21-May-2018 08:28 AM
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विवाद की शुरुआत अलीगढ़ से भाजपा सांसद सतीश गौतम ने एएमयू के कुलपति तारिक मंसूर को लिखे पत्र के बाद हुई। गौतम ने यूनिवर्सिटी के वीसी को चिठ्ठी लिख कर पूछा कि एएमयू छात्रसंघ के हॉल में जिन्ना की तस्वीर क्यों लगा रखी हैं। जिस सतीश गौतम ने जिन्ना की तस्वीर हटाने की अब चिठ्ठी लिखी है वे तीन साल तक एएमयू कोर्ट के सदस्य रह चुके हैं, तब उन्हें तस्वीर हटाने का ख्याल क्यों नहीं आया? पूरे मामले पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसे सेंट्रल यूनिवर्सिटी का मामला बता कर पल्ला झाड़ रहे हैं और देश के शिक्षामंत्री प्रकाश जावड़ेकर चुप्पी साधे हैं। वही सडक़ पर हिंदू-मुस्लिम संगठन एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं।
एएमयू छात्रसंघ हॉल में जिन्ना की तस्वीर लगी हुई है, वे इसे न हटाने के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक को कुरेद रहे है साथ ही ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए जमीन तैयार करने के लिए सभी ने अपनी सहूलियत के हिसाब से मोर्चा भी संभाल लिया है। शिक्षा के मंदिर में सभी लोग राजनीतिक जमीन की तलाश में जुट गए है।
भारत पाकिस्तान के बंटवारे का जिम्मेदार और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के मुद्दे ने देश मे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति इतनी गर्म कर दी है कि राजनीतिक पार्टियों को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया और इस मुद्दे से हिंदू-मुस्लिम राजनीति करने वाले गदगद हैं। राम मंदिर, गाय, वंदेमातरम, तिरंगा यात्रा इन सबसे अलग एक नया मुद्दा राजनीत के सलाहकारों ने हाथों-हाथ ले लिया। एक तरफ संघ और बीजेपी के समर्थक तस्वीर ही नहीं देशभक्ति पर भी सवाल खड़े करने लगे तो वहीं एएमयू में फोटो होने के समर्थकों ने तर्क रखा कि जिन्ना को विश्वविद्यालय छात्रसंघ की आजीवन सदस्यता 1938 में दी गई थी। जिन्ना विश्वविद्यालय कोर्ट के संस्थापक सदस्य थे और उन्होंने दान भी दिया था। अब सोचने और ठंडे दिमाग से समझने की बात यह है कि क्या यह भी कोई विवाद है? अगर हां, तो देश में बीजेपी की सरकार केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर है, क्या करीब 131 फुट की एक फोटो को दीवार से उतारने के लिए स्पेशल कमांडोज के दस्ते की जरूरत पड़ती क्यों यह फैसला जल्दी नहीं लिया गया और इसे इतना बढऩे दिया गया? आज के इस दौर में माहौल कुछ ऐसा हो गया है कि कोई भी मामूली विवाद हिंदू-मुस्लिम का साम्प्रदायिक रंग अख्तियार कर लेता है। जिन्ना विवाद भी कुछ इसी तरह रहा।
विश्वविद्यालय के प्रवक्ता शाफे किदवई ने दशकों से लटकी जिन्ना की तस्वीर का बचाव किया और कहा कि जिन्ना विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्य थे और उन्हें छात्रसंघ की आजीवन सदस्यता दी गई थी। इतना ही नहीं इस बवाल ने उस वक्त और तूल पकड़ लिया जब योगी सरकार के मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने जिन्ना को देश की आजादी में योगदान देने वाला महापुरुष करार दिया। यह जिद दोनों तरफ से है। संघ और उसके उन्मादी समर्थकों की जिद तो फिर भी समझ में आती है, लेकिन एएमयू छात्र संघ के दफ्तर में लगी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लगे रहने की जिद भी समझ से परे है।
सही है कि जिन्ना की तस्वीर वहां 1938 से लगी हुई है, इसलिए कि उन्हें एएमयू छात्र संघ की आजीवन सदस्यता दी गई थी। जैसे गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और सीवी रमन को भी दी गई थी। वहां गांधी की तस्वीर भी लगी है। मगर जिन्ना और अन्य भारतीय नेताओं की कोई तुलना नहीं की जा सकती। जिन्ना की तस्वीर हटाने की मांग करने वालों की मंशा (जो निस्संदेह दूषित है) पर आप सवाल कर सकते हैं, लेकिन तस्वीर को नहीं हटाने की जिद के पीछे भी कोई सटीक तर्क समझ से बाहर है। अभी यह बताने का कोई तुक नहीं है कि कभी जिन्ना भी प्रगतिशील, सेकुलर और राष्ट्रवादी थे। जिन भी कारणों से भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति से उनका विश्वास खत्म हो गया और वे मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग पर अड़ गए, वे हम भारतीयों के लिए उसी तरह आदर के पात्र नहीं रहे, जैसे पहले थे। तब वे साम्पदायिक हो गए और देश के विभाजन के एक बड़े कारक भी बने। ऐसे में उनकी तस्वीर को टांगे रखने की जिद भी बहुत वाजिब नहीं है। क्योंकि कल कोई ‘राजघाट’ में गांधी की जगह गोडसे की समाधि बनाने की मांग भी कर सकते हैं।
-बिन्दु माथुर