दिल्ली से रेणु आगाल